अनिल जोशी
अल्मोड़ा से बारह किलोमीटर पश्चिम की ओर सदानीरा कोसी की उपत्यका में बसा एक रमणीक स्थल,हवलबाग । कुमाऊनी में कोहरे को ‘हौल’ कहते हैं । नदी के किनारे होने से यहां बरसात तथा जाड़ों में कोहरा रहता है । चारों ओर घने पेड़ होने से ही शायद इसका नाम हौलबाग (हवलबाग) पड़ गया । अंग्रेज़ों ने इसीलिये इसे Garden of Mist कहा ।
बात दो शताब्दी से भी अधिक पुरानी है।आंग्ल-गोरखा युद्ध अपने अन्तिम तथा निर्णायक चरण पर था । कुमाऊं-गढ़वाल पर गोरखा शासन था और अल्मोड़ा उनका मुख्यालय । अल्मोड़ा पर आक्रमण करने की नीयत से अप्रैल 1815 में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना कर्नल गार्डिनर के नेतृत्व में पश्चिम से चढ़ाई करते हुए कटारमल पहुंची । उधर रामगढ़ -मुक्तेश्वर के रास्ते दूसरी सेना भी कर्नल जैस्पर निकोल्स के नेतृत्व में काकड़ी घाट होते हुए कटारमल पहुंच गयी। निकोल्स की सेना में तोपखाना भी था और भारी तोपों को ढोने के लिए हाथी लाये गये थे। कटारमल से नीचे उतरकर कम्पनी की सेना ने तोपों सहित कोसी नदी को पार किया और हवलबाग में ही अपना शिविर स्थापित कर लिया। निकट ही स्थित सिटोली के जंगल में हुए घमासान युद्ध में गोरखा सेना परास्त हुई क्योंकि उन्होंने कभी बन्दूकों और तोपों का सामना नहीं किया था।
अल्मोड़ा पर अंग्रेज़ी सेना का अधिकार हो गया और कुछ परिवारों को छोड़कर अधिकांश गोरखा वापस नेपाल चले गये। 1816 में हुई सगौली की सन्धि के अनुसार सम्पूर्ण कुमाऊं और गढ़वाल अब ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकार में आ गया। अल्मोड़ा में तब सुविधाओं का अभाव था ।अतः नये शासकों ने हवलबाग में ही अपना प्रारंभिक मुख्यालय बनाया क्योंकि यहां की जलवायु उन्हें मुफीद लगी। बंगले, बैरकें, खेल के मैदान बने। हाथियों को रखने के लिये एक हालनुमा हाथीखाना बनवाया । ये इमारत जीर्ण शीर्ण हालत में आज भी मौजूद है यद्यपि इसमें अब स्कूल चलता है। सामने मैदान में जब क्रिकेट मैच होता है तो गेंदबाजी का एक छोर आज भी हाथीखाना एंड कहलाता है ।
कुमाऊं के दूसरे कमिश्नर जार्ज विलियम ट्रेल ने यहीं से बीस वर्षों तक प्रशासन चलाया। उसने अपने लिए एक भव्य बंगला बनवाया जो संभवतः अब जिला प्रशासन का डाक बंगला है। उसके पुराने चित्र उपलब्ध हैं। एक स्थानीय निवासी ने बताया कि पुराने ज़माने में कुमाऊनी में एक कहावत प्रचलित थी : राज कां रूनी ? ..हौलबाग । अपनी सैन्य शक्ति को बढ़ाने वास्ते ट्रेल ने स्थानीय लोगों को भर्ती करने की योजना । गोरखाओं की वीरता से प्रभावित होकर उसने उन गोरखाओं को भर्ती किया जो अल्मोड़ा में ही रुक गये थे और इन्हीं को लेकर 1821 में हवलबाग में ही कुमाऊं बटालियन का जन्म हुआ जो आगे चलकर 3 गोरखा राइफल्स के नाम से जानी गयी। कालांतर में इस बटालियन का मुख्यालय अल्मोड़ा में कर दिया गया।इस नाते हवलबाग को उत्तराखंड की पहली अंग्रेज़ी छावनी कहा जा सकता है ।
बीसवीं सदी के प्रारंभ में अल्मोड़ा में तैनात गोरखा राइफल्स के एक अंग्रेज़ अधिकारी के The Pioneer नामक दैनिक में ALMORIANA शीर्षक से कुछ संस्मरण छपे थे जिनमें तत्कालीन हवलबाग का जीवंत विवरण मिलता है । उसके अनुसार हवलबाग में ट्रेल ने अनेक यूरोपीय फलों के पेड़ लगाये,जैसे आड़ू,खुबानी,पुलम, नाशपाती,अखरोट,चैस्टनट इत्यादि । फूलों की कतारबद्ध क्यारियों से सजी इस नयी बस्ती का सौन्दर्यीकरण किया।बीचों बीच एक विशाल कमल कुंज बनवाया जो आज लगभग सूख चुका है।मनोरंजन के लिये क्रिकेट और पोलो के मैदान बनवाये। ट्रेल ने एक स्थानीय महिला से विवाह भी रचाया और उससे उत्पन्न पुत्र की 1834 में शैशवावस्था में अकाल मृत्यु होने पर उसे वहीं दफनाया गया। कुछ लेखों में उसकी कब्र का जिक्र है परंतु अब वो नहीं मिलती ।
1827 में एक अंग्रेज युवती एलिजाबेथ सैलमन की गढ़वाल यात्रा के दौरान एक नदी में बहकर मृत्यु हो जाने पर उसको हवलबाग में ही दफनाया गया । मगर उसकी कब्र जिसका ज़िक्र ALMORIANA में है के अवशेष अब नहीं मिलते । अनेक अंग्रेज फौजी अफसर हवलबाग में बसे।इनमें से एक थे जनरल क्ले ग्रांट रौस जो पेशे से चिकित्सक थे। उनके एक पुत्र रोनाल्ड का जन्म 13 मई,1857 को हवलबाग में हुआ।यह बालक आगे चलकर सर रोनाल्ड रौस के नाम से विख्यात हुआ जिसे मलेरिया परजीवी की खोज के लिये 1902 में नोबेल पुरस्कार दिया गया।
जब तक मोटर सड़क नहीं बनी थी अल्मोड़ा से कौसानी और बागेश्वर का पैदल मार्ग हवलबाग होकर ही जाता था । ट्रेल ने कोसी पर एक मज़बूत झूला पुल बनवाया जिसमें आज भी आवागमन होता है । जब कौसानी में चाय का उत्पादन प्रारंभ हुआ तो चाय की पेटियां बैलगाड़ियों में लदकर इसी झूला पुल से होकर गुज़रती थीं। हवलबाग के विकास से आसपास के गांवों को भी लाभ हुआ और उन्हें रोजगार के अवसर मिले।
सुकुमार कवि सुमित्रा नंदन पंत, जिनका पैतृक गांव स्यूनराकोट यहां से अधिक दूर नहीं है, के पिता कौसानी के चाय बागान के प्रबंधक रहे।
जनकवि गिरीश तिवाड़ी गिर्दा का गांव ज्योली भी मात्र पांच मिनट की दूरी पर है जो अब पक्की सड़क से लगा हुआ है। उसी सड़क पर आगे चलकर कुमाऊनी के प्रख्यात कवि चारु चंद्र पांडे का पैतृक गांव कसून है और सड़क के अंतिम छोर पर कुमाऊं केसरी बद्री दत्त पांडे तथा वैद्य एवं राष्ट्रवादी कवि गौरी दत्त पांडे ‘गौर्दा’ का गांव पाटिया ।
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में कुमाऊं कमिश्नरी के अल्मोड़ा नगर (और कालांतर में नैनीताल) स्थानांतरित हो जाने पर हवलबाग का महत्व धीरे-धीरे कम होने लगा और आज वहां उस युग के कुछ ही अवशेष मिलते हैं । स्वतंत्रता के उपरांत जब प्रथम पंचवर्षीय योजना के तहत पूरे देश में विकास खण्ड अस्तित्व में आये तो हवलबाग एक प्रगतिशील विकास खण्ड के रूप में विकसित हुआ। सम्बंधित विभाग वाले इसे aaa ‘वीआईपी’ ब्लॉक कहते हैं । ब्लाक कर्मियों के प्रक्षिशण हेतु यहां एक संस्थान भी बनाया गया जिसमें ग्रामीण विकास से संबंधित प्रत्येक कार्मिक को एक ना एक बार तो आना ही पड़ता है ।
प्रख्यात कृषि वैज्ञानिक बशिश्वर नाथ ‘बोशी’सेन द्वारा अल्मोड़ा में स्थापित विवेकानंद कृषि अनुसंधानशाला का मुख्यालय भी अब हवलबाग में ही स्थानांतरित हो गया है क्योंकि यहां विविध प्रयोग हेतु बड़े और चौरस खेत हैं तथा नदी का किनारा है। मात्र दो किलोमीटर दूर पश्चिम की ओर केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय के आधीन गोविंद बल्लभ पंत हिमालयी पर्यावरण शोध केन्द्र स्थित है। थोड़ी ही दूरी पर कोसी नदी पर एक बैराज का निर्माण किया गया है जो जल संवर्धन की योजना के अलावा पर्यटकों के आकर्षण का भी केंद्र है। अत: कह सकते हैं कि हवलबाग में औपनिवेशिक और स्वातंत्र्योत्तर भारत,दोनों के दर्शन होते हैं ।