बृजमोहन जोशी
कुमाऊँ की काशी (बागेश्वर) बाघनाथ देव भूमि में पतित पावनी सरयू-गोमती तथा गुप्त सरस्वती के त्रिवेणी संगम पर माघ माह में प्रतिवर्ष उत्तरायणी ( धुगुती त्यार) मंकर संक्रान्ति का मेला लगता है। जहाँ यह मेला अपना ध्ाार्मिक तथा व्यापारिक महत्व रहता है। वहीं इस मेले का ऐततिहासिक महत्व इस की लोकप्रियता को और भी अधिक बढ़ा देता है। ज्योतिषियों के अनुसार- जब सूर्य अपनी स्थिति में परिवर्तन कर दक्षिणायन स्थिति की ओर अग्रसर होता है तो इसे ‘उत्तरायणी‘ तथा दूसरी स्थिति में जब सूर्य मकर राशि में प्रविष्ट करता है तो उसे मकर संक्रान्ति कहा जाता है अर्थात एक वर्ष में दो अयन होते है दक्षिणायन-उत्तरायण। दक्षिणायन भाग पितृ-पक्ष तथा उत्तरायण पक्ष देव-पक्ष माना जाता है।
स्कन्द पुराण के अनुसार-जब वशिष्ठ जगत उद्धार के लिए ब्रह्मा जी की अपार कृपा पाकर भगवान विष्णु के चरणों से निकली सरयू को लेकर पृथ्वी की तरफ आये तब ब्रह्मकपाली के पास मार्कण्डेय ऋृषि तपस्या कर रहे थे इस कारण सरयू आगे नहीं बढ़ पा रही तब वशिष्ठ ने भगवान शंकर की आराधना की तब शिव ने व्याध्ा्र तथा माँ पार्वती ने गाय का रूप धारण किया तथा गाय का पीछा किया। जब गाय रंभाने लगी तो ऋषि गाय की रक्षार्थ उठे तो शिव को पहचान गये तथा सरयू को मार्ग दे दिया।
किवदंती के अनुसार -एक कुमाऊँनी राजा को उसके ज्योतिषी ने बतलाया की मंकर संक्रति के दिन उसकी मृत्यु उसी के मंत्री हुकुम सिंह के हाथों होगी। स्वयं षडयंत्र से बचकर राजा ने मंत्री के शरीर के छोटे-छोटे टुकड़े करके कौवों को खिला दिये। उसी दिन से राजा की आज्ञानुसार आटे के मीठे पकवान बनाकर उनकी माला बनाकर बच्चों को पहनाई जाती है जिसे घुगुती की माला कहते है। बच्चे प्रातः काल में कौवों को बुलाकर उन्हें पकवान खिलाते हैं। इस तरह राजा की मौत टल जाती है। इस खुशी में तब से इस राज्य में यह त्योहार मनाया जाता है।
दूसरी किवदंती के अनुसार- कुमाऊँ में जब चन्द्र वंश का शासन था जा राजा कल्याण चन्द्र की कोई सन्तान नहीं थी वाघनाथ जी की कृपा से उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम निर्भय चन्द्र रखा। माँ उसे घुगुती के नाम से पुकारती थी। उसके गले में रत्न जड़ित मोतियों की माला थी जो बालक को अत्यधिक पसन्द थी। जब भी वो रोता, दूध नही पीता, खाना नहीं खाता, शरारत करता तो माँ कहती थी कि तेरी माला कौवे को दे दूँगी तो वो कौवों को बुलाने का स्वांग करती आवाज देती- कि आ कव्वा आ-भाऊ की माला ले जा, तो कुछ कव्वौ मां की आवाज सुनकर आने लगे और बालक उनको देखकर खुश हो जाता वो भी मां की तरह कौवों को आवाज देने लगा और कौवे आने लगे इस तरह बालक और कौवों में दोस्ती हो गयी। राजा का मंत्री जो राज्य हड़पना चाहता था, ने घुगुती का अपहरण किया किंतु कौवों ने उसे देख लिया, कौवे बालक के गले की मोतियों की माला को लेकर राजा के पाय पहुँचे तथा कौवों की सहायता से मंत्री का पकड़कर मृत्यु दण्ड दिया गया तब से राजा हर वर्ष इस दिन से आटे के मीठे पकवान बनाकर कौवों को खिलाता था तथा धीरे-धीरे इसे घुगुतीया त्यार का नाम दे दिया गया।
तीसरी किवदंती के अनुसार – कुमाऊँ में कत्यूरियों ने लगभग 2500 वर्षो तक शासन किया। लोक मान्यता है कि महारानी जियारानी जो कि कत्यूरी वेश के महाराज धामदेव की महारानी थी। रानीबाग में स्थित एक गुफा में विलुप्त हो गई थी। जियारानी के नाम से इस स्थान को रानीबाग कहा जाता है। आज भी कत्यूरियों के वंशज रानीबाग पहुँचकर ढोल, नगाडे़, निशाणों के साथ देव नृत्य करते हुये रात्री-जागरण व नहान को आते है। जियारानी ब्रहम देव की माता थी। ब्रहम देव का शासन-काल 790 ईसवी के आसपास था। रानीबाग से निकलने वाली नदी गौला को पुराणों में गार्गी का नाम दिया गया है। मंकर सक्रान्ति के दिन इस स्थान पर स्नान व यज्ञोपवीत का कर्मकाण्ड भी होता है।
उत्तरायणी पर्व के दिन आटे, गुण, घी, से पकवानों की माला बनाकर बच्चों के गले में डाली जाती है। तथा बच्चे प्रातः काल यह बाल गीत गाते हैं व कौवों को बुलाते है।
काले!काले!काले!
काले कव्वा काले, घुंगुती माला खाले,
काले कव्वा काले पूस की रोटी माधें खोले,
काले कव्वा काले मोल बटिक आलें
त्यार लगढ़ मै कन दे भल-भल दगड़
त्यर गलड़ा थेचुलों-त्यर गलणा मेचुलों
ले कव्वा बढ़ में कन दे भल-भल दगड़
ले कव्वा उलेरी मैं कन दे भल-भल दुलहैणी
ले कव्वा बड़ मैं तन दे सुनक घड़
काले कव्वा काले, घुघुति माला खाले।
प्राचीन मान्यता है कि इस दिन कौवों को खिलाया गया यह पकवान कौवों के माध्यम से उनके पूर्वजों को पहुँचता है। एक अन्य कहावत के अनुसार कुछ लोगों का मानना है कि पर्वतीय ग्रामीण अंचल में ठन्ड से बचने के लिए सूर्य के पुत्र यम को भोजन आमन्त्रित करते हैं तथा कौवों को यम का प्रतीक माना गया है।
उत्तरायणी मेले का एक ऐतिहासिक महत्तव इस बात से और अधिक बड़ जाता है क्योंकि आज के ही दिन 21 जनवरी वर्ष 1921 को ‘कुमाऊँ केसरी‘ बद्रीदत्त पाण्डे, कुमाऊँ परिषद के नेता हरगोविन्द पंत, चिंरजीलाल के नेतृत्व में सरयू नदी (बागेश्वर) के किनारे हजारों लोगों के द्वारा कुली बेगार प्रथा का अन्त किया गया था।
बेगार प्रथा विश्व के सभी भागों में किसी न रुप में सदैव प्रचलित रही। भारत वर्ष भी अपने को इससे प्रथक न रख सका। भारत वर्ष में भी बेगार प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही थी। जमीदारी तथा सामन्तों प्रथा ने इसे अधिक प्रचलित किया। कुमाऊँ में भी यह प्रथा प्राचीन समय से चली आ रही थी। कत्यूरी-चन्द्र एवं गोरखाओं के समय में बेगार प्रथा का अत्याधिक बोल बाला था। 1815 ई0 के पश्चात् कुमाऊँ में अंग्रेजी राज्य प्रारम्भ हुआ। इस काल में बेगार प्रथा के नये-नये आयाम तय किये जिसका एक रुप था कुली बेगार या कुली उतार कानून प्रथा इसी दिन डिप्टी कमिश्नर-डाइबिल ने 50 पुलिस कर्मियों के साथ इस आन्दोलन को दबाने की भरसक चेस्टा की किन्तु वे पूर्ण रुप से असफल रहे। स्व. बद्रीदत्त पाण्डे जी के नेतृत्व में हजारों लोगों ने सरयू का जल हाथ में लेकर यह संकल्प किया था कि आज से हम कुली उतार व बेगार नहीं देंगे। यह आन्दोलन पूर्ण रूप से सफल रहा तथा तभी से यह परम्परा रही है कि मेले क दिन सारे राजनैतिक दल सरयू बगड़ में अपनी नीतियों व कार्यक्रमों की घोषणा करते हुये स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों को याद करते है। जो इस मेले का स्पष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है। एक खास बात और है घुघूती और हरेला लोकपर्व की कि इन्हें घर के मुखिया के द्वारा ही बनाया और लगाया जाता है।
वर्तमान समय में वैज्ञानिक दृष्टिकोण व परम्पराओं अंध-विश्वास-रूढ़िवादी मान्यताओं ने इनके संस्कारों पर्वो के प्रति विरोध की भावना को जागृत किया है। जिसका प्रभाव हमारी सोच पर भी पड़ा है कि ऐसा करने से या ऐसा ना करने से कुछ नहीं होता। कुल मिलाकर यह बच्चों का पर्व है।