शंकर गोपाल
कल 30 अक्टूबर को देश के गृह मंत्री अमित शाह जी ने उत्तराखंड सरकार की “घसियारी कल्याण योजना” का उद्घाटन किया। हम इस बात का स्वागत करते हैं कि सरकार अभी घसियारियों पर नीति बनाने के लिए तैयार हो गयी है। लेकिन हमारा मानना है कि इस योजना द्वारा न महिलाओं का कल्याण होने वाला है, और न ही घसियारियों को इज़्ज़त मिलने वाली है।
2016 में वरिष्ठ आंदोलनकारी और हमारे साथी त्रेपन सिंह चौहान के प्रस्ताव पर चेतना आंदोलन ने चमियाला और अखोड़ी गांव में दो बार घसियारी प्रतियोगिता आयोजित की थी। इन प्रतियोगिताओं में सैकड़ों गरीब महिलाएं ने भागीदारी की थी और फाइनल देखने के लिए हज़ारों लोग पहुँच गए थे। गांव वालों से ही चंदा इकट्ठा कर प्रथम विजेता को “Best Ecologist Award” के रूप में एक लाख रुपये और चांदी का मुकुट दिया गया था।
हमारा मानना अभी भी है कि घसियारी पहाड़ों के बेस्ट इकोलोजिस्ट हैं। शताब्दियों से उन्ही की मेहनत से पहाड़ों के जंगल और नदियां बच पाए हैं, जिनके आधार पार आज पूरा उत्तर भारत जी रहा है। उत्तराखंड में न्याय के लिए जितने भी संघर्षें हुए हैं, उनमें हमेशा पहाड़ी महिलाएं आगे रही हैं।
लेकिन अंग्रेज़ों के ज़माने से पहाड़ी समुदाय के हक़ हकूकों को धीरे धीरे खत्तम कर दिया गया है। जल, जंगल और ज़मीन पर पहले नौकरशाही और उसके बाद बड़े कॉर्पोरेट का राज बन गया है। इसी के खिलाफ इतिहासिक चिपको आंदोलन हुआ था, जिसकी वजह से आज भी दुनिया भर में लोग पहाड़ी महिलाओं की साराहना करते हैं। लेकिन उत्तराखंड के अंदर किसी सरकार ने उनके संघर्षों पर कोई ध्यान नहीं दिया है।
जब 2005 और 2006 में देशभर में वन अधिकारों के लिए आंदोलन हुआ था, केंद्र सरकार को वन अधिकार कानून पारित करना पड़ा, जिसके अंतर्गत सारे पारम्परिक हक़ हकूकों को मान्यता दी गयी है। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि उस कानून के अनुसार वनों की रक्षा करना और प्रबंधन करना गांव वालों का हक़ है। लेकिन इस कानून का आपराधिक उलंघन कर सरकार बड़ी परियोजनाएं और ठेकेदारों को पहाड़ के सारे प्राकृतिक संसाधनों को बेच रही है। इसके अतिरिक्त 2018 में भाजपा सरकार भू कानून को खत्तम कर खेती की ज़मीन की लूट के लिए भी दरवाज़ा खोल दिया है।
अभी सरकार इन सारे मुद्दों को नज़र अंदाज़ कर इस नई योजना को लायी है। इस सन्दर्भ में बहुत साथियों ने जायज सवाल उठाया है कि अगर दुकानों से घास बेचा जायेगा, वह घास कहाँ से आएगा? क्या इस योजना द्वारा सरकार घसियारियों को अपना ही जंगलों के अंदर मज़दूर बनाना चाह रही है? क्या जैसे रेत, लकड़ी, इत्यादि के साथ किया गया है, सरकार अभी घास को भी बड़े ठेकेदारों के हाथों में देना चाह रही है?
हमारा मानना है कि घसियारियों और पहाड़ी महिलाओं का कल्याण तब होगा जब सरकार उनकी हक़ों को मान्यता देगी। इस रूप की योजना पारित कर लोगों को गुमराह करने के बजाय, सरकार को उत्तराखंड में वन अधिकार कानून को तुरंत अमल करना चाहिए। उसके साथ साथ घसियारियों के कल्याण के लिए एक अलग कल्याण कोष होना चाहिए। “बेस्ट इकोलोजिस्ट” को एक उपभोक्ता के रूप में देखना पहाड़ी महिलाओं के इतिहासिक संघर्षों का अपमान है।