शैलेन्द्र पाण्डेय
पहले तो आपको बता दें कि उरगम नहीं, उर्गम होता है। सड़क किनारे के बोर्ड लिखने वालों ने नाम का सत्यानाश कर रखा है। और दूसरी बात, भात बहुत गरम था। उससे उठ रही भाप बता रही थी कि अभी-अभी भगौने से थाली में निकाला गया है। साथ में थी राजमा की दाल और हरी मिर्च। सरस्वती देवी दाल-भात को हाथ लगाने ही जा रही थीं कि हम जा धमके।
उन्होंने थाली खिसका दी, भात ठंडा होने लगा और बातें शुरू।
‘गौरा देवी हमसे कहती थीं कि जंगल बचाओ। जंगल बचेगा, तभी हम बचेंगे। मैं और दूसरी लड़कियां बहुत छोटी थीं उस वक़्त, लेकिन उनके शब्दों में पता नहीं क्या था कि हम भी पेड़ बचाने निकल पड़े।’
चिपको आंदोलन शुरू करने वाली गौरा देवी के साथ काम कर चुकी हैं सरस्वती देवी। महिला मंगल दल की अध्यक्ष रहीं। बाद में सात गांवों की प्रधानी की और साथ ही अपनी सुंदर-सी घाटी को बचाने के लिए आंदोलन चलाया।
सरस्वती देवी का गांव है देवग्राम और यह पड़ता है उर्गम वैली में। कल्प गंगा की इस घाटी में कुल 12 गांव हैं। इनमें से देवग्राम, गिराबांसा और तल्ला बरगिंडा भूमि धसकने की आपदा को झेल रहे हैं।
और इसकी वजह?
वही जो जोशीमठ के लिए जिम्मेदार बताई जाती है, हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट। सरस्वती देवी बताती हैं कि घाटी से विष्णुगाड़-पीपलकोटी 444 मेगावॉट परियोजना गुजर रही है। यह प्रोजेक्ट 2005-2006 से शुरू हुआ और तभी से परेशानी भी शुरू हो गई।
जोशीमठ से करीब 12 किलोमीटर पहले पड़ता है हेलंग। यहीं से रास्ता कटता है उर्गम के लिए। नैशनल हाईवे छोड़कर इस रास्ते पर चलने के साथ ही उर्गम घाटी दुर्गम लगने लगती है। कई जगह तो कहने के लिए भी सड़क का निशान नहीं है। घाटी की तरफ से मिट्टी धसक रही है और पहाड़ की ओर से मलबा गिर रहा है। 2013 में आई आपदा में इस सड़क के तीन मोड़ बह गए थे। करीब दशक भर बाद भी उसे दुरुस्त करने की कवायद जारी है।
लेकिन, उर्गम के लोगों को जो झेलना पड़ रहा है, उसके आगे डेढ़ घंटे का यह सफर कुछ भी नहीं। देवग्राम के प्रधान हैं देवेंद्र सिंह रावत। काग़ज़ों को बहुत संभालकर रखते हैं। बात शुरू करने से पहले ही उन्होंने एक मोटी फाइल सामने लाकर रख दी।
राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री, विधानसभा अध्यक्ष, सांसद, विधायक, स्थानीय प्रशासन- सभी के नाम प्रार्थना पत्र की कॉपी। किसी में हाइड्रो प्रोजेक्ट को रोकने की मांग, तो किसी में गांव में जनसुविधाओं के लिए गुहार।
‘इसका कोई फायदा हुआ?’
‘पिछले सीएम तीरथ सिंह धामी को लेटर लिखा था। उधर से जवाब में प्रधान बनने पर बधाई संदेश आ गया।’
देवेंद्र बताते हैं कि प्रोजेक्ट शुरू होने के बाद घाटी के गांवों में भूस्खलन और भूधंसाव बढ़ा है। 2013 की आपदा के बाद तो हालात और ख़राब हो गए। उनके ख़ुद के मकान में दरार आ गई है। पिछले साल ही उन्होंने दरार भरवाकर रंगाई-पोताई कराई थी, लेकिन यह चालाकी चली नहीं। चिटकन फिर से दिखने लगी। देवेंद्र के पड़ोस में आशीष के दोमंजिला मकान में भी बिल्कुल बीच से पड़ी दरार पीले पेंट के बावजूद समझ आ जाती है। आशीष ने सीमेंट भरकर नुकसान रोकने की कुछ कोशिश की है।
इसी तरह कुंवर सिंह, राम सिंह, अरविंद सिंह, कुंदन, आनंद के मकानों में दरार पड़ गई है। बीएसएनल का टावर पीसा के मीनार की तरह टेढ़ा होने लगा है। भरत सिंह के घर में सफ़ेद गुलाब का फूल मुस्कुरा रहा है, पर उसे देखने वाला कोई नहीं, क्योंकि घर इस काबिल ही नहीं कि उसमें रहा जाए। वह परिवार के साथ पिलखी चले गए हैं। उनके घर के ठीक पीछे बना पंचायत भवन दरक रहा है। बाहर का फर्श धंस गया है, सीढ़ियां उखड़ रही हैं और दीवार पर जहां सरकारी बोर्ड लगा है ‘आरोग्यम ई-हेल्थ सेंटर’, बिल्कुल वहीं से एक चिटकन नीचे फर्श तक घुसी हुई है। इस सेंटर का निर्माण 2013 की आपदा के बाद ही हुआ था।
सामाजिक कार्यकर्ता लक्ष्मण नेगी बताते हैं कि घाटी में जब टनल बनना शुरू हुई, तो गांववालों ने विरोध जताया था। जनसुनवाई में आपत्ति उठाई गई। उस समय के केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री को लेटर लिखा गया था। सीएम हेल्पलाइन में मामला ले जाया गया। सरस्वती देवी आमरण अनशन पर भी बैठीं। चार-पांच दिनों तक वह अनशन चला। इसके बाद टिहरी हाइड्रोपावर डिवलपमेंट कॉरपोरेशन ने एक कमिटी बनाई, जिसमें कल्प क्षेत्र विकास आंदोलन के सदस्य, स्थानीय लोग और विधायक भी थे।
लक्ष्मण नेगी के मुताबिक, ‘कमिटी ने जांच में मान लिया कि प्रोजेक्ट से नुकसान हो रहा है। यहां तक कि वन पंचायत की काफी ज़मीन इस टनल की वजह से ख़राब हो रही थी। बावजूद इसके प्रोजेक्ट जारी रहा। दो साल तक मामले को उलझाया गया। देवग्राम से ज़्यादा विरोध की आवाज़ उठ रही थी, तो अफ़सरों ने प्रयास किया कि काग़ज़ों पर कहीं भी इस गांव का नाम न आए।’
ग्रामीणों की खेती की काफी ज़मीन कट-कटकर बह चुकी है। कई हिस्से तो स्थायी भूस्खलन वाले बन चुके हैं, जहां अब कोई उपज नहीं हो सकती। देवग्राम में गौरी देवी का मंदिर है। उसे कटान की वजह से दूसरी जगह शिफ्ट करना पड़ा।
घाटी में जिन जगहों पर कभी हरियाली थी, वहां अब खाली धब्बा दिखता है, जहां से मलबे का गिरना लगातार जारी है। इसे लेकर एक बार वन विभाग से पौधरोपण की मांग की गई थी।
‘हमें लगा कि पौधे लग जाएंगे, तो भूस्खलन बंद हो जाएगा, लेकिन वन विभाग ने हाथ खड़े कर दिए। कहा कि यह ज़मीन प्लांटेशन के लिए सही नहीं है।’ लक्ष्मण की बातों से जाहिर हुआ कि एक बार आपदा का चक्र शुरू हो जाए, तो उससे कोई बच नहीं सकता।
लेकिन, इतने प्रयासों का कुछ असर हुआ। मुआवजे के नाम पर एक परिवार को पांच साल में करीब 65 हज़ार रुपये देना तय हुआ है। यह रकम मनरेगा के हिसाब से निश्चित होती है। हज़ार परिवारों को इसका फायदा मिल रहा है। अभी तक किसी को दो किस्त मिली है और किसी को तीन। साथ ही, तल्ला बरगिंडा के 41 परिवारों को पुनर्वास योजना में शामिल किया गया है। सरकार ने हाल में एक करोड़ 84 लाख रुपये जारी किए हैं इनके लिए।
हालांकि लक्ष्मण कहते हैं कि लड़ाई बहुत लंबी है। मुआवजे से घर चल सकता है, लेकिन पहाड़ नहीं बच सकता।
सरस्वती देवी बताती हैं, ‘जब हम गौरा देवी के साथ जाते थे, तो हमें आंदोलन से भटकाने के लिए तरह-तरह के प्रयास किए जाते। कभी अफ़सर लोग कहते कि जंगल काटने दो, तुम्हीं लोगों को फायदा मिलेगा। कभी डराते-धमकाते। हम डरना नहीं है।’
‘नवभारत गोल्ड’ से साभार