इस्लाम हुसैन
कौन कहां का है? इतिहास से वर्तमान
बात 1992 की रही होगी नैनीताल जिले में एक तेज तर्रार डीम सैप आए थे, उन्होने और काम किए या नहीं एक काम जबरदस्त किया। अपने आप को यहां के लोगों से कुछ ज्यादा ही पहाड़/मुलुक का ख़ातिर ख्वाह बनाने का स्वांग किया। और इसको अवसर जानकर यहां जिसको देखो वही उनसे चिपक कर कुछ ज्यादा ही कुमय्या बन रहा था। भले ही पीढ़ियों से भभरिया हो या फिर दो तीन पीढ़ियों से दिल्ली लखनौ में जम गया हो। उस समय मुझे भी बड़ी फिकर लगी कि यार अगर कहीं हम को भी बाहरी बना दिया तो क्या होगा? …………. हां तो उन्हीं दिनों शरदोत्सव के समय हमें भी एक मौका मिल गया कि हम, अपने को दावे के साथ सिद्ध कर सकें कि, भाई हम भी तुम्हारे पीछे पीछे यहां आए हुए ठैरे।
हुआ यूं कि उस साल शरदोत्सव के अवसर पर निकलने वाली पत्रिका के सम्पादन की जिम्मेदारी हिन्दी के ख्यातनाम कहानीकार साहित्यकार लक्ष्मण सिंह बटरोही जी को दे दी गई थी*। बटरोही जी मेरे पूर्व परिचित थे, वे जानते थे कि मैं लिखता और छपता हूं, भले ही उन्होने नैनीताल समाचार के कहानी विशेषांक के लिए मेरी भेजी दो लघु कहानियों नहीं चुनीं थीं (जिन्हें बाद में नैनीताल समाचार में सम्पादक जी ने अपने विशेषाधिकार से छाप दिया गया था) उन्होंने मुझसे कुमाऊं के दस्तकारी/हस्तशिल्प पर एक लेख मांग लिया, हस्तशिल्प और लघु उद्योग मेरा प्रिय विषय रहा था। इस विषय पर मैं क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दैनिकों में लिख चुका था।
पत्रिका को भेजने के लिए लेख लिखने में जितना मैं कर सकता था, उतनी मेहनत मैने उस लेख के लिए की, और अन्ततः वह लेख शरदोत्सव की स्मारिका ‘नंदा भारती’ में “कुमाऊं में दस्तकारी परम्परा व सम्भावनाएं ” नाम से छप गया, जिसमें माणा-मुन्सियारी से लेकर जसपुर काशीपुर (जहां तक पहाड़ के चंद वंशीय राजाओं का विस्तार था) तक व रामगंगा व गगास घाटी से लेकर बंगाली गांवों के हस्तशिल्प को समेटने की कोशिश की थी, हालांकि यह बड़ा और शोध योग्य विषय होने और उसके सापेक्ष समय कम होने से बहुत कुछ रह गया था।
इस लेख को बहुत लोगों ने पसंद किया। अनेक परिचितों मित्रों ने मेरे उस लेख की सराहना की। उस दौरान उ०प्र० के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी स्व० गिरिराज शाह उत्तराखंड शोध संस्थान नाम से संस्था चलाते थे, उन्होने मुझसे इस लेख का उपयोग संस्थान की पुस्तक व पत्रिकाओं में करने के लिए लिखित में अनुरोध किया, मैने बिना देरी किए सहर्ष अपनी सहमति देदी। (इसके लिए एक दिन वह अपनी अधिकारिक कार और अपना लाव-लश्कर लिए मेरी अनुपस्थिति में मेरे घर भी आ गए थे, जिससे मुहल्ले में हड़कंप मच गया था)
मेरे लेख का उपयोग उन्होने किया, और धन्यवाद भी दिया। इस बात के बाद से उनसे सम्बन्ध बना तो, उन्होने मुझसे पहाड़ में मुसलमानों की वर्तमान स्थिति उनकी बस्तियों गांवों की दशा और उनके आने के विषय में काम करने को कहा। यह बड़ा काम था, साधन सम्पन्न के लिए तो मुश्किल नहीं था लेकिन मुझ जैसे मजदूर के लिए बहुत ज्यादा मुश्किल था।
इस विषय में मैंने कुछ छुटपुट काम किया, कुछ मित्रों ने परिचितों ने जानकारी दी, तब नैट की बात क्या करें हमारे शहर में ढंग की कोई लाइब्रेरी भी नहीं थी। काठगोदाम में जो लाइब्रेरी नाम का स्थान था वह व्यक्तिगत बपौती था, वहां किताबें लेने की कल्पना नही की जा सकती थी।
लेदेके हल्द्वानी की लाइब्रेरी में संदर्भ की किताबें नहीं मिली।
नैनीताल जाना होता नहीं था, जाते भी तो बस थप्पी मारना होता था। जो किताब मिली वह पर्याप्त नहीं थी, एक तो इस विषय को किसी ने महत्वपूर्ण माना ही नहीं। इस बीच जानने वालों से और बुजुर्गों की सुनी सुनाई पकड़ीं, कुछ नए को पकड़ा कुछ पुराने को तस्दीक किया।
वैसे तो उत्तराखंड के अवर्ण मूल निवासी मुट्ठी भर हैं, सभी सवर्ण लोगों का मूल स्थान गंगा यमुना के मैदान से लेकर गुजरात महाराष्ट्र तक जाता है। लेकिन मुस्लिमों को लेकर और विशेषकर उनके आने के समय को लेकर बहुत अधिक खोज नहीं हुई है। यह सवाल अब उठ रहा है, कुछ संदर्भों में शोध में इस पर बातचीत और अध्ययन हो चुका है।
उत्तराखंड की राजनीतिक/भौगोलिक सीमाओं को भी अलग अलग समय में अलग अलग तरह से परिभाषित किया गया है। जब यहां सीमाओं की बंदिश नहीं थी तब इसको राजनीतिक रुप से कैसे परिभाषित किया गया होगा ? संभावना यही है कि इस राज्य को भी कश्मीर से लेकर नेपाल की तराई के पहाड़ी राजाओं में गिना जाता रहा होगा।
उस समय जब राज्य में कोई केन्द्रीय सत्ता नहीं थी, छोटी छोटी जागीरें, ठकुराईया़ं थी तब से लोगों का आना-जाना लगा रहता होगा। पहाड़ी प्रदेशों का अपना एक अलग आकर्षण रहा है, कश्मीर से लेकर उत्तराखंड तक लोगों को आकर्षित करते रहे हैं।
जिस समय आवागमन के साधन सीमित थे तो उस समय लोग पैदल ही दुनिया नाप लिया करते थे। तब सैनिक अभियान/सैनिक लश्कर तो किसी खास वजह से आवाजाही करते थे लेकिन आम जनता, रोजगार देशाटन, तीर्थाटन के लिए आते जाते थे, सूखा, बाढ़ महामारी और युद्ध से विस्थापित होकर अच्छे स्थान का विकल्प तलाशते थे, और तब कारीगरों और हाथ की कारीगरी को नई जगह हाथों हाथ लिया जाता था। कृषि और पशुचारण के अतिरिक्त सभी लघु उद्योग धंधों को विकसित करने में बाहर से आई तकनीकी ने विकास दिया है।
यह हर समाज में और हर युग में होता है, यहां भी हुआ। जब लोग बुलवाए जाते थे, लाए जाते थे, या फिर कहीं से उजाड़े या उखाड़े जाते थे, तो लोग चलते जाते थे चलते चलते जहां ठौर जम गया, वहीं रम जाते थे। कश्मीर और सहारनपुर की ओर से रुड़की और मंगलोर की ओर से, नजीमाबाद और बिजनौर, मुरादाबाद रामपुर बरेली पीलीभीत की ओर से उत्तरकाशी, ऋषिकेश चम्पा पौड़ी, श्रीनगर,से आगे जोशीमठ तक, रामनगर से होकर सल्ट तक की छोटी बड़ी बस्ती में और हल्द्वानी काठगोदाम (बमौरी दर्रा) से भीमताल और प्यूड़ा होकर चोरगलिया नंधौर से, टनकपुर होकर ,नैनीताल रानीखेत, अल्मोड़े बागेश्वर कपकोट, पिथौरागढ़ तक लोग बसते गए, पौड़ी श्रीनगर के पुराने परिवार शहरों में थे, पहाड़ के राजाओं व थोकदारों ने कृषि व अन्य सेवा कार्यरत से जुड़े कार्यों व बढ़ती हुई अन्य सेवाओं की आवश्यकता व नई तकनीकी के लिए बाहर से ‘मुस्लिम जातियों’ को बुलाया। कारीगर जातियों के साथ एक बात जुड़ी होती थी कि उनके धंधे एक विशेष आवश्यकताओं को पूरा करते थे, तथा वे बेहतर रोजी रोटी के लिए अच्छा अवसर मिलने पर कहीं भी जाने को तैयार हो जाते थे। इसीलिए मुसलमानों को गांव मे भी बसाया और शहरों और कस्बों में भी।
उधर कश्मीर से हिमाचल को पार करके कई मुस्लिम ख़ानाबदोश गूजर अपने पशुओं को लाकर यहां के जंगल में गुजर बसर करने लगे। मुसलमानों की आबादी के गांव पौड़ी और नैनीताल में ही नहीं रुद्रप्रयाग, चमेली और बागेश्वर जैसे दूर दराज इलाकों में हो गए। उस समय उत्तराखंड के पहाड़ में ही सौ से अधिक बस्तियां और गांवों में मुस्लिम आबादी की मोटी मोटी सूचना थी। इसके अलावातराई क्षेत्र में तो मुस्लिम आबादी के अनेक बड़े इलाके मौजूद थे।
लेकिन इन सब में मुझ मुशई का यह सवाल भी खड़ा रहा कि मेरे दादे परदादे दूर दराज के गांवों में कब, क्यों और कैसे बसे?