डॉ. उमाशंकर थपलियाल ‘समदर्शी’ खुशनुमा व्यक्तित्व, जीवन की जकड़ता से दूर, ‘जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबह और शाम’ की तर्ज पर हर समय गतिशील एवं ऊर्जावान, जीवन के 75वें पायदान पर दुनिया से हमेशा के लिए मुक्त हुए। परन्तु जीवन को अलविदा कहने के क्षण तक बुलन्द हौसला लिए अभी बहुत कुछ करना है की धुन में दिन-रात व्यस्त रहे। दुनियादारी की कई उलझनों में फंसे होने के बावजूद भी चेहरे पर कभी शिकन नहीं। दो बार बाईपास सर्जरी हुयी तो क्या हुआ नंदादेवी राजजात यात्रा तो करनी ही है, का जज्बा बरकरार। एक ऐसा व्यक्तित्व जो परिस्थिति को अपने अनकूल करने का हुनर रखता हो। किस्सागोई के लिए वे मशहूर थे। परन्तु उनके किस्सों में कितनी फसक है, ये समझना हर किसी की वश की बात नहीं थी। लोगों की मदद में हर समय आगे रहना औरों को भी इसके लिए प्रोत्साहित करने का हुनर उनसे हमने बखूबी सीखा। रिश्ते एवं उम्र में बड़े होने का फर्ज वे परिवार से ज्यादा सार्वजनिक जीवन में निभाते थे। उनकी पत्रकार और साहित्यकार के रूप में एक विशिष्ट पहचान थी। रामलीला और होली के वे मंझे कलाकार थे। उनके बहुआयामी व्यक्तित्व के बारे में और भी बहुत कुछ कहा-लिखा जा सकता है। इसीलिए हरदिल अजी़ज थपलियाल जी को हम सभी मित्र ‘बड़े ज्ञानी जी’, ‘ज्ञानी’ हम उनके सुपुत्र भवानी शंकर थपलियाल को कहते थे और उनका घर आज भी हम मित्रों के लिए ‘ज्ञान लोक’ है।
उमाशंकर थपलियाल जी का जन्म 24 अगस्त, 1942 को कर्णप्रयाग में हुआ था। पैतृक घर-परिवार श्रीनगर में होने के कारण लालन-पालन एवं शिक्षा-दीक्षा श्रीनगर में ही हुयी। स्कूली पढ़ाई के दौरान फुटबाल खेलना शुरू किया तो उसी को अपना कैरियर बनाने की ठान ली। फुटबाल खेलते समय लाल बंडी पहनने के कारण दोस्तों में ‘लालू’ नाम से ख्याति थी। वर्ष 1958 में उप्र जूनियर फुटबाल टीम में उनका चयन हुआ और राज्य स्तर पर कई मैच खेले। बाद में राज्य स्तरीय फुटबाल रैफरी के बतौर वे जाने जाते थे। कवितायें लिखनी बचपन में शुरू कर दी थी। स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में वे प्रकाशित हुयी। सन् 1962 में गौचर मेले के मंच से कवितायें सुनाने का मौका मिला। फिर तो लोकप्रिय मंचीय कवि का खिताब मिलने लगा। लिखने-पढ़ने की अभिरुचि ने पत्रकारिता की ओर उन्मुख किया। ‘युगवाणी’, ‘शक्ति’, ‘कर्मभूमि’, ‘सत्यपथ’, ‘देवभूमि’ के लिए वे नियमित रिर्पोटिंग करते। पत्रकारिता में पहचान बनी तो स्वतंत्र लेखक के रूप में हिन्दी और अंग्रेजी की राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में व्यावसायिक स्तर पर लिखना आरम्भ हुआ। ‘आकाशवाणी’ के लिए गढ़वाल से समाचार भेजने वाले वे प्रमुख संवाददाताओं में थे। ‘बीबीसी’, ‘हिन्दुस्तान समाचार’, ‘यूनीवार्ता’ के वे गढ़वाल प्रतिनिधि रहे। सन् 1974 में ‘श्री बदरीनाथ-केदारनाथ मन्दिर समिति’ से जुड़े और सन् 2002 को ‘प्रचार अधिकारी’ के पद से सेवानिवृत हुए।
स्वाधीनता के बाद उत्तराखण्ड के उन युवाओं में थपलियाल जी शामिल रहे जिन्होने पत्रकारिता के पेशे को अपनाया। तब जब पत्रकारिता से जीवकोपार्जन करने का रिवाज नहीं था। परन्तु उत्साही उमाशंकर थपलियाल 60 एवं 70 के दशक में पहाड़ के प्रमुख और चर्चित सक्रिय पत्रकारों में रहे हैं। उनकी सक्रियता बाद के वर्षों में भी रही जबकि पत्रकारिता के बदलते परिवेश में अपने को फिट रखना इस पीढ़ी के लिए मुश्किल था। पर मुश्किल तो उनके लिए होती है, जो मुश्किल को मुश्किल समझते हैं। थपलियाल जी इससे परे थे। समाचार संकलन के लिए उन्हें किसी भी वीराने एवं वीहड़ में अक्सर देखा जा सकता था। उनके पुत्र भवानी शंकर भी जब इसी पेशे में आये तो पिता-पुत्र की पत्रकारिता में आपसी वैचारिक टकराहट खूब होती। पर पिता-पुत्र की जुगलबंदी भी काबिले-तारीफ थी। चुनावों के दौरान ‘वोटर व्यू’ लेकर जीत-हार का विश्लेषण उनका सटीक होता। बातपोशी उनके स्वभाव में थी। किस्से दर किस्से उनके पास सुनाने के लिए कुलबुलाते रहते। एक 60 के दशक का किस्सा उनका बड़ा चर्चित था कि ‘वे अलीगढ़ मित्र की शादी में गए थे। उसी दिन अलीगढ़ में रेलवे फाटक पर बस और ट्रेन की भिडंत में कुछ लोगों की मृत्यु हो गयी। यह खबर उमाशंकर जी ने वायरलैस से तुरंत आकाशवाणी, लखनऊ भेजी। शाम के 5.55 पर रेडियो के समाचार बुलेटिन से खबर प्रसारित हो गयी। परन्तु गलती से इस समाचार में यह भी कहा गया कि आकाशवाणी के गढ़वाल संवाददाता उमाशंकर थपलियाल की इस हादसे में मृत्यु हो गयी है। इस समाचार को श्रीनगर गढ़वाल में लोगों ने सुना तो वे धक्क से रह गए। दबे और दुःखी मन लिए उनके घर की ओर जाने लगे। परन्तु उनके घर पर सब कुछ सामान्य देखकर किसी समझदार ने सबको चुप रहने का सुझाव दिया और शाम के अगले 7.20 के समाचार बुलेटिन सुनने को कहा। थपलियाल जी की खुद की सक्रियता के फलस्वरूप शाम के 7.20 के प्रादेशिक समाचार बुलेटिन में पिछली सूचना में सुधार करके उनके जीवत और कुशल होने का समाचार श्रीनगरवासियों को मिला तो सबने संतोष की सांस ली थी’।
उमाशंकर थपलियाल एक घुम्मकड़ पर हर समय अपडेट रहने वाले पत्रकार रहे। घुम्मकड़ी उनके व्यक्तित्व का मूल रंग था। उनके संपूर्ण लेखन में यह यायावरी मौजूद रहती। भाई संजय कोठियाल ने ‘युगवाणी’ में सही लिखा है कि ‘थपलियाल जी सिर्फ डेस्क पर बैठकर जलेबी छानने में वह कतई विश्वास नहीं करते थे। यदि किसी खबर के लिए सैकड़ों किलोमीटर जाने की जरूरत होती, तो वह जरा भी हिचक नहीं करते और स्पॉट पर जाकर ही रिपोर्टिंग करते। पुराने समय में उनके बैग में एक ट्रांजिस्टर जरूर होता जिस पर आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले हर समाचार को वो नियमित सुनते। ’अलकनन्दा बाढ़ (वर्ष-1970), एडमण्ड हिलेरी का ‘सागर से आकाश अभियान’ (वर्ष-1977) उत्तरकाशी भूकम्प (वर्ष-1991) की पहले पहल आकाशवाणी को समाचार और विश्लेश्णात्मक रिपोर्ट भेजने वालों में वो शामिल थे। लम्बे दौर की पत्रकारिता के बाद अपने अनुभव और अध्ययनशीलता के बल पर ‘गढ़वाल में हिन्दी पत्रकारिता का उदभव और विकास तथा उसका हिन्दी साहित्य में योगदान’ विषय पर गढ़वाल विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की उपाधि हासिल की थी। उनका शोध-प्रबंध बाद में ‘गढ़वाल में पत्रकारिता और हिन्दी साहित्य’ (वर्ष-2012) पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ था। गढ़वाल की पत्रकारिता के दृष्टिगत यह एक महत्वपूर्ण संदर्भ किताब है।
उमाशंकर थपलियाल बाहरी आवरण से पत्रकार कहलाये पर सकून उनको कविता लेखन और रंग कर्म में ही मिलता था। चीन युद्ध (सन् 1962) के दौरान उनके प्रारम्भिक दौर की कविता ‘सिंया नि रवा दगड्यों अब वक्त….’ और ‘वतन की पुकार’ तब खूब मशहूर हुयी थी। उस समय वो कवि उमाशंकर ‘प्यासा’ हुआ करते थे। कई वर्षों बाद माघ मेले उत्तरकाशी में आयोजित कवि सम्मेलन में उनकी कविताओं की समरसता की तारीफ करते हुए प्रसिद्ध हास्य कवि काका हाथरसी के सुझाव पर अपने नाम के पीछे ‘समदर्शी’ उपनाम उन्होने धारण किया था। उनकी कवितायें समसामायिक विषयों एवं घटनाओं पर त्वरित प्रतिक्रिया के रूप में विशिष्ट पाठकों से अधिक जनसाधारण तक पहुंचती और सराही जाती। उनके द्वारा गढ़वाली भाषा में लिखे चार कविता संग्रह यथा-‘सन्क्वाली’, ‘भ्यॅूंचलो (वर्ष-1992)’ ‘गौं किलै उजड़ना छन’ (वर्ष-2003), ‘कलमे बात’ (वर्ष-2013) की कवितायों को इन्हीं संर्दभों में पढ़ा और सराहा गया। नगरपालिका श्रीनगर के सौजन्य से बस स्टेशन के पास स्वः हेमवंती नन्दन बहुगणा की मूर्ति स्थापित की गयी। मूर्ति के आकार-प्रकार पर विवाद रहा। उमाशंकर जी ने इस पर एक लम्बी कविता ‘मेरा इस मिट्टी से लगाव है’ लिख कर बेहतरीन तंज कसे। उन्होने इस कविता को नगर के नुक्कड़ से लेकर मंचों तक बार-बार सुना कर अपना विरोध दर्ज कराया था। ‘गौं किलै उजड़ना छन’ उनका सबसे लोकप्रिय कविता संग्रह रहा है। मनमौजी एवं विनोदी स्वभाव के कारण वे मित्रों के बीच हमेशा चहकते दिखाई देते। उनको देखते ही अक्सर मित्र लोग कहते ‘गौं किले उजड़ना छन’ तो उनका उत्तर होता कि, ‘जू बच्यां छन वू धुर्पली मां घुंडा हिलोणा छन।’ (जो गांव में बचे हुए हैं वे भी घर की छत पर बस घुटने हिलाने में वक्त बरबाद कर रहे हैं, इसीलिए गांव उजड़ रहे हैं।)।
पत्रकार और कवि के साथ वे सिद्धस्थ रंगकर्मी थे। श्रीनगर की रामलीला और होली उनके बिना आज भी अधूरी है। सबको मालूम है कि श्रीनगर में होली और रामलीला की तैयारियां प्रायः उन्हीं के घर से आरम्भ होती थी। उनका घर ‘ज्वालपा निवास’ सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों की बहसों का केन्द्र तो था ही शहर की सांस्कृतिक गतिविधियों की तैयारी बैठकों की पसंदीदा जगह थी। डॉ. डी. आर. पुरोहित जी की ‘रीजनल रिर्पोटर’ में लिखी बात सभी मित्रों के मन की बात है कि ‘थपलियाल जी का खुद गाने और अभिनय करने से अधिक योगदान समाज में सांस्कृतिक पृष्ठभूमि बनाने में था। सालभर उनके घर में पकोड़ियां, पूरी, कचौड़ियां बनती रहती थी। पूछो, तो उत्तर मिलता आज संग्रांद है, आज पंचमी है, आज जन्मदिन है……। गजब की उत्सवी चेतना थी, इस व्यक्ति की।’ रामलीला में वे रावण या दशरथ का रोल करते तो उस रात मजाल क्या कि कोई दर्शक अधूरी रामलीला छोड़ के चला जाय। रामलीला में वे रावण और उनके छोटे पुत्र कालीशंकर रावण के मंत्री का किरदार निभाते। पिता-पुत्र के चुटीले सवांद कई दिनों तक लोगों की जुबान पर रहते। अपने लेखन में उन्होने गढ़वाल की होली और रामलीला की परम्परा को शोधपूर्वक लिपिबद्ध किया था।
बढ़ती उम्र के साथ वे समय-समय पर बीमार होने लगे थे। वे बीमारी का इलाज करा कर घर लौटते और लोग उनका हाल-चाल पूछने उनके पास आते तो वो उसी माहौल को महिफिल में तब्दील कर देते। उदासी के तो वे कभी दास हुये ही नहीं। हर समय चेहरे पर चमक। परेशानियां भी बयां करते तो हंसते-हंसते कि सामने वाला यही समझता कि इस समस्या से तो वे आसानी से निपट ही लेंगे। उनकी मृत्यु से कुछ महीने पहले ही मित्र सीताराम बहुगुणा और मैने मिलकर उन पर अभिनंदन ग्रंथ निकालने की कार्ययोजना बना ली थी। लोगों से लेख भी आने लगे थे। वो मजाक में कहते कि ‘अब तो बोनस की जिन्दगी जी रहा हूं इसलिए जल्दी अभिनंदन ग्रंथ तैयार कर लो। मैं भी तो देखूं कि मित्रों ने मेरे बारे क्या जी लिखा है।’
पत्रकारिता, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए अनेकों सम्मान उमाशंकर थपलियाल ‘समदर्शी’ को समय-समय पर मिले। परन्तु इन सभी सम्मानों से ऊंचा सम्मान यह है कि उनकी स्मृतियां आज भी मित्रों के दिलों पर राज कर रही हैं। उनका दुनिया में न होना एक पत्रकार, कवि, रंगकर्मी और पति-पिता का जाना ही नहीं है। एक जांबाज, खुशमिजाज, खुले मन-मस्तिष्क वाले मित्र, अभिभावक और मार्गदर्शी का हम-सबके जीवन से जाना भी है। वे अपने बड़े सुपुत्र, जिसकी प्रतिभा के वे जबरदस्त कायल थे, के साथ 17 फरवरी, 2015 के दिन दिवंगत हुए।
रामलीला में दशरथ का अभिनय करते हुए वे दर्द से कहारते हुए कहते ‘वन को चले दोऊ भाई, कोई देऊ इन्हें समझाई। उन्हें नमन करते हुए ये लाइन बार-बार याद आ रही हैं। राम और लक्ष्मण तो वन से वापस आ गए गये थे, पर ये पिता-पुत्र, अब यादों में ही वापस आते हैं।