जयसिंह रावत
भारतीय जनसंघ और फिर उसकी जगह बनी भारतीय जनता पार्टी के दशकों से अटके हुये ऐजेण्डे को धरती पर उतारने की उतावली में मोदी सरकार के गृहमंत्री अमित शाह ने सारे देश में खलबली मचा दी है। मोदी सरकार-दो के सत्ता में आने के एक महीने के अन्दर ही तीन तलाक विरोधी बिल पास कराने के बाद 3 महीने के अन्दर जम्मू-कश्मीर से अनुच्छे 370 हटाने और फिर 7 महीने के अंदर भाजपा का एक अन्य महत्वपूर्ण ऐजेंडा, नागरिकता संशोधन बिल पास करा कर अमित शाह ने भले ही अपनी पार्टी में लौह पुरुष या इतिहास पुरुष की सीट सुनिश्चित कर ली हो मगर उनके इन कदमों से देश में अशांति का महौल भी पैदा हो गया है। वर्ग विशेष पर लक्षित अमित शाह के साहसिक कदमों से देश को चाहे लाभ हो या न हो मगर देश में अविश्वास और अनिश्चितता का माहौल अवश्य पैदा हो रहा है।
नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 में कुल 6 धारायें है। इस पूरे अधिनियम में अफगानिस्तान, बांग्लादेश तथा पाकिस्तान में इन नागरिकों पर उत्पीड़न तथा शरणार्थी होनेे का कोई उल्लेख नहीं हैै। मूल नागरिकता अधिनियम 1955 की धारा 2(1) (ख) में अवैध प्रवासी की परिभाषा दी गयी है। इसे हम साधारण भाषा में घुसपैठियां भी कह सकते है। इसमें स्पष्ट किया गया हैै ऐसा व्यक्ति जो वैैध पासपोर्ट या अन्य यात्रा दस्तावेजों के बिना भारत में प्रवेश करता है या वैध पासपोर्ट या अन्य यात्रा दस्तावेजांे से प्रवेश करने वाला ऐसा व्यक्ति है जो दस्तावेजों में इजाजत की अवधि के बाद भी रह जाता है, शामिल हैै। धारा 1 में नाम तथा विस्तार के बाद नये नागरिकता अधिनियम की धारा 2 से धारा 2(1) (ख) में में परन्तुक जोड़कर यह अपवाद जोड़ा गया है कि अफगानिस्तान, बांग्लादेश या पाकिस्तान के हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैैन, पारसी या ईसाई समुदाय के ऐसे व्यक्ति जो 31 दिसम्बर 2014 को या उससे पूर्व भारत में प्रविष्ट हुआ और केन्द्र सरकार द्वारा पासपोर्ट तथा विदेशी विषयक अधिनियम से छूट दी गयी हैै तो वह अवैध प्रवासी नहीं माना जायेगा।
पीड़ित मानवता के प्रति नेकदिली, शरणागत को आश्रय देना और मानवीय संवेदनाओं के प्रति संवेदनशील रहना भारत की संस्कृति का हिस्सा रहा है। लेकिन ऐसी भी क्या नेकी जिससे पराये तो अपने और अपने ही पराये हो जांय! दरियादिली में भी भेदभाव क्यों ? धारा 370 हटाने के बाद जम्मू-कश्मीर में हालात अभी सामान्य हुये भी नहीं थे कि नागरिकता संशोधन कानून 2019 ने पहले पूर्वोत्तर में और फिर सारे देश में खलबली मचा दी। पड़ोसी इस्लामी देशों में उत्पीड़ित केवल 6 गैर मुस्लिम अल्पसंख्यकों को नागरिकता संशोधन कानून में शामिल करने से मुसलमानों के मन में उपेक्षा का भाव आना तो स्वाभाविक ही था, लेकिन इस कानून ने जनजाति बहुल और संवेदनशील उत्तर पूर्वी भारत में भी असन्तोष की ज्वाला भड़काने के बाद अब सारे देश को ही झुलसा दिया है। सवाल उठता है कि क्या सरकार का काम अपनेही नागरिकों को भड़काना और लाठी गोलियों से उनको चुप कराना ही रह गया है। उत्तर पूर्व के राज्यों में धार्मिक नहीं बल्कि जातीय टकराव होता है। वे बाहरी हिन्दुओं को भी अपने अस्तित्व के लिये खतरा मानते हैं और ये हिन्दू बंगाली हैं, जो कि ज्यादातर बांग्लादेश से आये हुये हैं। इस कानून से 9 प्रतिशत से अधिक हिन्दू आबादी वाले बंग्लादेश, 2 प्रतिशत आबादी वाले पाकिस्तान तथा लगभग 1 प्रतिशत हिन्दू आबादी वाले अफगानिस्तान में हिन्दुओं का उत्पीड़न बढ़ जायेगा और वहां के कट्टवादी व अलगावादी लोग उन्हेें भारत जाकर रहने को कहने लगेंगे। इसके अतिरिक्त अन्य देशों में हिन्दुओं के प्रति उत्पीड़न व नफरत बढ़ने तथा भारत की धार्मिक सदभाव व प्रेम की संस्कृति तथा छवि पर प्रतिकूल असर पढ़ने की भी संभावनायें रहेगी।
नये कानून में भेदभाव का आरोप इसलिये कि म्यमार में रोहिंग्या और पाकिस्तान से अहमदिया तथा हजारा मुसलमान भी धार्मिक उत्पीड़न का शिकार रहे हैं। अहमदिया को तो पाकिस्तान में मुसलमान ही नहीं माना जाता है। लेकिन अहमदिया और हजारा को नये नागरिकता कानून से बाहर रख कर सरकार ने विपक्षियों द्वारा धार्मिक भेदभाव करने और छिपे हुये हिन्दू राष्ट्र के ऐजेण्डे पर काम करने का आरोप लगाने का मौका दे दिया। अब तो शिया समुदाय भी नागरिकता कानून में स्वयं को शामिल किये जाने की मांग कर रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लालकिले की प्राचीर से 15 अगस्त 2016 को राष्ट्र के नाम अपने सम्बोधन में ब्लोचिस्तान में पाकिस्तान द्वारा की जा रही ज्यादतियों के खिलाफ चलने वाले आन्दोलन को खुला समर्थन दिया था। पड़ोसी देश म्यमार में उत्पीड़ित रोहिंग्या को शरण देना तो रहा दूर सरकार को उनके नाम से ही एलर्जी है। सिंहली बहुल पड़ोसी देश श्रीलंका में भी अल्पसंख्यक तमिलों से भेदभाव होता रहा है। इसी जातीय उत्पीड़न का नतीजा पृथकतवादी संगठन लिट्टे का जन्म और गृहयुद्ध था। श्रीलंका से तमिल बड़ी संख्या में भारत आते रहे हैं। नागरिकता कानून में तमिलों पर भी नजरें इनायत नहीं हुयीं।
यद्यपि बांग्ला देश से आने वाले अवैध प्रवासियों की प्रमाणिक संख्या सामने नहीं आयी है फिर भी अनुमान है कि प्रति वर्ष लाखों की संख्या में बांग्लादेशी भारत में घुसते हैं। संसद में 14 जुलाई 2004 को तत्कालीन गृहराज्य मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल में बताया था कि भारत में 20 लाख बाग्लादेशी अवैध ढंग से रह रहे हैं और इनकी सर्वाधिक संख्या पश्चिम बंगाल में है। बाद में एनडीए सरकार में गृह राज्य मंत्री रहे किरन रिजिजू ने बाग्लादेशी घुसपैठियों की संख्या 2.4 करोड़ तक बता डाली। वर्ष 2001 की जनगणना में इनकी संख्या 30.84 लाख के करीब बतायी गयी। लेकिन इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टीट्यूट के समीर गुहा राॅय के अनुसार 1981 से 1991 के बीच प्रति वर्ष लगभग 91 हजार बांग्लादेशी भारत में अवैध ढंग से प्रवेश करते रहे हैं। इनमें मुसलमान भी थे तो हिन्दू भी। बांग्लादेश में अब भी लगभग डेढ करोड़ याने कि 9.5 प्रतिशत आबादी हिन्दुओं की है। पूर्वोत्तर भारत के लोगों की चिन्ता है कि अगर बाग्लादेश के हिन्दुओं को इसी तरह आकर्षित किया जाता रहा और उन्हें यहां नागरिकता दी जाती रही तो मूल निवासी अल्पसंख्यक हो जायेंगे।
भारत और बांग्लादेश के बीच 4096 किमी लम्बी साझी सीमा है और बांग्लादेश के 36 जिले असम, मेघालय, त्रिपुरा, मीजोरम, पश्चिम बंगाल और बिहार राज्यों से लगे हुये हैं। भौगोलिक संलग्नता के कारण बोली-भाषा आदि में भी समानता का लाभ उठा कर वे आसानी से भारतीय क्षेत्र में लोगों से घुलमिल जाते हैं। बांग्लादेश में 98 प्रतिशत बंगाली और लगभग 2 प्रतिशत बिहारी तथा जनजातीय लोग रहते हैं। इन आदिवासी समूहों में पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाली चकमा, कुकी, और मरमा आदि जातियां शामिल हैं। चकमा बांग्लादेश के चट्टग्राम पहाड़ी क्षेत्र का सबसे बड़ा जनजातीय समुदाय है। सन् 60 के दशक में कर्नाफुली नदी पर काप्ताइ बांध बनने से विस्थापित होने से गारो और हाजोंग जनजाति के लोग मीजोरम में लुसाई पहाड़ी पार कर अरुणाचल प्रदेश तक पहुंच गये। बाग्लादेश के मेमनसिंह क्षेत्र में गारो जाति के लोग बहुतायत में रहते हैं। जबकि भारत में वे मेघालय राज्य के गारो पर्वत क्षेत्र के अलावा असम के कामरूप, गोपालपाड़ा और कार्बी एन्गलौंग में भी रहते है।
नागरिकता संशोधन कानून के तहत संविधान के अनुच्छेद 244 (2) और 275 (1) के तहत अनुसूची 6 के जनजातीय स्वायत्तशासी जिला परिषदों को तो बाहर कर दिया गया मगर जो क्षेत्र इन परिषदों के ही बाहर हैं, वे इस कानून के दायरे में आ गये हैं। उदाहरणार्थ असम में स्वायत्तशासी जिला कार्बी एन्गलौंग और दिमा हसाओ के क्षेत्र के बाहर का सारा असम नये कानून के दायरे में आ गया। असम के लोगों को डर है कि बंगाली हिन्दुओं को नागरिकता देने से उनके हितों और संसाधनों पर इन बाहरी लोगों का बोझ बढ़ जायेगा और त्रिपुरा की तरह जनसांख्यकी बदल जायेगी। अस्सी के दशक के हिंसक असम आन्दोलन का कारण ही यही था। उस आन्दोलन के फलस्वरूप सन् 1985 में हुये असम समझौते में 1971 के बाद असम में बसे लोगों को बाहर करने पर सहमति बनी थी, लेकिन अब वह डेड लाइन 1971 के बजाय 2014 तय कर सरकार ने घुसपैठियों को 43 साल का अतिरिक्त समय दे दिया जो कि असम समझौते की भावना के खिलाफ है। त्रिपुरा की एकमात्र स्वायत्तशासी जिला परिषद के बाहर की 69 प्रतिशत आबादी नागरिकता कानून से प्रभावित होगी।
नगरिकता संशोधन कानून में इनर लाइन वाले राज्यों को भी बाहर रखा गया है और इसमें पहले से ही शामिल अरुणाचल प्रदेश, नागालैण्ड और मीजोरम के बाद अब नागालैण्ड की राजधानी दीमापुर और सम्पूर्ण मणिपुर को शामिल कर नये क्षेत्रों को राहत तो दे दी। लेकिन इस इनर लाइन में आने से मणिपुर की बहुसंख्यक उच्च जाति मेइती भी जनजाति के दायरे में आ गयी जिसे आदिवासी जातियों के हितों का अतिक्रमण माना जा रहा है। मणिपुर में उरखुल, सेनापति, तामेंगलौंग और चन्देल जिलों में जनजातीय आबादी निवास करती है। कश्मीर की तरह बेहद संवेदनशील क्षेत्र होते हुये भी वहां अब तक इनर लाइन परमिट व्यवस्था जनजातियों की जमीनें और उनकी अलग संस्कृति पहचान बचाने के लिये लागू नहीं की गयी थी। स्वयं 2015 से पूर्व भाजपा भी मणिपुर में इनर लाइन परमिट के विरुद्ध थी।