नवीन पाँगती
यूँ तो सहयोग में अद्भुत ताकत है, पर भारत के अन्य राज्यों के विपरीत उत्तराखंड में गैर सरकारी संगठनों के बीच सहयोग के मामले थोड़ा कम ही सुनने में आते हैं। ऐसे में कोविड सपोर्ट ग्रुप का प्रयोग एक नई संभावना की ओर इशारा करता है।
कोविड सपोर्ट ग्रुप की शुरुआत एक व्हाट्सप्प ग्रुप के तौर पर हुई। मकसद था कोविड के इस कठिन दौर में आपसी सहयोग। इसे शुरू करने में श्री सुधीर पंत और श्री प्रह्लाद अधिकारी की मुख्य भूमिका रही। दौर कठिन था, हर तरफ अफरातफरी का माहौल था, लोग मदद ढूंढ रहे थे… ऐसे में लोग ग्रुप से जुड़ते चले गए – वो भी जो मदद ढूंढ रहे थे और वो भी जो मदद करना चाहते थे। इस ग्रुप से मेरे जुड़ने का कारण था गाँव के लिए कुछ आवश्यक सामग्री जुटाना। मैंने एक दो सप्लायर से बात कर रखी थी। जब सुधीर पंत जी से बात हुई तो उन्होंने कहा, “पैसे की व्यवस्था होती रहेगी, आप जरूरत बताएँ। कुछ फंड है जिसके जरिए सामान भेज दिया जाएगा”। जाने अनजाने मैं भी इस ग्रुप का एक हिस्सा बन गया। वहाँ पाया की कई लोग अपने-अपने स्तर पर सहयोग कर रहे हैं। कुछ अपना समय दे रहे थे तो कुछ धन, और कुछ दोनों।
इस सहयोग को आगे बढ़ाने के लिए 17 लोगों की भागीदारी से एक वर्चुअल कोर ग्रुप बनाया गया। इसमें कुछ लोग लगातार सक्रिय थे तो कुछ समयानुसार सहयोग कर रहे थे। इनमें मुख्य थे हल्द्वानी से श्री सुधीर पंत, सिंगापूर से श्री अरविन्द जोशी, बंबई से श्री प्रह्लाद अधिकारी, लंदन से सुश्री शुभ्रा त्रिपाठी, रानीखेत से श्री गौरव मिश्रा, ब्रिटेन से सुश्री पूनम जोशी, हल्द्वानी से डॉ गिरिजा पांडे, गुड़गाँव से सुश्री सोनल पाठक, अल्मोड़ा/दिल्ली से श्री भरत बंगारी, दिल्ली से ही सुश्री अनामिका कंडारी, बेरीनाग से श्री रत्नाकर पांडे, मध्य प्रदेश से सुश्री किरण भट्ट, और सतना से श्री हितेन्द्र पंत।
गाँवों में कोविड राहत सामग्री पहुँचाने के लिए हमें धन की आवश्यकता थी। पहले तो सहयोगियों ने निजी स्तर पर धन व सामग्री के रूप में करीब नौ लाख रुपये जुटाए। कोविड विकराल रूप धारण कर रहा था अतः तय हुआ कि ऑनलाइन माध्यम से भी सहयोग जुटाया जाए। ऐसा करने के लिए एक नोडल गैर सरकारी संस्थान की जरूरत थी। यह भूमिका एस.एच.ई.जी. (सोसाइटी फॉर हिमालयन एनवायरनमेंट एण्ड इकोलोजी) ने निभाई। रेज़रपे पर अकाउंट खोल कर सभी साथियों ने अपने-अपने स्तर पर बात को आगे बढ़ाया। देखते ही देखते कोविड सपोर्ट ग्रुप ने 14 लाख रूपए जमा कर लिए। किन क्षेत्रों में मदद पहुँचानी है, मदद का स्वरूप क्या हो, किन संस्थाओं से साथ काम करना है, किन संस्थाओं से आर्थिक मदद लेनी या नहीं लेनी है… इस तरह के सभी निर्णय कोर ग्रुप ने विमर्श के बाद आपसी सहमति से लिए।
इस बीच कई लोगों ने सामग्री दे कर भी मदद करीं। मास्क से लेकर आक्सीजन कंसन्ट्रेटेर, सभी तरह की मदद विभिन्न स्थानों तक पहुँची। ऐसी मदद के समन्वय में भी कोविड सपोर्ट ग्रुप ने अहम भूमिका निभाई। समन्वय का अधिकांश काम श्री सुधीर पंत व श्री प्रह्लाद अधिकारी के जिम्मे था।
मसला केवल धन व सामग्री जुटाने का नहीं था। जरूरत इस बात की भी थी कि सामग्री दूर दराज के गाँवों तक पहुँचे। जरूरतमंदों तक मदद पहुँचाने के अलावा यह सुनिश्चित करने की भी जरूरत थी कि राहत सामग्री का दुरुपयोग न हो। ऐसे में कोर टीम के मेंबरों के नेटवर्क काम आए। तय हुआ कि स्थानीय गैर सरकारी संस्थाओं के साथ मिल कर काम किया जाए। जमीनी हकीकत की सबसे अच्छी पहचान स्थानीय संस्थाओं को ही होती है, बशर्ते वो कागजी संस्थाएँ ना हों। उत्तराखंड में जहाँ एक ओर अनेकानेक ऐसी संस्थाएँ हैं जो दुकान के रूप में चलती हैं तो वहीं ऐसे जुझारू लोग भी हैं जो स्वयं राहत सामग्री ले कर कई किलोमीटर पैदल चलने को तत्पर रहते हैं।
यहाँ गौर करने वाली बात यह भी है की स्वास्थ्य पर कार्य करने वाली संस्थाएँ कहीं दिख नहीं रही थी। मेरा निजी अनुभव नैनीताल व अल्मोड़ा जिले का है। बहुत खोजबीन करने पर भी कुछ खास पता नहीं लगा। इस नए प्रयोग की यहाँ चर्चा इसी लिए हो रही है क्योंकि शायद पुराने तरीके सही मायनों में पुराने हो चले हैं। उत्तराखंड को जरूरत मठाधीशों की नहीं अपितु उन लोगों व संस्थाओं की है जो इस बदलते परिवेश में नए ढंग से कार्य करने के लिए तैयार हैं। इस मुहिम में जुडने वाली गैर सरकारी संस्थाओं में मुख्य हैं:
- अर्पण, असकोट, पिथौरागढ़ (श्री प्रदीप पाठक, सुश्री रेनू ठाकुर)
- उत्तराखंड जन जागृति संस्थान,खाड़ी,टिहरी (श्री अरण्य रंजन)
- एप्रोप्रीयेट टेक्नॉलजी इंडिया (श्री राकेश सिंह)
- कालीमठ घाटी कृषि बहु उद्देशीय समिति (श्री मुलायम सिंह)
- ग्रास रूटस्, रानीखेत
- चेतना आंदोलन (श्री विनोद बडोनी)
- जन मैत्री संगठन, नथुआखान, नैनीताल (श्री बच्ची सिंह बिष्ट)
- देवलश्री इन्वायरॉन्मेंट टेक्नॉलजी डिवेलप्मेंट एजेन्सी (श्री अरुण गौर)
- महिला सामाख्या, ओखलकांडा, नैनीताल
- माटी संस्थान, मुनस्यारी, पिथौरागढ़ (सुश्री मल्लिका विरदी)
- महिला कल्याण संस्था, दिनेशपुर (सुश्री हीरा जंगपांगी)
- माउंटेन शेपर्ड (श्री सुनील कैनथोला)
- माउंट वैली डेवलपमेंट एसोसिएशन (श्री नवप्रभात)
- टिहरी स्वास्थ्य सहकारिता (श्री अमित बहुगुणा)
- तरुण पर्यावरण विज्ञान संस्था, मोरी/उत्तरकाशी (श्री नागेंद्र दत्त)
- युवा, पिथौरागढ़ (श्री अभिषेक)
- विनायक जलाधारित उद्धमिता विकास समूह, उत्तरकाशी (सुश्री पुष्पा चौहान)
- रहवासी, थल, पिथौरागढ़ (श्री अनिल कार्की)
- रेड क्रॉस सोसाइटी, बागेश्वर (श्री आलोक पांडे)
- साइंस फॉर सोसाइटी, रामनगर
- सीमांत सेवा फाउंडेशन, पिथौरागढ़ (डॉ पाटनी)
- हार्क (श्री शैलेश पवार)
- हितेशी संस्थान, गरुड (श्री किशन राणा)
- हिमालयी संस्कृति संरक्षण संस्था (श्री प्रेम पचौली)
- श्रमयोग, अल्मोड़ा (श्री अजय जोशी)
- श्रद्धा सॉसाययटी (श्री आशीष बिष्ट)
इन संस्थाओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं के अलावा कई कम्यूनिटी हेल्थ सेंटर (जैसे बेरीनाग व गैरसैंण) व अस्पतालों ने न सिर्फ भागीदारी की वरन अपना सहयोग भी दिया। ऐसा ही सहयोग कुछ ग्राम प्रधानों से भी मिला। कुछ एक ग्राम प्रधान तो ऐसे भी रहे जिन्होंने कोविड किट मुहैया कराने के लिए ग्राम कोश से व्यय भी किया।
इसी बीच सुश्री शुभ्रा त्रिपाठी के माध्यम से पता चला की क्रिप्टोरीलीफ हमारी मदद करने को तैयार है। ऐसे में सृजन (सेल्फ रिलायन्ट इनिशिएटिव थ्रू जॉइन्ट एक्शन) के श्री भरत बंगारी ने सहयोग का बीड़ा उठाया। सृजन के सी.ई.ओ. श्री प्रसन्ना खेमरिया की पहल पर एस.एच.ई.जी. व सृजन के बीच एक द्विपक्षीय समझौता भी कर लिया गया। अस्सी लाख की आर्थिक मदद को कोविड सपोर्ट ग्रुप के सुझावों के अनुसार उत्तराखंड में व्यय करने के लिए वेव दो ही नहीं अपितु वेव तीन के मद्देनजर भी योजनाएँ बनाई गईं। जहाँ हम ग्रामीण किट में पहले ऑक्सीमीटर, थर्मामीटर, स्टीम इन्हेलर, मास्क, इत्यादि दे रहे थे, अब नए किट में फ़ोल्डेबल स्ट्रेचर, ग्लूकोमीटर, नेबूलाईज़र, बी.पी.मशीन, फर्स्ट ऐड किट, वजन नापने की मशीन, रीयुजेबल सैनिटेरी पैड, इत्यादि भी जुड़ गए। इन सब के साथ आशा व अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं की आनलाइन ट्रैनिंग की भी व्यवस्था की गई। जहाँ बेरीनाग में गाँव-गाँव में वैक्सीनेशन के लिए गाड़ी मुहैया कराई गईं तो वहीं पिथौरागढ़ और बेरीनाग में बन रहे आक्सीजन प्लांट के लिए सृजन के माध्यम से 45 के.वी.ए. के जनरेटर खरीदे गए।
अभी तक की कहानी सुन कर आपको लग सकता है कि यह सब इसलिए संभव हुआ क्योंकि कोविड सपोर्ट ग्रुप के साथियों के पास संसाधन जुटाने की क्षमता थी। पर यह बात हकीकत से बहुत दूर है। अगर स्थानीय गैर सरकारी संस्थाओं और सामाजिक कार्यकर्तों का साथ न होता तो शायद कोविड सपोर्ट ग्रुप इतना बड़ा सपना भी नहीं देख पाता। बड़ी संस्थाओं के नजरिए से देखें तो डेढ़ करोड़ रुपये कुछ नहीं होते पर इसे नागरिकों द्वारा संचालित कोविड सपोर्ट ग्रुप के सामूहिक पहल के रूप में देखें तो यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है।
साथ ही साथ यह मुहिम इस बात को भी साफ दर्शाती है की अगर बड़े स्तर पर कुछ करना है तो सहयोग ही एक रास्ता है। “क्या?”, “किसका?”, “किसने?” से कुछ होने वाला नहीं है। जिन संस्थाओं व लोगों के साथ कोविड सपोर्ट ग्रुप ने कार्य किया उन सभी ने निजी स्तर पर भी सहयोग राशि व सामग्री जुटाई और जरूरतमदों तक पहुँचाई। जमीन पर कार्य करने वाले लोगों व संस्थाओं का कुछ अखबारों में जिक्र जरूर हुआ पर खबर में आना लक्ष्य नहीं था। गाँवों तक जो सामग्री पहुँची उनमें न किसी की फोटो थी, ना कोई पर्चा। हाँ, बाद में जब कुछ सामान बैगपैक में गया तो उनमें जरूर एस.एच.ई.जी. का नाम लिखा था। मजे की बात तो यह रही की अधिकांश कार्य निपटाने के बाद एक साथी का सुझाव आया की कोविड सपोर्ट ग्रुप का कोई नाम क्यों नहीं है।
निजी तौर पर इस पूरे प्रकरण ने हम सभी को बहुत कुछ सिखाया। पर सबसे बड़ी सीख तो यही है की अगर गैर सरकारी संस्थाएँ और सामाजिक कार्यकर्ता साथ काम करें तो बहुत कुछ किया जा सकता हैं। चाहे जल, जंगल बचाना हो या नदी नौले, चाहे बच्चों की शिक्षा हो या स्वास्थ्य सुविधाएँ, चाहे अपनी उपज के लिए बाजार ढूँढना है या आजीविका के साधन… यह सभी काम अलग-अलग लोग, अलग-अलग रहते हुए अलग-अलग ढंग से करते आ रहे हैं। पर जमीनी स्तर पर कई दशकों में करोडों रुपये व्यय करने पर भी कुछ खास नहीं बदला। मंशा के अलावा मसला शायद सामुहिकता का भी है। आबादी के कम घनत्व व दुरस्थता के कारण उपजी प्रतिकूल परिस्तिथियों से निपटने के लिए शायद हाथ मिला कर साथ चलने के अलावा हमारे पास और कोई चारा भी नहीं है।
उत्तराखंड में अगर जमीनी स्तर पर बदलाव लाना है हमें मठ बनाने बंद करने होंगे। नजरें उठा कर देखें तो चारों ओर ऐसे अनेकानेक उदाहरण बिखरे पड़े हैं जो साबित करते हैं की ‘है’ से ‘थे’ बनने में ज्यादा देर नहीं लगती। तय बस यह करना है की हम हिमालय की चोटी पर मठ बनायेंगे या कल कल बहती हिमालयी नदी में सामूहिकता की नाँव चला उत्तराखंड में स्वयं को और स्वयं में उत्तराखंड को खोजेंगे.
हिंदी वेब पत्रिका ‘ज्ञानिमा’ से साभार