रमदा
उस दिन ‘रवीश कुमार’ के ‘प्राइम-टाइम’ में न्यूजीलैंड में काम कर रहे किन्हीं ‘डॉ.देवी प्रसाद’ ने बताया कि यहाँ न्यूजीलैंड में हम कोरोना-संक्रमण के खिलाफ की जा रही कोशिशों के लिए युद्ध शब्द का इस्तेमाल करने से बच रहे हैं क्योंकि युद्ध में फ्रंट पर सिर्फ सैनिक होते हैं और सारा दारोमदार जैसे उन्हीं पर आ जाता है। यहाँ हम 50 लाख लोग एक टीम हैं और जीतें या हारें वायरस के खिलाफ हमारी सारी कोशिशें साझी हैं।
भारत में कोविड-19 के खिलाफ कोशिश को जंग ही कहा जा रहा है और इस युद्ध में संलग्न तमाम स्वास्थ्य-कर्मियों, चिकित्सकों-नर्सों, सफाई-कर्मियों, सुरक्षा-कर्मियों, राहत या अन्य सामग्री के वितरण से संबन्धित तमाम लोगों या कुल मिलकर वायरस-संक्रमण से तृणमूल स्तर पर प्रत्यक्षतः जूझ रहे लोगों को बाकायदा “कोरोना-वॉर्यर” या “कोरोना-योद्धा” कहा जा रहा है और हममें से ज़्यादातर उनकी सेवाओं और उनके द्वारा उठाए जा रहे जोखिम के प्रति आभारी भी महसूस करते हैं। अति-आवश्यक निजी सुरक्षा-उपकरणों (पी.पी.ई.) आदि की गैर मौजूदगी में जिस तरह की संलग्नता वे दिखा रहे हैं, जिस स्तर का जोखिम वह उठा रहे हैं उसकी सराहना सदैव की जाएगी।
किन्तु ‘लॉक-डाउन’ के अपने खालीपन में इन्हें योद्धा कहे जाने या न कहे जाने के सवाल का सामना करते हुए मैंने आज सहज जिज्ञासा वश ‘योद्धा’ का आधिकारिक अर्थ तलाशने की कोशिश की तो एक विचित्र सी व्याख्या से सामना हुआ, “योद्धा वो नहीं जो जंग से पहले हार जाए, योद्धा वो है जो बिना किश्ती के समंदर पर जाए”। अब यह बिना किश्ती के समंदर पर जाने का मामला हमारे यहाँ इतनी शिद्दत से लागू होता, हो रहा है कि इन्हें “योद्धा” ही कहा/माना जाना चाहिए। ये लोग बिना किश्ती या बिना अति-आवश्यक सुरक्षा-उपकरणों के तो समंदर में तो हैं ही (इनके खुद संक्रमित हो जाने के आंकड़े गवाह हैं) साथ ही उनके पूर्वाग्रहों के पत्थर भी झेल रहे हैं जिनकी हिफाज़त में लगे हैं। हमें थाली बजाने, मोमबती जलाने से लेकर, जहाज उड़ाने-पुष्प वर्षा करने तक के हर संभव तरीके से इनका आभार-ज्ञापन करना ही चाहिए।
योद्धा कहने, मानने से इनका उत्साह-हौसला बढ़ता होगा किन्तु मेरे भीतर की गंदगी फिर सवाल करती है कि इन्हें फ्रंट-लाइन पर खड़ा करने की कोशिशों और निरंतर प्रशस्ति में उन लोगों को अपने आप को बचा ले जाने का अवसर तो नहीं मिल रहा है जो हमारी बुनियादी स्वास्थ्य-सेवाओं और सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार हैं। हमारे नीति निर्माताओं और उन्हें लागू करने वाले लोगों ने इतने सालों में जो व्यवस्था बनाई है वह अपनी पूरी नंगई के साथ आज सबके सामने है।
‘चंदरबरदाई’ का ‘मत चूके चौहान’ और ‘चढ़ जा बेटा सूली पर राम भली करेंगे’ दोनों उत्साह बढ़ाने के लिए ही इस्तेमाल में लाये जाते हैं, किन्तु पहले में कितनी सुनिश्चितता है, “चार बांस,चौबीस गज, अष्ट अंगुल प्रमाण ता ऊपर सुल्तान है मत चूके चौहान” और “चढ़ जा बेटा सूली पर में..” कितना जोखिम। आप समझ रहे हैं न मैं क्या कहना चाह रहा हूँ ?