जोशीमठ से नीति के मुख्य रास्ते में एक खूबसूरत सा गांव है कोसा।अब तक निकली 5 अस्कोट आराकोट यात्रा अभियान में यह पहला मौका था जब अभियान के यात्रीगण कोसा पहुंचे।मुझे भी इसमें रहने का मौका मिला।कोसा गांव है कामरेड गोविंद सिंह रावत जी का। वहां पहुंचने पर स्थानीय गांववासियों द्वारा हमारा जो भव्य स्वागत किया गया,उसे कभी भूला जा सकता है। सबसे महत्वपूर्ण बात जो मैने वहां महसूस की वह यह थी कि गांववासियों को इस बात का फक्र था कि उनके गांव ने कामरेड गोविंद जैसे सपूत को जन्म दिया जो न केवल दो बार जोशीमठ के ब्लाक प्रमुख रहे,बल्कि चिपको आंदोलन के साथ साथ उस घाटी में चले सभी आंदोलनों के आधार स्तंभ रहे।
चमोली जनपद स्थित जोशीमठ विकासखंड अंतर्गत नीति घाटी के कोसा गांव में 23 जून 1935 को गोविंद सिंह रावत का जन्म श्रीमति चंद्रा देवी और श्री उमराव सिंह रावत के घर हुआ। जब वह महज चार साल के थे, तो उनकी माता इस दुनिया से हमेशा के लिए विदा हो गई थी। उन्होंने प्राथमिक की पढ़ाई गांव में, फिर आठवीं तक की पढ़ाई नंदप्रयाग में हासिल की।
उनके पिता चाहते थे कि वे व्यापार के लिए तिब्बत जाएं (उन दिनों भारत- तिब्बत का व्यापार नीति दर्रे से होता था), पर वे घर छोड़कर पौड़ी गढ़वाल अंतर्गत बुआखाल आ गये। जहां उन्होने मेस्मोर इंटर कालेज में दाखिला ले 10वीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। आगे की पढ़ाई के लिए पौड़ी टोल पोस्ट पर 15 रूपये महीने में नौकरी भी की। 1960 में इंटर पास किया। 12वीं पास करने के तत्काल बाद चमोली में पटवारी पद की भर्ती खुली, तो गोविन्द सिंह परीक्षा पास करके 1963 पटवारी बन गए। गोविन्द सिंह का मन नौकरी में नहीं लगा। 1964 में ही उन्होंने नौकरी छोड़ दी।
पौड़ी में पढ़ाई के दौरान उनकी मुलाकात पेशावर कांड के नायक कामरेड चन्द्रसिंह गढ़वाली और कई अन्य क्रांतिकारी लोगों से हुई थी। जिनके विचारों का उनके जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। उन्हें भी समाज को समझने और किताबों को पढ़ने शौक लग गया। धीरे-धीरे इसी शौक ने उन्हें जीवन में लोगों के लिए कुछ करने की प्रेरणा दी।
सन् 1969 में उन्होंने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी CPI ज्वाइन कर ली। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। जनहित से जुडे़ छोटी बड़ी समस्याओं के निराकरण के लिए उन्होंने लोगों को एकजुट करना शुरू कर दिया।
इसी बीच चुनाव के दौरान उन्हें अपने जनपद के सामाजिक तानेबाने को करीब से जाने का मौका मिला। दो फरवरी 1973 को उन्हें जोशीमठ विकासखंड का पहला प्रमुख चुना गया। इस दौरान मलारी सड़क मार्ग निर्माण में लोगो की कृषि भूमि काटी गई थी, लेकिन मुआवजा नहीं मिला था। गोविन्द सिंह ने ग्रामीणों को मुआवजा दिलाने के लिए शासन-प्रशासन से मांग की, साथ ही बदरीनाथ दौरे पर आई तत्कालीन गढ़वाल कमिश्नर कुसुमलता मित्तल से भी वार्ता की। इस दौरान वह कमिश्नर से भी भिड़ गए और उनका घिराव कर दिया। कमिश्नर के जबाब– जानते हो हम कमिश्नर हैं, के उत्तर में– गोविंद सिंह की बात कमिश्नर जी हम भी जनता हैं, की यादें आज भी पुराने लोगों के जेहन में तरोताजा है।
इसी दौर में गढ़वाल परिक्षेत्र में जंगलों को काटने का ठेका दे दिया गया था। रामपुर-फाटा से लेकर मंडल और रैणी के जंगलों के पेड़ों को काटने का ठेका साइमन एंड गुड्स कम्पनी को दिया गया था। जंगल काटने को लेकर पूरे गढ़वाल में लोगों में असंतोष था। अप्रैल 1973 में श्रीनगर में आयोजित गोष्ठी में गोविंद सिंह को इसके बारे में विस्तार से पता चला। गोष्ठी में चंडी प्रसाद भट्ट ने उन्हें बताया की रैणी का जंगल भी चार लाख 71 हजार में बिका है- इसको बचाने की सोचो। तब दोनों ने परिचर्चा कर पेड़ों को बचाने के लिए रणनीति तैयार की।
पहले मंडल के जंगलों को काटने के खिलाफ आवाज बुलंद हुई, और फिर रामपुर फाटा के जंगलों को बचाने में ग्रामीणों को कामयाबी मिली। इसी वर्ष मई में गोपेश्वर में एक वन संरक्षण पर एक वृहद सम्मलेन आयोजित हुआ। इसके पश्चात उन्होंने जनजागरूकता को एक पंपलेट तैयार किया,जिसमे लिखा था– ‘आ गया लाल निशान, लुटने वाले हो सावधान’, ‘लिपटो, झपटो और चिपको’। सबकी सहमति से अक्तूबर 1973 में पीले कागज में इसे लाल अक्षरों से छापा गया।इसके बाद कॉ. गोविंद सिंह रावत ने जोशीमठ से लेकर रैणी गांव के आसपास यानि नीति घाटी के दर्जनों गांवों की पदयात्रा शुरू की। पीले पंपलेट बांटते हुए चेलेंजर माइक से लोगों को पेड़ बचाओ, पहाड़ बचाओ की अलख जगाने लगे। साथ ही लोगों को जंगलों के कटान से तय नुकसान भूस्खलन, पानी, चारा संकट की जानकारियां दी।
दिसम्बर 1973 में गोविंद सिंह रावत एक सम्मेलन में शिरकत करने टिहरी गए। जहां उन्होंने लोगों को चमोली में जंगल बचाने की मुहीम के बारे विस्तार से बताया, और जागरूक होने को कहा। साथ ही मार्च महीने तक रैणी के जंगल को बचाने के लिए लोगों एकजुट किया। गोविन्द सिंह यह मुहिम उस वक्त काम आई, जब प्रशासन ने सोची समझी रणनीति के तहत 14 सालों से अटके मुआवजे के लिए रैणी के पुरूषों को चमोली तहसील में बुलाया गया, और दुसरी तरफ ठेकेदार साइमन गुड्स के मजदूरों ने रैणी के जंगलों पर धावा बोल दिया। तब जिसके प्रतिकार में गौरा देवी की अगुवाई में रैणी की महिलाओं ने अपने हरे भरे जंगलों को बचाने के लिए अनोखा रास्ता अपनाया। वह पेड़ों से चिपक गई। मातृशक्ति के हौसले के आगे ठेकेदार के मजदूरों ने हार कर वापसी कर रुख किया।
कॉ. गोविन्द सिंह रावत द्वारा पूर्व में गांव-गांव पहुंचकर जंगलों को बचाने का जो संदेश प्रसारित किया गया था, आखिरकार वही काम आया। भले उस दिन गोविन्द सिंह और अन्य लोग रैणी में न रहें हों। लेकिन उनकी जगाई अलख रंग लाई। जिसे भुलाया नहीं जा सकता है। इस कामयाबी के उपरांत रैणी जांच समिति बनी। जिसमें चंडी प्रसाद भट्ट और गोविन्द सिंह रावत को सदस्य बनाया गया। उनकी संस्तुतियों के आधार पर जंगलों का कटान रोक दिया गया,जो ‘चिपको आंदोलन’ की ही जीत थी। इसके बाद ‘चिपको’ रैणी से निकलर देश-दुनिया में चमक बिखेरने लगा और गोविन्द सिंह चिपको से इतर छीनो-झपटो में लग गए।
एक फरवरी तक 1978 तक गोविंद सिंह रावत ब्लाक प्रमुख रहे। 1980 में वन अधिनयम के विरोध में भी वह खुलकर आगे आये। नवंबर 1988 को वह दोबारा जोशीमठ के ब्लाक प्रमुख चुने गए, और दिसंबर 1996 तक इस पद पर बने रहे। उन्होंने अलग उत्तराखंड राज्य निर्माण के आन्दोलन में भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया।
ब्लाक प्रमुख रहते हुये भी उन्होंने कभी अपने लिए कुछ नहीं किया। जिसकी बानगी उस समय उनके घर में जाकर देखी जा सकती थी। बिल्कुल सामान्य जीवन। उनका एक ही उद्देश्य था कि जनसमस्याओं को कैसे दूर किया जाए।
जिस चिपको आंदोलन ने दुनिया को हैरत में डाला। उसकी सफलता को उन्होंने कभी भी भुनाया नहीं, बल्कि चिपको की सफलता के बाद दूसरी पहलकदमियां लेने की ओर बढ़ गए। जीवनपर्यंत लोगों के लिए लड़ने वाले कामरेड गोविन्द सिंह रावत ने 21 दिसंबर 1998 को दुनिया से विदा हुए…