एस पी सती
हिमालय पर्वत श्रृंखला विश्व की सर्वाधिक नवीन पर्वत श्रृंखला है, इसका निर्माण भारतीय उपमहाद्वीपीय प्लेट का उत्तर पूर्व की दिशा में लगातार बढ़ते रहने और एशिया की प्लेट के साथ टकराने से हुआ है. दोनों प्लेटों के टकराने के बाबजूद भारतीय उपमहाद्वीपीय प्लेट का उत्तर पूर्व की ओर लगने वाला दबाव रुका नहीं है और वह सतत जारी है. फलस्वरूप हिमालय पर्वतों के उत्थान की प्रक्रिया आज भी बदस्तूर जारी है. पच्चीस सौ किलोमीटर के अर्धचन्द्राकार हिमालयी पर्वतीय क्षेत्र पर जहां भी दबाव की अति हो जाती है तो भूगर्भ में चट्टानें टूट जाती हैं जिसके कारण भूकंप आते रहते हैं. भूकम्पों का परिमाण इस बात पर निर्भर करता है कि दबाव में कितनी ऊर्जा उत्सर्जित हुई है. छोटे—मोटे भूकंप तो चट्टानों में छोटी—मोटी दरारें और टूटन से आते रहते हैं, परन्तु इन छोटे—मोटे झटकों से गहराई में लगातार दबाव के चलते संचयित होने वाली ऊर्जा उत्सर्जित नहीं हो पाती। हाँ इससे यह जरूर निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि क्षेत्र में भूकम्पीय दृष्टि से सक्रियता बढ़ी है. हाल में उत्तराखंड और नेपाल बॉर्डर क्षेत्र में भूकम्पीय गतिविधि बढ़ी है. यह इस बात की पुष्टि करता है कि यहां भूकम्पीय सक्रियता बढ़ रही है. विश्व के कई वैज्ञानिक अध्ययनों से वैसे भी यह पुष्ट है कि हिमालय के इस क्षेत्र में भूकम्पीय सक्रियता अधिक है.
हिमालय के विभिन्न भागों में इस तरह की संचयित ऊर्जा ढाई—तीन सौ सालों में 8+ के परिमाण वाले भीषण भूकंप के रूप में प्रकट होकर उत्सर्जित होती है. सूच्य है कि 1991 का उत्तरकाशी भूकंप और 1999 का चमोली भूकंप साढ़े छः से अधिक के परिमाण के नहीं थे. उल्लेखनीय है कि 2005 का मुजफ्फराबाद भूकंप जिसके कारण कश्मीर क्षेत्र में व्यापक तबाही हुई थी 7.6 परिमाण का था तथा 2015 का नेपाल का गोरखा भूकंप जिसने नेपाल में अभूतपूर्व जन-धन की हानि हुई थी, भी 7.9 तीव्रता का था. तबाही की विराटता के बाबजूद ये भूकंप 8+ की विराटता वाले नहीं थे.
उत्तराखंड क्षेत्र में इतिहास का सबसे विनाशकारी भूकंप सन् 1803 में दर्ज हुआ है. जिसे गढ़वाल भूकंप के नाम से जाना जाता है. इस भूकंप की विभीषिका का वर्णन करते हुये सन् 1808 में श्रीनगर में आये अंग्रेज पर्यटक और लेखक ने लिखा कि — इस भूकंप से गढ़वाल की जनसँख्या एक चौथाई रह गयी थी. इतिहासकारों का मानना है कि इस भूकंप से लहूलुहान उत्तराखंड रियासतों पर गोरखों ने सन् 1804 में आक्रमण किया और आसानी से कब्जा कर दिया. दैवीय आपदा किस तरह से राजनीति की दिशा तय कर सकती है, यह इस बात का उदाहरण है. इस भूकंप से दिल्ली और मथुरा तक भवनों को हुए नुकसान के प्रमाण मिलते है. प्रसिद्द भूविज्ञानी अठावली ने इस भूकंप को 8+ के परिमाण का माना था. सन् 2003 में प्रतिष्ठित टेक्टोनोफीजिक्स शोध पत्रिका में प्रकाशित अपने लेख में प्रसिद्द पुराभूकंपविद राजेंद्रन और श्रीमती राजेंद्रन ने विभिन्न तर्कों के आधार पर इस भूकंप को 8+ का साबित करने की कोशिश की थी तथा इसका केंद्र श्रीनगर गढ़वाल होना बताया था. प्रसिद्ध हिमालयी भूविज्ञानी प्रोफेसर खड़क सिंह वाल्दिया भी इस भूकंप को 8+ का ही मानते थे. परन्तु बाद में कई नए प्रमाणों के साथ खुद राजेंद्रन दंपत्ति ने इस भूकंप को अधिक से अधिक 7.6 की विराटता का बताया। जिसकी पुष्टि अब कम से कम दुनिया के सभी भूकंपविद करते हैं.
सन् 2001 में विश्व के सर्वाधिक प्रसिद्द भूकम्पविज्ञानिकों में से एक प्रोफेसर रोजर बिल्हाम तथा अन्य जिनमें कि एक भारतीय भूकंप विज्ञानी प्रोफेसर वी के एस गौड़ भी हैं, ने एक शोधपत्र प्रतिष्ठित शोध पत्रिका ‘साइंस’ में प्रकाशित किया। इस शोधपत्र में इन वैज्ञानिकों ने एक मॉडल प्रस्तुत किया जिसमें उन्होंने दिखाया कि क्षैतिज तौर पर अनवरत लगने वाली हिमालयी श्रृंखला वास्तव में कुछ खण्डों में विभक्त है. उन्होंने हिमालय को इस प्रकार विभाजित माना: कश्मीर क्षेत्र को पश्चिमी भाग, हिमाचल वाले क्षेत्र को पश्चिम-मध्य, उत्तराखंड को मध्य, उसके बाद पूर्व-मध्य जिसमें कि नेपाल बिहार का बॉर्डर ले सकते हैं, तथा अंततः पूर्वी हिमालय जिसमें सम्पूर्ण उत्तरपूर्व का हिमालय ले सकते हैं, उक्त लेख में इन वैज्ञानिकों ने घोषित किया कि ऊर्जा संचय होने की दृस्टि से पश्चिमी हिमालय तथा मध्य हिमालय ऐसे भाग हैं जहां बड़े भूकंप याने कि 8 से अधिक परिमाण के भूकंप कई सौ सालों से नहीं आये हैं. उन्होंने पश्चिमी हिमालय को इस तरह वेस्टर्न सिस्मिक गैप याने कि पश्चिमी भूकंप निरापद क्षेत्र तथा मध्य भाग याने कि उत्तराखंड हिमालय को सेंट्रल सिस्मिक गैप याने कि मध्य भूकम्पीय निरापद क्षेत्र नाम दिया. सेंट्रल सिस्मिक गैप की बात करें तो सन् 1905 के कांगड़ा भूकंप जिसे कि 8 से अधिक परिमाण का भूकंप माना जाता है और सन् 1934 का बिहार-नेपाल बॉर्डर का भूकंप (8+) के बीच का क्षेत्र जिसमें कि प्रमुखतः उत्तराखंड आता है, अभी तक ज्ञात इतिहास में 8+ का भूकंप नहीं आया है.
हम पहले ही बता चुके हैं कि सन् 1803 का गढ़वाल भूकंप भी 8+ परिमाण का नहीं था. विभिन्न शोधों में ये बात बार बार सामने आ रही है कि उत्तराखंड हिमालय में भूकम्पीय दृष्टि से अत्यधिक् ऊर्जा संचयित हो गयी है जो कभी भी बड़े भूकंप की शक्ल में उत्सर्जित हो सकती है. याने कि सम्पूर्ण हिमालय में आठ या उससे अधिक परिमाण का भूकंप की अगर सर्वाधिक संभावना कहीं है तो वह उत्तराखंड हिमालय ही है. इस लेखक तथा राष्ट्रीय भूभौतिक शोध संस्थान हैदराबाद के वैज्ञानिकों के संयुक्त शोध में भी यह साबित हुआ है कि उत्तराखंड क्षेत्र के नीचे अत्यधिक ऊर्जा संचयित है, जो कभी भी बहुत विनाशकारी भूकंप की शक्ल में सामने आ सकती है. यह शोध प्रसिद्द शोध पत्रिका ‘एअर्थ एंड प्लेनेटरी साइंस लेटर्स’ में सन् 2019 में प्रकाशित हुआ.
अब जब हम यह तार्किक तौर पर यह समझ गए हैं कि उत्तराखंड बहुत बड़े भूकंप की संभावना पर खड़ा है, एक नज़र क्षेत्र की स्थितियों पर डालते हैं. उत्तराखंड में चाहे मैदान हो या पहाड़, भवन निर्माण में भूकम्पीय मानकों की सिरे से अनदेखी हो रही है. सन् 2015 के गोरखा भूकंप ने यह बात साबित की है क़ि भूकंप का अभिकेंद्र भले ही सुदूर पहाड़ों में हो परन्तु व्यापक तबाही तो उससे जुड़े हुए तराई के इलाकों में हुई है. इस दृष्टि से देखें तो देहरादून, ऋषिकेश, कोटद्वार, काशीपुर, रामनगर, रुद्रपुर, उधमसिंघनगर सहित कई मैदानी इलाके बड़े खतरे की ज़द में हैं. पहाड़ के अधिकाँश कस्बों का भी बुरा हाल है, बहुमंजली इमारतें बेरोकटोक बन रही हैं और मानकों पर कोई बात ही नहीं करता. सबसे अधिक खतरे में पहाड़ों और मैदानों में बने स्कूल हैं. पहाड़ों में स्कूल गांव के सबसे बेकार स्थान पर बनाये जाते हैं. निर्माण की गुणवत्ता शर्मिंदगी की हद तक घटिया है. याद रहे कि सन् 2001 में 26 जनवरी के दिन गुजरात के भुज में प्रातः एक बहुत बड़ा भूकंप आया था. गणतंत्र दिवस होने के कारण अधिकाँश विद्यार्थी मैदान में समारोहों में व्यस्त थे, तब भी स्कूलों में बड़ी संख्या में छात्र छात्राएं आहात हुए थे. किसी दिन अगर दिन के समय जब छात्र—छात्रायें स्कूलों में पढ़ाई कर रहे हों और बड़ा भूकंप आ जाये तो???
यह लेख पाठकों को डराने के उद्देश्य से नहीं लिखा गया है बल्कि सजग रहने और जानकारी के लिए लिखा गया है.
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