रणधीर संजीवनी
समाचारों पर थोड़ा बहुत भी ध्यान देने वाले व्यक्ति की तो बात छोड़िए, यहाँ तक की ‘वट्स एप ख़बर प्रेमी’ भी, शायद ही कोई ऐसा मिले जो ‘आजकल’ जोशीमठ का नाम नहीं सुन रहा हो। हिमालय के ऊँचे अंचल पर बसे छोटे से कस्बे जोशीमठ के घरों में 2021 के नवम्बर माह के अंतिम सप्ताह से दरारें आने लगी, शहर में भूस्खलन होने लगे और जगह-जगह ज़मीन धँसनी शुरू हो गयी थी। इन संकेतों ने 2007 के सितम्बर में दम तोड़ चुके चांई गाँव की याद दिलवाकर, जोशीमठ निवासियों के और हिमालय के प्रति संवेदनशीलता रखने वाले लोगों के दिल दहला दिए। अतुल सती के नेतृत्व में जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति ने समस्या के निराकरण के लिए आवाज़ उठाई।17 नवंबर, 2021 में सरकार को ज्ञापन देकर ‘व्यापक सर्वेक्षण करने और इस सर्वेक्षण के माध्यम से क्षेत्र के स्थायीकरण के लिए दीर्घकालिक समाधान ढूंढने की माँग’ (साभार अतुल सती) करी गयी थी। इस माँग में कोई भी कार्यवाही न होते देख जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति के निवेदन पर तीन भूविज्ञानियों (डॉ. नवीन जुयाल, डॉ.सरस्वती प्रकाश सती और डॉ. शुभ्रा शर्मा) की टीम ने सर्वेक्षण किया। इस समस्या के निराकरण, तत्काल नियंत्रण और दीर्घकालिक समाधान, दोनों के लिए ही सुझाव इस रिपोर्ट में दिए गए, जिनका मजमून अतुल सती, जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति की फेसबुक पोस्ट और फेसबुक लाइव से पता चला। कमोबेश इसी रिपोर्ट जैसा ही एक आलेख ऐतिहासिक हिमालयी शहर जोशीमठ के आसपास के ढलानों की अस्थिरता के कारणों तथा परिणामों के विश्लेषण और उम्मीद भरे सुझावों को लेकर देश की इंडियन एकेडमी ऑफ़ साइन्स की सहभागिता से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘करन्ट् साइंस’ के 25 जून के अंक में साया हुआ है। ‘अनस्टेबल स्लोप्स एंड थ्रेटेंड् लावलिहूड्स ऑफ़ द हिस्टोरिकल जोशीमठ टाउन, उत्तराखंड हिमालय, इंडिया’ (भारत के उत्तराखंड हिमालय के जोशीमठ शहर की अस्थिर ढलान और संकटग्रस्त आजीविका) शीर्षक के साथ प्रकाशित यह आलेख एस.पी.सती, मारिया असीम, वाई.पी. सुंदरियाल, नरेश राणा, विजय बहुगुणा और शुभ्रा शर्मा की कलम से निकला है। शुभ्रा शर्मा इसकी पत्राचार के लिए लेखक हैं। आगे की सारी बात इसी आलेख से उत्प्रेरित है। जिस लेख को आप पढ़ रहे हैं वह उपरोक्त आलेख का हिन्दी भाषा में सरलीकृत-संक्षिप्त रूप, उसके थोड़े विस्तार, उसके भावानुवाद और “उद्धरणों” से मिलाकर बनाई हुई खिचड़ी है। ‘करन्ट् साइंस’ का यह आलेख एक अत्यंत महत्वपूर्ण और समसामायिक मुद्दे पर है इसलिए इसका विभिन्न मंचों पर उन मंचों के पाठक बोध के अनुरूप आना ज़रूरी है।
ऊपरी अलकनंदा (गंगा) घाटी में सीमा के पास होने की वजह से सामरिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण इस जोशीमठ शहर में हर प्रकार की व्यवस्था और सुरक्षा होना नितान्त ज़रूरी बन जाता है। आजकल यह शहर ढलानों के खिसकने, प्राकृतिक जल स्रोतों के ख़त्म होने, सड़कों के धँसने और सभी प्रकार की इमारतों में दरारें पड़ने की समस्याओं का लगातार सामना करते हुए उस बीमार सा लग रहा है जिसकी साँस उखड़ रही हों। पिछले कुछ दशकों में जनसंख्या में वृद्धि के कारण बुनियादी ढाँचे के विकास में वृद्धि हुई है, जिससे सीमित संसाधनों पर भारी दबाव पड़ा है। भवन निर्माण कार्यों के लिए बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण उपयुक्त ज़मीनों की कमी होने लगी। इसके चलते अनिश्चित रूप से संतुलित कमजोर ढलानों पर घरेलू और दूसरे निर्माण बढ़ते ही गए हैं। बुनियादी ढाँचे का अनियोजित विकास, अपशिष्ट-जल निकासी तंत्र/व्यवस्था का आभाव और अस्थिर मलबे वाली ढलानों पर सड़कों की खुदाई तेजी से ढलानों के अस्थिर होने और ज़मीन के धँसने तथा दरकने के मुख्य कारण हैं।
उपरोक्त अध्ययन भूस्खलन के कारणों को समझने और इन कारणों के प्रति बोध बढ़ाने का काम करता है। ढलानों को और अधिक अस्थिर होने से रोकने और इस शहर के घरेलू निर्माणों से लेकर मूलभूत सुविधा ढाँचे को बचाने के लिए संभावित समाधान भी प्रदान करता है। यह अध्ययन हिमालय के उन दूसरे शहरों, जो लगभग जोशीमठ की तरह के ही भूवैज्ञानिक और भौमिक ढाँचे में हैं, की ऐसी ही समस्याओं के लिए भी समझ तैयार करता है। सभी शहर कमोबेश इसी तरह जनसंख्या वृद्धि और शहरीकरण के दबाव को झेल रहे हैं।
टैथिससागर के अवसादों के अति विशाल ढेरों के दबने, निचुड़ने, रगड़ने और ऐंठने से खड़ा हुआ नगाधिराज हिमालय दुनिया के पर्वतों में सबसे कम उम्र का पर्वत है। युवा अवस्था वाली चंचलता या अस्थिरता इसके हर तंत्र में भी रची-बसी है। इसका हर तंत्र नाज़ुक है। इसकी ज़मीन करवटें बदलती रहती हैं। हिमालय की भूवैज्ञानिक नाज़ुकता को हमारे पूर्वजों ने देखा, समझा, स्वीकारा और उसका अनुसरण किया। उसको अनदेखा करने या बदलने या दबाने की कोशिश तो बिल्कुल ही नहीं की। प्रकृति को अंगीकार कर ‘बिना मारे गए और बिना घायल हुए जीवन यापन (‘अहतो अक्षतोऽध्यष्ठां पृथिवीमहम्’; पृथ्वी सूक्त; अथर्ववेद’) करने की कामना से हमारे पूर्वजों ने अपने भवन निर्माण, खेत संरचना, रहन-सहन, सामाजिक-धार्मिक रीति-रिवाज, ललित कला, वास्तुकला में प्रकृति का अद्भुत सामवेश किया है।स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग ही हर क्षेत्र में हुआ है। इसके जीते-जागते उदाहरण यमुना और भागीरथी घाटियों के सैकड़ों वर्ष पुराने बहुमंजिला मकान हैं, जो आधुनिकता के अंधे अनुयायी बन चुके हमारे हिमालयी क्षेत्रों के आधुनिक शहरी निर्माणों को आईना दिखाते हैं। यह प्राचीन भवन कई भूकम्पों को हँसते-हँसते टालकर खड़े हैं। उन भूकम्पों में 1991 का उत्तरकाशी और 1999 का चमोली भूकम्प जैसे विनाशकारी भूकम्प भी शामिल हैं। इसी तरह, पहाड़ियों में पारंपरिक सिंचाई प्रणाली छोटे कुल/कूल/गूल या नहर व्यवस्था पर आधारित है। इस प्रणाली में नदी-नालों की छोटी और मध्यम धाराओं पर बिना रुकावट डाले बस उनके पानी की धारा को छोटी नहर में मोड़कर पानी लाया जाता है। इस प्रकार की सिंचाई अभी भी प्रचलन में है। हाल के कुछ दशकों में, उत्तराखंड हिमालय में बड़े पैमाने पर ढाँचागत विकासात्मक गतिविधियाँ चली हैं, चाहे सार्वजनिक निर्माण हो या घरेलू निर्माण। विशेषकर 1901 और 2011 के बीच शहरी जनसंख्या में हुई 20 गुना तक की बढ़ोत्तरी के चलते शहरी कस्बों का खूब फैलाव हो गया है। हिमालय की सुन्दर-शांत वादियों में चैन का घरोंदा बनाने वाली, केवल कुछ दिन बिताने के लिए वहाँ इंतज़ाम करने वाली, ‘ट्रवेल्लिंग-माउंटेन लवर्स’ की चाहतों को पूरा करने वाली और शहरों के सुशोभीकरण को कटिबद्ध रहने वाली “देवभूमि डेवलपर्स” (साभार श्री नवीन जोशी) जैसी गतिविधियाँ जोर-शोर से चली हैं। इन सबके ऊपर सड़क चौड़ीकरण और विद्युत परियोजनाएं तो हैं ही।
इतनी तीव्र गति में अनियोजित तरीके से बढ़ा शहर मौजूदा संसाधनों और बुनियादी ढाँचे पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है, जिससे इस पहाड़ी क्षेत्र के ‘जल-जंगल-जमीन’ की बहुत ही संतुलित सत्ता में खलबली मच गयी। तकनीकी शब्दों में कहें तो इससे पर्वतीय पारिस्थितिकी और ज़मीन की स्थिरता पर बहुत बुरा असर पड़ता है। इसलिए यह ज़रूरी है कि विशेषकर ऊँचे हिमालय के सरकने-दरकने वाले ढलानों पर, बुनियादी ढाँचे के विकास के साथ जुड़े इन जोखिमों और कमजोरियों का आकलन किया जाए।
पर पहले यह तो जान लेना सही रहेगा कि जिस जगह को लेकर सब बातें हो रही हैं वह जोशीमठ क्या है? किधर है? कैसा है? कैसे बना है? कब से है?
तो है क्या जोशीमठ?
जोशीमठ है प्रकृति में सहज ढंग से चलने वाले प्रक्रमों के परिणाम से बनी हुई एक जगह। जोशीमठ है गल या हिमनद, पर विदेशी शब्द हम लोगों को ज्यादा प्यारे और सही लगते हैं, उनको ही हम ज्यादा स्वीकारते हैं, तो जोशीमठ है ग्लेशियर के बढ़ने-सिकुड़ने और बर्फ़ के बार-बार गिरकर जमने फिर पिघलने के सीधे प्रभाव में जैसे ढीली मिट्टी, पत्थर वाले इलाके बनते हैं ठेठ वैसा ही अस्थिर, हिलता-डुलता, सरकती-दरकती ज़मीन वाला इलाका। जोशीमठ है प्रकृति में ही रच-बसकर उसके साथ तारतम्य बैठाते हुए निवास करने की हमारे पूर्वजों की समझ का समृद्ध इतिहास। जोशीमठ है एक गौरवशाली सांस्कृतिक-धार्मिक परम्परा का नाम। जोशीमठ है एकतरफ़ा सोच के अंधे विकास की नाव में बैठकर विनाश के भँवर में फँस जाने के दर्द का नाम। और अभी हाल तो जोशीमठ है बदहाली से संघर्ष का नाम।
किधर है? कैसा है ?
यह सब जानते हैं कि जोशीमठ जिसके कंधों में बैठा है वह हिमालय अपने भूविज्ञान में, अपनी भौमिकी बनावट में दुनिया के बाकी पर्वतों से बहुत कम उम्र का है। उम्र के ताकजे के चलते उसमें हलचल, छटपटाहट और बेचैनी है। वह अब तलक भी सरकते हुए उठ या बढ़ रहा है। हिमालय के जन्म लेने की दास्तान में भूविज्ञानी सुनाते हैं कि जब भारतीय भूपटल एशिया से टकराया तो इसका आगे का भाग पिचकने से कई दरारों में टूट गया। उत्तर और दक्षिण में जो दरारें बनी उन्हीं दरारों के बीच आधार की चट्टानें ऊपर ऐसे छटकी जैसे किसी चीज को बहुत ताकत के साथ ऊपर फेंका (अंगरेजी में कहें तो थ्रस्ट) जाता है। यही उच्च हिमालय (3 हज़ार से शुरू होकर 8 हज़ार मीटर या उससे अधिक ऊँचाई की चोटियों वाला हिमालय प्रक्षेत्र) बना और दक्षिण के तरफ़ की इसी दरार को प्रख्यात भूविज्ञानी और हिमालय-प्रेमी हेइम और गैन्सीर ने मेन सेन्ट्रल थ्रस्ट (एम. सी. टी.) का नाम दिया। जोशीमठ शहर मेन सेंट्रल थ्रस्ट के पास उच्च हिमालय में ही है। इस रवेदार/क्रिस्टलीय प्रक्षेत्र की चट्टानें (आधार की शैल) चीर जाने वाली, ध्वस्त या चूर-चूर हो चुकी, कतरन जैसे हो चुकी और जिनका स्वरुप या काया बदल चुकी है (कायांतरित) ऐसे ज्वालामुखी शैल हैं, जिसे नाइसिस कहते हैं। इन कमजोर शैलों के चलते ढलानों पर भूमि धँसने और बड़े पैमाने पर बर्बादी का खतरा है। उत्तर दिशा में झुका हुआ मेन सेन्ट्रल थ्रस्ट/मुख्य केन्द्रीय क्षेप (एम सी. टी.) नाम से बुलाया जाने वाला भ्रंश इस उच्च हिमालय को मध्य हिमालय से अलग करता है। हेम और गैन्सीर ने 1939 के अपने शोध कार्य में यह रेखांकित किया है कि एम. सी. टी. जोशीमठ शहर से लगभग 10 किलोमीटर दक्षिण पश्चिम हेलांग गाँव के पास अलकनंदा नदी पर से गुजरता है। दो अन्य क्षेप-भ्रंश: वैकृत थ्रस्ट (इसे तो एम.सी.टी. ही माने) और मुनस्यारी थ्रस्ट भी इसके पास ही से गुजरते हैं। इन सबका प्रभाव इसको ज़मीनी हलचलों का गढ़ बना देते हैं, यानि नवविवर्तनिक रूप से भी सक्रिय क्षेत्र। भारतीय भूविज्ञानियों में सिरमौर रहे खड्ग सिंह वल्दिया जी ने एम. सी. टी. क्षेत्र को 5-20 किलोमीटर चौड़ा ऐसा क्षेत्र बताया है जिसमें विरूपण होता रहता है यानि चट्टानों की शक्ल बिगड़ती रहती है, उनका रूप बिगड़ते रहता है। उनमें टूट-फूट होना, उनका कतरा-कतरा अलग होकर छितर जाना, यह सब चलता ही रहता है। हाल में हुए वैश्विक स्थान-निर्धारण प्रणाली (ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम) पर आधारित अध्ययन भी बताते हैं कि इस क्षेत्र में ज़मीनी सतह का सिकुड़ना और भूकम्प की बहुत ज्यादा हलचलें हो रही हैं। प्राकृतिक प्रक्रियाओं से बनी हुईं आकृतियों का जाइज़ा लेकर कहें तो, जोशीमठ शहर और तपोवन के बीच के इलाके में पूरी तरह हिमनद (गल) या हिमनद तथा नदी दोनों की मिलीजुली गतिविधियों से बनी भूआकृतियाँ मिलती हैं। अलकनंदा और धौली गंगा नदी घाटियों के हिमनदों या हिमानियों पर हुए अध्ययनों से पता चला है कि यहाँ कभी ग्लेशियर लगभग 3 हज़ार मीटर नीचे तक फैल गए थे। इस इलाके की भूआकृतियाँ पिछले 40-50 हज़ार साल के दौरान यहाँ तीन हज़ार से साढ़े चार हज़ार मीटर (ऊपरी ढलानों) के बीच के क्षेत्र में हिमनद और परिहिमनद गतिविधियों यानि हिमनदों के पास की या कह लीजिए लगातार बर्फ़ के जमने और पिघलने की गतिविधियों के व्यापक रूप से फैल होने की दास्तान को बयाँ करती हैं। ऐसी परिस्थितियों दावत देती हैं भूस्खलन को इसलिए यहाँ इस भूवैज्ञानिक ढाँचे में ढली जो भूमि है, जो सतह या ज़मीन इस ढाँचे पर खड़ी है वह पुराने समयों में, प्रागैतिहासिक कालों में हुए भूस्खलन के जमावों के अलावा कुछ नहीं है। यहाँ की ढलानों पर भी भूस्खलन का मलबा भरा पड़ा है। इतिहास के दायरे में आने वाले समय में से लेकर आज तक यहाँ भूस्खलन होते आए हैं।
और देखें तो खड़ी ढलाने भी हैं और पसरी ढलाने भी हैं। ये ढलाने या तो नदी-नालों द्वारा छोड़े गए छोटे पत्थर, कंकड़, बजरी, रेत, मिट्टी के पंख जैसे आकार के जमाव से ढके हुए यानि जलोढ़ पँखों से ढके हुए हैं या फिर फिसलते-सरकते-लुढ़कते भूस्खलन मलबे और स्थिर भूस्खलन मलबे के शंकुओं से ढके हुए हैं। जोशीमठ के उत्तरी भाग की ढलाने एकदम सीधी खड़ी ना होकर थोड़ी सी खड़ी हुई ढलाने हैं। जबकि, दक्षिणी भाग में ढलाने और ज्यादा लेटी या पसरी हुई हैं। हेलांग से लेकर तपोवन तक के अधिकतर गाँव उन पहाड़ी ढलानों पर स्थित हैं , जो धरातल से 40° से 50° का कोण बनाई हुई हैं। अन्दर को धँसी सतह (अवतल) वाली ढलानें मध्य (लगभग 2500 मीटर ऊँचाई) और निचली (लगभग 1800 मीटर ऊँचाई) घाटियों में ज्यादा हैं। जोशीमठ शहर के पश्चिम और पूर्व दोनों छोरों पर जहाँ पहाड़ी या मुख्य चोटी से समतल ज़मीन उतरना शुरू करती है, उन दोनों कटकों के बीच विशेष रूप से अवतल ढलाने हैं। धँसी ढलानों के ऊपरी हिस्से से बहुत अच्छी खासी मात्रा में मिश्रोढ (मिश्रोढ: अचानक और बहुत ही कम समय के अन्दर हुई ही भारी बारिश की वजह से आए हर तरह के पत्थर, रोड़ा, मिट्टी, रेत, बजरी से मिलकर बना हुआ जमाव) सामग्री साफ़ हो चुकी है,जो ढलानों के बीच के भाग में से मिट्टी के खिसकने/फिसलने और ढलान के निचले भाग में गुरुत्वाकर्षण के कारण हुई फिसलन का मिला-जुला असर हो सकता है। तीन हज़ार मीटर से ज्यादा ऊँचाई में मिलने वाला यह मलबा कभी पुराने समय में हुए भूस्खलन के मबले से बने होने के अलावा पूर्व से पश्चिम की ओर झुकी पहाड़ी (साढ़े तीन हज़ार मीटर) में जमी बर्फ के साथ टूटकर गिरी चट्टानों से भी बना हुआ हो सकता है।
अलकनंदा और धौली गंगा नदियों के दोनों किनारों पर पहाड़ी ढलानों से कई बारहमासी और मौसमी जलधाराएँ गिरती हैं। जोशीमठ शहर के आसपास, धाराएँ उत्तर पश्चिम से दक्षिण पूर्व झुकाव वाली पहाड़ी से निकलती हैं और एकदम सीधे यानि समकोण पर अलकनंदा/धौली गंगा से मिलती हैं। जोशीमठ और तपोवन के बीच ये धाराएँ हिमालयी चारागाहों से निकलती हैं। संभवतः उत्तर-पूर्व की ओर ढलान पर तकरीबन 4 हज़ार मीटर पर स्थित सरक यानि, ग्लेशियर के कटाव से बना गह्वर, इनका उद्गम स्रोत है। ये सब धाराएँ ढीले-ढाले भुरभुरे मलबे (ऐसा मलबा जिसमें आपस में मिलकर पिंड ना बन गए हों = असंपीडित) से भरी ढलानों के बीच से होकर बहती हैं। वर्षा और बर्फ के पिघलने से मिलने वाले पानी की यही नदियाँ गाँवों की जीवनदायिनी हैं।
यहाँ का अपवाह तंत्र/ ड्रेनेज सिस्टम यानि प्राकृतिक पानी जैसा तंत्र बनाकर बहता है वह तंत्र पेड़ के जैसा दिखता है,एक मूल तना (मुख्य नदी/जलधारा) और उससे निकली (इस सन्दर्भ में जुड़ी) शाखाएँ-प्रशाखाएँ (मुख्य सहायक-उपसहायक नदी/जलधाराएँ)। जोशीमठ शहर से लेकर तपोवन तक की पहाड़ियों पर ज्यादातर (58% के आस-पास) प्रथम श्रेणी की जलधाराएँ यानि सबसे छोटी/पतली जलधारा (जैसे पेड़ की पतली टहनी) ही हैं। क्षेत्र को देखने में साफ़ पता चलता है कि यह धाराएँ असंपीडित मलबे का अपरदन कर रही हैं यानि उसे काट रही हैं और अपने साथ उससे ढेर सारे पत्थर, रेत, गिट्टी, बजरी, मिट्टी को बहाकर ले जा रही हैं।
जोशीमठ शहर के आसपास की ऊँची ढलानों के कारण यहाँ अचानक ऊँचाई बढ़ जाती है। यह ऊँचाई बरसात में आने वाले मानसून को उत्तर दिशा में और आगे बढ़ने से रोकने में एक भौगोलिक बाधा के रूप में कार्य करती है। यहाँ हर साल लगभग 1500 मिमी बारिश हो ही जाती है, जिसमें से तकरीबन 80% बरसात में मानसूनी हवाओं से होती है। मानसून के दौरान, एम. सी. टी. क्षेत्र की सीमा बनकर खड़ी हुई ढलानों पर बादल फटना आम बात है। पारम्परिक ज्ञान से और हिमालय क्षेत्र में हुए वैज्ञानिक अध्ययनों से यह तथ्य उजागर है कि वर्षा का मिट्टी/ज़मीन के कटाव के साथ एक सीधा-सीधा सम्बन्ध है, जितनी ज्यादा बारिश होती है उतना ही ज्यादा मिट्टी/ज़मीन का कटाव होता है। जोशीमठ शहर सहित पूरे एम. सी. टी. क्षेत्र में बहुत ज्यादा और लगातार वर्षा होती है जिससे कटाव भी बहुत ज्यादा होता है। वनस्पति ऊँचाई के हिसाब से होती है और 2 हज़ार से 3 हज़ार मीटर के बीच बाँज की अलग-अलग किस्मों के पेड़ों वाले पतझड़ वन का प्रभुत्व है। साढ़े तीन हज़ार मीटर से ऊपर हिमालयी चरागाह है, उसके बाद 5 हज़ार मीटर से ऊपर हमेशा बर्फ़ रहती है।खेती और बसासत क्षेत्र ढाई हज़ार मीटर से नीचे स्थित हैं।
कैसे बना है? कब से है?
जोशीमठ में जो कुछ चल रहा है वह सब धीरे-धीरे शुरू हुआ वहाँ प्रकृति की बनाई हुई ज़मीन में मनुष्य के आने पर! व्यापारिक-धार्मिक यात्रा के मार्ग के एक पड़ाव से शुरू होकर एक मौसमी अस्थायी बस्ती से एक मठ सहित स्थायी बस्ती में बदलने और फिर एक सघन बसे हुए शहर में बदल जाने तक के परिवर्तन में जो मानवजनित हस्तक्षेप हुए और जो ज्यादा बड़े पैमाने में अब हो रहें हैं उसकी ही जाँच-पड़ताल से इस भयावह परिदृश्य से बचा जा सकेगा।
जोशीमठ में मानव का आगमन कब हुआ,कब यहाँ मानव बस्ती बनी, यह जानने के लिए हमें मानव इतिहास के ही नहीं भूवैज्ञानिक इतिहास के भी उन पन्नों को तक पलटना पड़ेगा जिनमें जोशीमठ बनने की कहानी लिखी हुई है। इस कहानी को हेइम और गैन्सीर ने सबसे पहले पढ़ा। यह शहर एक पुराने भूस्खलन के जमाव पर स्थित है इस बात को सबसे पहले वर्ष 1939 में हेइम और गैन्सीर ने अपने शोध कार्य में रेखांकित किया। उन्होंने यह सटीक निष्कर्ष दिया कि भूस्खलन कुआरी दर्रे के पूर्व में लगभग 4 हज़ार मीटर की ऊँचाई के पर्वत शिखर से शुरू हुआ था, जिससे जोशीमठ शहर और तपोवन के बीच की ढलानों पर बहुत ज्यादा पैमाने पर बड़े-बड़े गोल पत्थर (गोलाश्म/बोल्डर) आ गिरे। मानव सभ्यता ने जब यहाँ बसना शरू किया तो उसकी बसासतें इन्हीं ढलानों पर जमी, जो समय के साथ बढ़ती ही चली गयी। बस्तियाँ ख़ास तौर से बीच के भाग में दो प्रमुख गड्ढों या कहें नीची धँसी हुई दो जगहों के पास बढ़ती गयीं। ये बस्तियाँ आज सुनील से मारवाड़ी तक और छावनी बाजार के पूर्व से अलकनंदा नदी तक फैली हुई हैं। इन्हीं धँसी हुई जगह पर जलधाराएँ भी बहती हैं जो उत्तर-दक्षिण झुकाव वाले भ्रंशों या दरारों में से होकर बहती हैं।
जोशीमठ शहर, ‘ज्योतिर्मठ’ के नाम से भी जाना जाता है। यह स्थान अत्यधिक पूजनीय माना जाता है क्योंकि इसे आदि शंकराचार्य ने चार ’मठों’ में से एक के रूप में स्थापित किया था। यह भगवान बद्रीनाथ जी की शीतकालीन गद्दी है, जहाँ उनकी चल मूर्ति की पूजा श्री बदीनाथ धाम जी के कपाट बंद हो जाने के बाद जाड़ों भर के लिए होती है। 7वीं शताब्दी ईस्वीं के आसपास कत्यूरी राजवंश ने इस जोशीमठ को ही अपनी राजधानी बनाया था। इससे पता चलता है कि ऐतिहासिक काल से इन नाज़ुक ढलानों पर मानव ने तब बसना शुरू कर दिया था।
तिब्बत की यात्रा को जाने वाले यूरोपीय यात्रियों में जिसको सबसे पहला व्यक्ति कहा जा सकता है वह अंटोनियो आन्द्रे सन् 1624 ई0 की अपनी तिब्बत यात्रा में जाते वक्त बद्रीनाथ धाम जी के तीर्थयात्रियों का अनुगमन करता हुआ जोशीमठ पहुँचा था। सन् 1812 ई0 की मूर क्राफ्ट की प्रसिद्ध हिमालय-तिब्बत यात्रा का साक्षी भी जोशीमठ रहा है। सन् 1890 ई0 में जर्मन नाट्यकर्मी और पर्वतारोही कुर्ट बेक्क के द्वारा खिंची गयी इस शहर की तस्वीर इसके इतिहास, वर्तमान और यहाँ तक कहूँगा कि भविष्य को भी सामने रख देती है। तब यह जोशीमठ एक ऐसा शहर दिखलाई पड़ता है जिसमें केवल एक मंदिर, और कुछ अस्थायी छप्परदार भवन हैं, जो शायद धर्मशाला सराय रहें हो। साल 1936 में अपनी यात्रा में स्विस भूविज्ञानियों हेइम और गैन्सीर ने जोशीमठ में पत्थरों और लकड़ी के बने मकानों को देखते हुए टिचिनो, टायरॉल या वालिस को याद किया।‘उन मकानों में तरह-तरह की शानदार लड़की की नक्काशियाँ थीं, जिनमें लालिमा लिया हुआ भूरा रंग लगा था; कारीगरी किए हुए खम्बे थे जिनके ऊपर हाथियों की आकृतियाँ मढ़ी गयी थी, सुन्दर दरवाजे और खिडकियों के चौखट थे (द थ्रोन ऑफ़ द गॉड,1939; अर्नोल्ड हेइम और औगुस्ट गैन्सीर)’।
समय के साथ यह शहर धीरे-धीरे बढ़ता गया। आज 76 वर्ष की आयु में चल रहे जोशीमठ के एक स्थायी निवासी ने हिंदुस्तान टाइम्स के साथ पुराने समय के शहर को याद करते हुए बतलाया है कि 1960 के दौरान जोशीमठ में तकरीबन 30 दुकानें और 400 परिवार रहते थे। ख़ास तौर से 1960 के दशक के बाद ही, मुख्य रूप से सीमा सुरक्षा उद्देश्य या दृष्टिकोण के साथ सामरिक-रणनीतिक चिंताओं के जवाब के तौर पर इस शहर का प्रसार-विकास हुआ। हालाँकि, इस प्रक्रिया के दौरान, जिस सतह पर, जिस तरह की भूमि पर जोशीमठ टिका हुआ है, उसकी स्थिरता को काफी हद तक नज़रअंदाज़ कर दिया गया। परिणामस्वरूप इससे शहर के अस्तित्व को ही खतरा पैदा हो गया। मालूम ही है तब उत्तराखंड राज्य अस्तित्व में तो था नहीं और जोशीमठ तब उत्तर प्रदेश राज्य के गढ़वाल मंडल के चमोली जिले के अंतर्गत आता था। 1960 के दशक का उत्तरार्ध ही था जिसमें आज के जोशीमठ को निगल जाने को तैयार भूधँसाव और भूस्खलन की धमक जोर से सुनाई पड़ गयी थी। उस समय की यादों में जाएँ तो दिखाई देगा शहर में कई स्थानों पर धँसाव के साथ-साथ ढलानों का खिसकना! खतरे के बढ़ते चले जाने पर वर्ष 1976 में उत्तर प्रदेश सरकार ने भूमि धँसाव के कारणों की जाँच के लिए गढ़वाल के तत्कालीन कमिश्नर एम.सी.मिश्रा की अध्यक्षता में 18 सदस्यीय समिति का गठन किया। इस मिश्रा समिति ने आज से 45 साल पहले जो सटीक निष्कर्ष दिए थे उनको नीति-निर्माताओं के गलियारे में अनसुना-सा कर दिया गया और समिति ने जो संजीवनी सुझाव दिए थे उन पर 1976 से लेकर आज तक इतने सारे वर्षों में आते रहे हुक्मरान कभी अमल नहीं कर सके और न कर रहे हैं। यह हुआ होता तो आज का परिदृश्य कुछ और ही होता। इस मिश्रा समिति की रिपोर्ट और उसमें प्रस्तुत करी गई संस्तुतियों का उल्लेख और मनन किए बिना जोशीमठ में हो रहे ज़मीन के धँसाव पर बात करना अँधेरे में तीर चलाने जैसा होगा। सती और अन्य का आलेख भी इसकी संस्तुतियों का जस का तस मनन करता है।
विस्तृत अध्ययन के बाद, मिश्रा समिति,
“जोशीमठ रेत और पत्थरों का जमाव/निक्षेप है- इसमें आधार शैल नहीं है- इसलिए बढ़ रहे कस्बे के लिए यह उपयुक्त जगह नहीं है। विस्फोट और भारी यातायात से उत्पन्न कम्पन से भी प्राकृतिक घटक असंतुलन को अग्रसर होंगे।”
जैसे स्पष्ट शब्दों में सटीक निष्कर्ष देते हुए निम्नलिखित महत्वपूर्ण अनुशंसा देती हैः
“(i) साइट की स्थिरता की जाँच करने के बाद ही क्षेत्र में आगे का निर्माण किया जाना चाहिए और ढलानों पर खुदाई पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए।
(ii) खुदाई या विस्फोट द्वारा कोई पत्थर नहीं हटाया जाना चाहिए, और भूस्खलन क्षेत्र में कोई पेड़ नहीं काटा जाना चाहिए। क्षेत्र में, विशेष रूप से मारवाड़ी और जोशीमठ कस्बों के बीच, व्यापक वृक्षारोपण कार्य शुरू किया जाना चाहिए और ढलानों पर विकसित हुई दरारों को पूरी तरह बंद किया जाना चाहिए।
(iii) सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तलहटी के सीधे खड़े पत्थरों को उचित सहारा दिया जाना चाहिए, और कटाव को बंद या नदी को स्थायित्व देने के उपाय किए जाने चाहिए। इस बात पर भी जोर दिया जाए कि जोशीमठ शहर के 5 किमी के दायरे में निर्माण सामग्री एकत्र करने पर पूर्ण प्रतिबंध होना चाहिए।”
शहर के फैलने का कारण रही हुई इसकी बढती जनसंख्या में एक नज़र डालें तो 1971 में नोटिफाइड एरिया का दर्जा वाले जोशीमठ की जनसंख्या 5,852 थी, जो 1981 में 8,610 हो गयी। 1991 में मुन्सिपलिटी बोर्ड बन चुके जोशीमठ की आबादी बढ़कर 11,488 हो गयी और 2001 आते-आते जब तक यह नगर पालिका परिषद बन चुका था इसकी जनसँख्या 13,204 हो गयी। 2011 की जनगणना में इसकी कुल जनसँख्या 16,709 का आंकडा छू चुकी है। जो इतने वर्षों में न बदला न बदल सकता है वह है 1971 में नापा गया इस शहर का 11.49 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल।
जोशीमठ में क्या हो रहा है और आगे को तो न जाने क्या-क्या होगा ?!!!
वर्तमान में कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो गए इस शहर की ढलानों पर लगभग कोई जगह नहीं बची है। राज्य सरकार अधिकारियों के अनुसार आज जोशीमठ शहर में 3800 घरेलू और 400 व्यवसायिक इमारतें हैं। निर्माण गतिविधियों के लिए लघु हिमालय की तुलना में उच्च हिमालय कहीं अधिक कमजोर या संवेदनशील है। ऐसा इसलिए है क्योंकि उच्च हिमालय में भूमि के चट्टानी धरातल (सतह से 35 किमी अन्दर तक =भूपर्पटी/क्रस्ट) में अत्यधिक विरूपण/टूटना-फूटना और भूकम्प आने की प्रवृत्ति बहुत अधिक है। साथ ही साथ इस क्षेत्र में चरम मौसमी घटनाओं की आवृत्ति अत्यधिक है। इनके अलावा ऐसे पुराने भूस्खलन जो चरम घटनाओं के दौरान फिर से सक्रिय हो जाते हैं इस इलाके के अन्दर बहुत अधिक हैं। पत्थर, कंकड़, रोड़ी, रेत, बजरी, मिट्टी के ऐसे ढेर जो कभी पहले ग्लेशियरों के बढ़ने और पीछे खिसकने या ग्लेशियरों के फैलने और फिर सिकुड़ने से नियंत्रित प्रक्रियाओं की देन होते हैं, उनको पैराग्लेशियल अवसाद/तलछट का नाम दिया गया है। इन्हीं पैराग्लेशियल अवसादों/तलछ्टों की उपस्थिति इस इलाके को कमजोर बनाती है। उच्च हिमालय में भवन निर्माण की दृष्टि से सुरक्षित स्थान हमेशा से सीमित रहे हैं। इस बढ़ते हुए ‘शहरीकरण’ ने वहाँ बुनियादी ढाँचे (घरेलू निर्माण सहित) के निर्माण-विकास के लिए लोगों को ऐसे अस्थिर या अनुपयुक्त स्थानों पर भी कब्ज़ा करने के लिए मजबूर कर दिया है, जिन पर बीते हुए समय पर आज तक कभी कोई निर्माण नहीं किया गया। अस्थिर/अनुपयुक्त स्थानों को समझने का सबसे सटीक उदाहरण 2013 की केदारनाथ आपदा में देखने को मिला, जिसमें सबसे ज्यादा उन मकानों की तबाही हुई, जिनका निर्माण नदी तल के करीब या बाढ़ के रास्ते/मैदान (फ्लड-वे) पर किया गया था। इसी तरह अभी (जुलाई, 2023 में ) ऐसे ही भयावह दृश्य जिसमें पूरे-पूरे भवन उफनती हुई नदियों में समा रहे हैं हिमाचल प्रदेश के कई स्थानों से देखने को मिल रहे हैं। जलधाराओं के मार्ग में अवरोध और घरेलू अपशिष्ट-जल निकास के लिए सुव्यवस्थित प्रणाली की कमी आवास स्थलों के लिए एक बड़ा खतरा है। सीवर जल निकासी की इसी बदइंतजामी से मानसून के दौरान, शहरी उत्तराखंड के कई कस्बों में अक्सर मलबा आ जाने की घटनाएँ होती रहती हैं; उदाहरण के लिए, गोपेश्वर (1993), उत्तरकाशी (2006), अगस्त्यमुनि (2009), भटवारी (2010) और केदारनाथ (2013)। सती और अन्य साथी लेखक कहते हैं “इसके साथ ही, इलाके के भूवैज्ञानिक नाज़ुकपन को समझे बिना शहरों और कस्बों के पास अवैज्ञानिक तरीकों से सड़कें निकालना, बैराजों का और भूमिगत सुरंगों का अनियोजित ढंग से निर्माण इस भूभाग की अस्थिरता को बढ़ा रहे हैं।” हम सब मानते हैं और देख रहे हैं कि विकास के साथ शहरों का फैलाव अपरिहार्य है क्योंकि विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था के आभाव में बड़े केंद्र यानि शहर, महानगर, राज्यों की राजधानियाँ ही स्थानीय रोजगार, बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाएँ मिल पाने के स्थान बन जाते हैं। इसलिए एक तर्कसंगत प्रयास यही होगा कि जल-जंगल-ज़मीन और वहाँ रहने वाले प्राणी समुदायों की पारस्परिक क्रियाओं से मिलकर खड़े हुए नाज़ुक तंत्रों वाले क्षेत्र में एक ऐसा शहरी विकास लाया जाय कि जिसकी विकास प्रक्रिया के चलते हुए और उसके परिणाम से कोई समस्या खड़ी नहीं हो। दूसरे शब्दों में नाज़ुक पारिस्थितिक क्षेत्रों में संपोषणीय/संधारणीय सतत शहरी विकास के लिए एक व्यवहार्य योजना तैयार की जाय जो पर्यावरण के विनाश को कम करे और पारिस्थितिक सुरक्षा को सुनिश्चित करे।
वर्तमान परिदृश्य ज्यादा डरावना है क्योंकि बस्तियों के प्रसार के अलावा, तपोवन जल-विद्युत परियोजना के तहत इन्हीं सरकती-खिसकती ढलानों के नीचे से एक बड़ी सुरंग की खुदाई की जा रही है। वहीं एक दुर्घटना घटी जो समस्या के लिए उत्प्रेरक मानी जा रही है या इस बहस के केंद्र में है।
जलाशय से टरबाइन मोटर को पानी ले जाने वाली सुरंग ‘अभिधार सुरंग या हेडरेस टनल’ कहलाती है। 24 दिसंबर 2009 को इसी निर्माणाधीन सुरंग की खुदाई में लगी खुदाई मशीन ने हेलांग गाँव से लगभग 3 किमी दूर अलकनन्दा के बाएं किनारे के सेलोंग गाँव में पानी धारण करी हुई चट्टानों/जलभृत की परतों में छेद कर दिया। इसी बीच एक बड़ी चट्टान के गिरने से खुदाई मशीन वहीं फँस गयी। यह हुआ ही था कि जुड़ी हुई (संधित), खंडित (विभंगित) और संभवतः भ्रंश वाली क्वार्टजाइट चट्टानों (तपोवन में बहुतायत से मिलने वाली ख़ास चट्टान) से अचानक 600-700 लीटर/सेकंड की रफ़्तार से पानी घुसने लगा। लगातार पानी बहने के साथ, दरारें भी लगातार चौड़ी होती गईं और उत्तर पूर्व की ओर एक 8-9 मीटर लंबी और 12 मीटर से ज्यादा चौड़ी गुफ़ा बन गई।
एक अध्ययन इस घटना के बाद जलस्रोतों या धारा के प्रवाह में बदलाव और सतह में कोई धँसाव आने की बात से इनकार करता है पर साथ ही 700-800 लीटर/सेकंड (60-70 करोड़ लीटर/दिन) के हिसाब से पानी सुरंग में आ रहा था इस बात को स्वीकारता है। जबकि, स्थानीय निवासियों का कहना है कि कई जल स्रोत या तो सूख गए या उनसे होनेवाले उत्स्राव या बहाव में काफी कमी हुई है। इसी के साथ-साथ ज़मीन धँसने की घटनाओं में वृद्धि भी हुई है, जिसके कारण सड़कों और घरों को नुकसान हुआ है। अचानक और इतने बड़े पैमाने पर पानी की निकासी के कारण ज़मीन धँसने की शुरुआत हो सकती है, यह मानना गलत या अतार्किक/अवैज्ञानिक नहीं होगा।
भारतीय सुदूर संवेदन संस्थान द्वारा जुलाई, 2020 और मार्च 2022, की दो वर्षों की अवधि तक किए गए अध्ययन से पता चला है कि जोशीमठ और उसके आसपास का इलाका हर साल 6.5 सेंटीमीटर (2.5 इंच) धँस रहा है। यह धँसाव सबसे ज्यादा जोशीमठ-औली सड़क पर 2180 मीटर की ऊँचाई पर चल रहा था। लेकिन, 27 दिसम्बर 2022 से 8 जनवरी 2023 के बीच मात्र 13 दिनों की अवधि में शहर 5.4 सेंटीमीटर धँस गया। डर और अशांति की बात कहते हुए यह रिपोर्ट बाद में आम जनता की पहुँच से हटा ली गयी थी।
11 जनवरी, 2023 तक जोशीमठ शहर के सभी नगरपालिका वार्डों में मिलाकर कुल 723 घरों के फर्शों, छतों और दीवारों पर बड़ी और छोटी दरारें उभर आई थीं। 23 जनवरी तक जोशीमठ शहर क्षेत्र के ज़मीनी धँसाव के कारण 863 घरों में बड़ी-छोटी दरारें आ चुकी थीं। इनमें से 181 घरों को आपदा प्रबंधन विभाग ने असुरक्षित या अति संकटग्रस्त/अति संवेदनशील क्षेत्र में घोषित कर दिया। इसी वर्ष की 2 और 3 जनवरी को जे पी कॉलोनी के कई घरों के फर्श और दीवार पर दरारें आ गयी और इधर की सड़क का भी कुछ भाग भूस्खलन की वजह से बह गया। सिंहधार, बायपास रोड़, नरसिंह मंदिर, ढाक, गोरांग और मारवाड़ी इलाकों में मुख्य सड़क राजमार्ग पर कई जगह पर धँसाव हो गया। यह डरावना सिलसिला अभी जारी है।
एक दूसरा अध्ययन यह बताता है कि मारवाड़ी इलाके की जे पी कॉलोनी में 6 जनवरी को जलभृत में छेद होने से जो हर मिनट 540 लीटर के हिसाब से जो पानी निकल रहा था वह 23 जनवरी तक घटकर 182 लीटर/ प्रति मिनट हो गया।
इन सब घटनाओं पर बात करते हुए हमें फिर जोशीमठ क्षेत्र की ज़मीनी बनावट को लौटना होगा। हमने जब ऊपर जोशीमठ के बनने की बात कही तो यह बात रखी थी कि जबसे यहाँ बस्तियाँ बसी वह दो गड्ढों या धँसी हुई जगह पर शुरू हुईं और इन जगह पर जलधाराएँ भी होकर बहती हैं। इन पर ध्यान दिया जाना बहुत ही ज़रूरी है।जोशीमठ शहर को ऊँचाई से देखने पर, जैसे उपग्रह से मिले चित्रों में देखने से बहुत साफ़ पता चल जाता है कि ऐसी दो नहीं तीन जगह हैं जहाँ ढलानों में कगार बने हैं जिनके पीछे ही कम खड़ी या पसरी ढलानों पर ही आबादी वाले मुख्य इलाके हैं। भूस्खलन/अवधाव के मलबे में बन गए ये कगार यहाँ की ज़मीन में इंसानों के पाँव पड़ने के बहुत समय पहले औली के ऊपर के इलाके से हुए लगातार तेजी से फिसलते हुए जमावों से बने हो सकते हैं। ये कगार यहाँ की स्थलाकृति के तौर पर भी बने हो सकते हैं। 2 जनवरी 2023 को सतह में निकली नई जलधारा जे पी कॉलोनी के ऊपर अवस्थित है। इसी तारीख के बाद जे पी कॉलोनी और सुनील मोहल्ला के बीच ज़मीन सरकने के साथ धँसाव में बढ़त देखी गयी। यहीं सिंहधार इलाका भी है जिसको सबसे ज्यादा क्षति पहुँची है। बारहमासी और बारिश से पानी प्राप्त करने वाली जलधाराओं के पास बने घरों को भी नुकसान पहुँचा है।
जनपद आपदा प्रबंधन प्राधिकरण,चमोली द्वारा जारी किए गए जोशीमठ आपदा प्रबंधन बुलेटिन में 17 जुलाई, 2023 को छपे आँकड़े बोलते हैं कि जिनमें दरारें दृष्टिगत हो चुकी हैं उन भवनों की कुल संख्या 868 हैं और जो भवन ‘unsafe zone’ में हैं उनकी कुल संख्या 181 है। इसी बुलेटिन में 2805 लाख रूपये मुआवजे की धनराशि, राहत सामग्री का भी उल्लेख किया गया है।
इन सबके बीच ही सी एन एन समाचार चैनल को दिए गए अपने साक्षात्कार में रंजीत सिन्हा, सचिव आपदा प्रबंधन ने कहा कि “जोशीमठ का ज़मीन धँसाव कोई नई समस्या नहीं है, मिट्टी बहुत भुरभुरी है। ज़मीन भार सहन नहीं कर सकती।”
सती और उनके साथी हाल के किए गए अपने क्षेत्र सर्वेक्षण के बाबत लिखते हैं “हाल के सर्वेक्षणों में पाया गया है कि जोशीमठ शहर में उभर गए गड्ढे और दरारों के पीछे का कारण ढलानों में से केवल बारीक रेत-बजरी-कंकड़ का पानी के साथ निकल जाना है। इसके चलते ढलाने अस्थिर हो गईं, जो चल रहे धँसाव और घरों में दरारें आने का एक मुख्य कारण हो सकता है। स्थानीय लोगों के कहे हिसाब से पिछले कुछ दशकों से चल रहे धँसाव और ढलानों का अस्थिर होना नवंबर 2021 में घटित हुई ऋषि गंगा आपदा के बाद और तेज हो गया है।”
ऋषि गंगा आपदा से पहले, भूस्खलन की दर और घरों को पहुँचे नुकसान के बारे में कोई समय-बद्ध आँकड़े नहीं है कि कैसे-कैसे समय बीतते इन दरारों की चौड़ाई और संख्या में इजाफ़ा हुआ या ऐसा कुछ, इसलिए स्थानीय लोगों द्वारा की गई टिप्पणियों को एक आँकड़े के तौर पर प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। हालाँकि, आपदा के दौरान, ऋषि गंगा में जो गाद-युक्त चरम उत्स्राव/स्राव था, जो कई परिवारों की ज़िन्दगी को अपने जैसा मैला कर गया, उस बजरी-रेता वाले मटमैले पानी को मापकर बताएं तो लगभग हर सेकंड में 1 लाख 10 हज़ार लीटर (आकलित : 1.1 x 105m3/s) पानी उस वक्त बह रहा था, जो सामान्य दिनों के हर सेकंड में 125 लीटर (आकलित : 30 ± 3 m/s) पानी बहने के अधिकतम प्रवाह वेग से अतिशय अधिक है। नदी के इतने विकराल बहाव के चलते किनारों से बड़े-बड़े पत्थर(बोल्डर) हटने की पूरी-पूरी सम्भावना हो जाती है, जिससे तट में तेजी से कटाव होता है और मलबे से ढके ढलान ज्यादा अस्थिर हो जाते हैं।
आगे और क्या हो सकता है?
यह तो ज़रूर कहना होगा कि अत्यधिक गाद से भरी हुई बाढ़ ने पुराने भूस्खलन निक्षेपों यानि भूस्खलन से जमा रेत-बजरी-कंकड़-पत्थर के ढेरों को अस्थिर कर दिया है। जोशीमठ शहर के नीचे स्थित मारवाड़ी तक धौली गंगा के किनारे की चट्टानों के तलों पर हुए कटाव के कारण कई स्थानों पर ताजा भूस्खलन होते हुए दिखने लगे हैं। ऐसे भूस्खलन धीरे-धीरे ऊपर की ओर बढ़ सकते हैं।अगर धौली गंगा और अन्य सहायक नदियों द्वारा पहाड़ियों के तले में कटाव जारी रहता है, तो ढलान असंतुलन की स्थिति में ही रहेंगे। इसके अलावा, यह भी साफ़ है कि नयी सड़क काटना, पुरानी सड़कों को चौड़ी करना, सुरंग खोदना, जल निकासी की अपर्याप्त व्यवस्था जैसे मानवजनित हस्तक्षेपों से ढलान अस्थिरता में तेजी ही आएगी।
तो इलाज क्या है ?!!
इस तक पहुँचने के लिए पहले पूरे परिदृश्य से महत्वपूर्ण बिंदुओं को दोहरा लेते हैं।
भारतीय मानक ब्यूरो (ब्यूरो ऑफ़ इंडियन स्टैण्डर्ड) ने जोशीमठ शहर को भूकंप आपदा क्षेत्र-V में रखा है, जिसका अर्थ है कि इस इलाके में भूकम्प सक्रिय हैं और बार-बार आते रह सकते हैं। साथ ही यह इलाका भुरभुरी ज़मीन वाला, रेत-पत्थर का बना हुआ होने के कारण भूवैज्ञानिक संरचना की दृष्टि से नाजु़क है। ऐसे इलाकों में नियम कहता है कि इमारतों का भारतीय मानक ब्यूरो के दिशानिर्देशों के अनुसार भूकंप प्रतिरोधी डिजाइन में होना आवश्यक है। हम ऊपर बात करते हुए आए हैं कि जोशीमठ में 2200 और 1500 मीटर के बीच अस्थिर ढलाने बहुत ज्यादा है, जो यहाँ के पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को एक मामूली सी प्राकृतिक या मानवजनित गड़बड़ी के प्रति भी बेहद संवेदनशील बनाती हैं। पहली ही नज़र में आ जाता है कि जोशीमठ शहर एक पुराने भूस्खलन जमाव पर स्थित है जो यह बता देता है कि यहाँ के ढलान भुरभुरे हैं, नाज़ुक हैं। यह शहर अभूतपूर्व जनसंख्या वृद्धि के दबाव का भी सामना कर ही रहा है। कभी चंद अस्थायी घरों के शहर रहे जोशीमठ की स्थानीय जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार लगभग 16,709 हो चुकी थी।
बढ़ती जनसंख्या से नए आवासीय भवन और दूसरे मूलभूत ढाँचों के लिए अस्थिर ढलानों पर बस्तियों का विस्तार होते ही चला जा रहा है, जिससे ढलानों की अस्थिरता और ज्यादा होती जा रही है। स्थानीय जनसँख्या के अलावा, 3 लाख से अधिक तीर्थयात्री गर्मियों के दौरान बद्रीनाथ जी जाने के लिए इस शहर से होकर गुजरते हैं, जिससे मौजूदा बुनियादी ढाँचे में अतिरिक्त दबाव पड़ता है। इस अतिरिक्त भार को संभालने के लिए नए बुनियादी ढाँचे के निर्माण की आवश्यकता पड़ती है इसलिए नया निर्माण बढ़ते ही जा रहा है। पास में ही औली स्कीइंग रिसॉर्ट भी उत्तराखंड में एक लोकप्रिय शीतकालीन खेल स्थल के रूप में विकसित हो रहा है। इलाके की स्थिरता बनाए रखने के लिए, अर्थव्यवस्था और पारिस्थितिकी के बीच संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता है।
जैसा कि हमने देखा कि 1976 की मिश्रा समिति ने अपशिष्ट जल के अनियमित/अव्यवस्थित निस्तारण को, निर्माण कार्यों के लिए पुराने भूस्खलन के बड़े-बड़े पत्थरों के हटाने को और कटाव को बंद या नदी को स्थायित्व देने के उपायों की कमी को अपनी रिपोर्ट में जोशीमठ शहर की नाज़ुक ढलानों के लिए प्रमुख खतरों के तौर पर रखा है। इस रिपोर्ट की सभी सिफ़ारिशें अब भी जोशीमठ शहर और उसके आसपास के गाँवों की सुरक्षा के लिए प्रासंगिक हैं। प्राकृतिक कारणों के साथ जुड़े मानवजनित हस्तक्षेपों की जटिलता को ध्यान में रखते हुए, वर्तमान संकट के लिए जिम्मेदार कारकों को सुनिश्चित करने के लिए अधिक विस्तृत वैज्ञानिक जाँच की आवश्यकता है।
सती अपने सहकर्मियों के साथ किए गए विश्लेषणों को प्रारम्भिक विश्लेषण मानते हुए उनके आधार पर, इलाके की अस्थिरता, भूमि धँसाव और बुनियादी ढाँचे की क्षति को रोकने/धीमी करने के लिए व्यापक सिफारिशें सामने रखते हैंः
“(i) जोशीमठ शहर के आसपास के भूविज्ञान, भूवैज्ञानिक ढाँचे, भूआकृति, भूतकनीकी अध्ययन, ढलान स्थिरता परीक्षण, भूस्खलन प्रभाव्यता, भूअभियांत्रिकी, नदी-जलधाराओं के जलीय बजट, प्रवाह, मौसमी प्रवाह, उनके छोड़े गए जलमार्ग, उनके बाढ़ के मैदान जैसे सभी पारिस्थितिकीय विविधताओं पर अभी तक हुए सारे अध्ययन टुकड़ों में हुए हैं, इसलिए सबसे पहले ज़रूरत है एकीकृत दृष्टिकोण के साथ इलाके के भूविज्ञान, उसके घटकों और यहाँ के प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन पर केन्द्रित अध्ययनों की। विशिष्ट रूप से, भूसंपत्ति स्तर पर भूवैज्ञानिक, भूभौतिकीय, पारिस्थितिक और मानवजनित हस्तक्षेपों का एक विस्तृत बहु-कालिक मानचित्र (बहु-दशकीय) तैयार किया जाना चाहिए। इस प्रकार मिले आंकड़ों से भूआकृति और प्राकृतिक संसाधन में आए परिवर्तनों की प्रकृति, परिमाण और प्रवृत्ति का मूल्यांकन किया जा सकता है। यह बहुत ज़रूरी है कि ढलानों का स्थिरता परीक्षण कर उनकी भूस्खलन के प्रति संवेदनशीलता को किसी भी प्रकार के सार्वजनिक और घरेलू निर्माण योजना, साथ ही ढलानों की पुनरुद्धार योजना के लिए भी, संभावित खतरे (गंभीर, मध्यम और सुरक्षित) की श्रेणियों के आधार पर वर्गीकृत किया जाना चाहिए।
(ii) तत्काल उपाय के रूप में, कोई भी उत्खनन गतिविधियाँ नहीं होनी चाहिए, विशेषकर उन क्रिस्टलीय शिलाखंडों की जिनका संतुलन संदिग्ध है। भूस्खलन के निक्षेपों (भूस्खलन से जमा बड़े पत्थर, गिट्टी, रेत, बजरी वगैरह) में मझले बारीक कण (कंकड़ वाली रेत) होते हैं, जो पत्थरों के बीच की खाली जगह में भरे होते हैं। अब अगर इन जमा ढेरों से होकर पानी बहता रहे तो यह सबसे पहले इन्हीं बारीक कणों को काटकर बहा ले जाएगाऔर शायद यही हुआ भी है। घरेलू अपशिष्ट-जल की अव्यवस्थित निकासी के चलते इन जमा ढेरों के ऊपर से लगातार बहता हुआ पानी कटाव के लिए आसान इसी बारीक कंकड़दार रेत/बजरी को काटकर बहा ले जाता रहा है। इससे इनकी सतह पर पोला भाग/गड्ढे बन गए हैं। हाल के दिनों में, ये गुहाएँ जोशीमठ शहर में निर्मित संरचनाओं की स्थिरता के लिए एक गंभीर खतरा पैदा कर रही हैं।
(iii) हाल की मीडिया रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि जोशीमठ शहर से होकर गुजरने वाली हेलांग-मारवाड़ी सड़क का चौड़ीकरण का काम जल्द ही शुरू होने वाला है, क्योंकि मौजूदा सड़क संकीर्ण है और तीर्थयात्रा के दौरान भारी यातायात को संभालने में असमर्थ है। हालाँकि, हेलांग गाँव से सेलंग और पैनी के बीच की सड़क की चढ़ाई पुराने भूस्खलन जमावों से होकर गुजरती है जो कई स्थानों पर धँस रहे हैं। इन पर ख़ास ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। ठीक इसी तरह की एक दूसरी जगह छावनी बाजार और मारवाड़ी के बीच भी है।तुषारधारा और चुंगीधार से पहले एक छोटे से हिस्से, जहाँ कठोर क्रिस्टलीय चट्टानों पर सड़क की खुदाई की जा रही है, को छोड़कर इस तकरीबन 20 किमी सड़क का अधिकतर हिस्सा (हेलांग और मारवाड़ी के बीच), पुराने भूस्खलन जमावों से होकर गुजरता है। यह पहले ही देखा जा चुका है कि चारधाम सड़क चौड़ीकरण कार्य ने कई नए भूस्खलन क्षेत्र बनाए हैं, जिनमें से कुछ हमेशा के लिए हो गए हैं। इसलिए, ढलानों की दशा सुधारने के लिए भूअभियांत्रिकी के नए से नए तरीके अपनाने चाहिए जिससे जिन क्षेत्रों में धँसाव की सम्भावना है उनको स्थिरता प्रदान की जा सके।उदाहरण के लिए ‘शैल दृढ़न’ यानि ‘चट्टानों को मजबूत करने’ के लिए बड़े-बड़े पत्थरों को नीचे के धरातल की चट्टानों (अपने मूल स्थान पर ही जो रही हैं ऐसी चट्टाने) से लंगर डालकर नथ देना/नत्थी कर देना और अत्यधिक दरारों वाली बुरी तरह कतरों-कतरों में टूट चुकी चट्टानों को तार के जाल में बाँधना। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि सड़क एक ऐसे असीमित वर्षा वाले क्षेत्र से होकर गुजरती है जिसमें कई बारहमासी जलधाराएँ बहती हैं, इसलिए ढलानों के सरकने को रोकने या सरकते हुए ढलानों को बाँधे रखने के लिए जल निकासी को मिश्रोढक ढलानों से अनिवार्यतः दूर मोड़ देना चाहिए।
(iv) हिमनदों के पास के या जहाँ लगातार बर्फ़ जमती और पिघलती रहती है (परिहिमनद/ पेरीग्लेशियल) ऐसे प्रक्षेत्रों में सड़कें धँस रही हैं, जैसे कि जोशीमठ शहर और तपोवन के बीच के कई स्थान। ये ढलान (20°- 40°) इसलिए ज्यादा धँस रहे हैं क्योंकि जिन धाराओं को बर्फ़ या भूजल से पानी मिलता रहता है ऐसी धाराएँ बारह महीने इन्हें भिगोती रहती हैं और सर्दियों में बर्फ़बारी और गर्मियों में बर्फ़ पिघलने का सामना भी यह ढलाने करती हैं। इससे इनकी मिट्टी ढीली होकर खिसकती रहती है। ऐसे क्षेत्रों में सड़क निर्माण के लिए ढलानों की खुदाई करते समय विशेष इंजीनियरिंग कौशल की आवश्यकता होती है, जिस पर वर्तमान पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। कहना पड़ेगा कि ऐसे क्षेत्रों में सड़कों को बनाए रखने के लिए हमारा रवैया प्रतिक्रियावादी है (धँसाव के बाद मरम्मत) जबकि होना चाहिए पहले से तैयारी किए रखने का (ढलान को दीर्घकालिक स्थिरता प्रदान करना)। निरंतर रेंगने और धँसने की इस पुरानी समस्या से बचने का एक तरीका यह है कि खंभों के साथ ऊँचे गलियारों का निर्माण किया जाए, जो कठोर चट्टान के आधार पर गहराई से जुड़े हों, जैसा कि जोशीमठ शहर में रज्जू मार्ग/रोपवे के लिए किया गया था।
(v) भारत में वर्तमान ऊर्जा माँग को पूरा करने के लिए जलविद्युत क्षमता का दोहन आवश्यक है जब तक कि अधिक टिकाऊ ऊर्जा विकल्प तैयार न हो जाएं। हालाँकि, इस प्रक्रिया में, आर्थिक और पारिस्थितिक स्थिरता के लिए भूवैज्ञानिक और पारिस्थितिक बाधाओं पर विचार करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, अलग-अलग किस्म के शैल-चट्टान वाले बीहड़ हिमालयी इलाकों में जलविद्युत परियोजनाओं के लिए सुरंगों की खुदाई के साथ-साथ जल निकायों के साथ अप्रत्याशित मुठभेड़ एक चुनौती पैदा करती है और अतिरिक्त सावधानियों की आवश्यकता की माँग रखती है। इसके अलावा, वर्ष 2021 में तपोवन-विष्णुप्रयाग परियोजना, एक छोटी जलधारा राउंटी गाड़ के कारण उत्पन्न अल्पकालिक बाढ़ से प्रभावित हुई थी, जिसने घाटी के किनारों को बहुत नुकासन पहुँचाने के अलावा, इस क्षेत्र में स्थिर भूस्खलन को फिर से सक्रिय कर दिया था। इसलिए, तपोवन-विष्णुप्रयाग परियोजना से सबक लेते हुए, हमें जोशीमठ जैसे उच्च हिमालयी इलाके में जलविद्युत क्षमता का दोहन करने की दिशा में अपनी रणनीति को फिर से व्यवस्थित करना चाहिए।”
अतुल सती के संयोजन में जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति शिकायतों के साथ, प्रभावितों की समस्याओं के समाधान के लिए और 11 सूत्रीय माँगों को लेकर आंदोलनरत है। चल रही बरसात का पानी अपनी सजह प्रवृत्ति के अनरूप पुराने धँसाव को और गहरा कर रहा है जिससे भवनों और मकानों में नई दरारें आ रही हैं पर ‘टूट घर रहे हैं!’ क्या कहीं उनकी अपनी लापरवाही रही? भगवान श्री बदरीनाथ जी की शीतकालीन गद्दी की अटूट परम्परा और विश्वास जिसकी गोद में बैठे हैं वह टूटता हुआ जोशीमठ क्या आने वाली पीढ़ियों को हमारी अपने ही विश्वास के प्रति असंवेदनशील होने की कहानी सुनाएगा? अतुल सती एकदम आँखों देखा ताजा हाल सुना रहे हैं कि जोशीमठ की जड़ में अलकनंदा नदी के ऊपर का भूकटाव, सिंहधार, दौड़ील/सुनील, रविग्राम, मारवाड़ी में भूधँसाव बढ़ा है। गाँधीनगर के भूस्खलन से नरसिंह मंदिर, जिसे भविष्य बद्री भी कहा जाता है, के पीछे स्थिति नाजुक हो चली है।
हमारी पौराणिक मान्यताओं में जोशीमठ के श्री नृसिंह मंदिर के विग्रह की बाँह टूटने पर विष्णु प्रयाग के नर और नारायण पर्वत मिल जाने के कारण श्री बद्रीनाथ धाम जी का मार्ग हमेशा के लिए बंद हो जाने का आख्यान है। जोशीमठ में बना हुआ यह परिदृश्य जो पूरे हिमालयी क्षेत्र में वहाँ के जल-जंगल-जमीन के नाजुक तंत्र से हुई छेड़छाड़ से होने वाले परिणामों का एक ठेठ नमूना सामने रखता है कहीं इस पौराणिक आख्यान को पूरे हिमालय के लिए कुछ बदले हुए ढंग में तो प्रस्तुत नहीं कर रहा है ??!!
One Comment
Dr. Prasanta Kumar Das
An indepth presentation of the scenario at Joshimath with ample background information. Must be eye catching for policy makers and nation builders.