गजेन्द्र रौतेला
प्राथमिक स्तर पर भाषा शिक्षण में सबसे पहला और जरूरी टूल है बच्चों के साथ खूब सारी गपशप या जिसे हम बातचीत भी कहते हैं।जैसा कि शिक्षाविद प्रो0 कृष्ण कुमार भी कहते हैं कि हम इस बेहद जरूरी साधन का उपयोग यदि हम बच्चों के साथ नहीं करते हैं तो भाषा शिक्षण प्रभावी नहीं हो सकता। अक्सर हम इस कारगर टूल को यूँ ही व्यर्थ कर देते हैं।इस गपशप या बातचीत के कई तरीके भी हो सकते हैं जिसमें हम अपने अनुभव,बच्चों के अनुभव,कुछ कविता-तुकबंदी,कुछ कहानियां और किस्सागोई आदि जैसी कई विधाओं का उपयोग करते हैं।जिससे बच्चों की कल्पनाशक्ति और एकाग्रता प्रत्यक्ष दिखाई दे जाती है।
किस्सागोई के कई किस्से तो कई बार बच्चे अपनी कल्पनाशक्ति से तत्काल गढ़ भी लेते हैं किसी छोटी सी घटना को अपने शब्दों में पिरोकर। भाषा का असली मकसद यहीं पर पूरा होता है कि जो हम प्राप्त करना चाहते हैं उसे बच्चा इस रूप में व्यक्त कर पा रहा है। इसकी अगली कड़ी होती है कि इन्हीं किस्सों को बच्चा अपनी तरह से लिख सके।भाषा सीखने का सर्वोत्तम है कि बच्चा अपनी कल्पनाशक्ति से कुछ लिख पा रहा हो। यदि हम बच्चों से नियमित बातचीत और संवाद करते रहें तो उनकी पढ़ने के प्रति रुचि भी बढ़ती है और स्कूल के प्रति लगाव भी। मैं अक्सर बच्चों के साथ बेहद अनौपचारिक तरीके से बातचीत करके अपने मूल विषय तक ले जाने का प्रयास करता हूँ। जिससे उनके पूर्वज्ञान को परखा जा सके और उनके किसी अनुभव को अभिव्यक्त करने का अवसर मिल सके। इसके साथ-साथ मैं स्वयं अपने बचपन से जुड़े इसी तरह के किस्सों को बच्चों से साझा करता हूँ ताकि बच्चे अपनी किसी बात को कहने में न झिझकें और मुझे भी अपनी तरह ही अपना हिस्सा महसूस करें।
लेकिन एक अध्यापक के रूप में हमें यह ध्यान रखना भी बहुत जरूरी होता है कि हम अपने संवैधानिक मूल्यों का ध्यान रखें और यह भी ध्यान रखें कि हमारी बातचीत से किसी भी बच्चे की भावना आहत न हो। क्योंकि बच्चों में अपने आत्मसम्मान की भावना बहुत प्रगाढ़ होती है वो अपनी कही हुई बात से आसानी से नहीं डिगते। इसके लिए जरूरी होता है कि विचारपूर्ण और तर्कशील बातचीत का माहौल बनाना जिससे कि बच्चा खुद अपनी बात को अपने चिंतन-मनन से अपनी ही कसौटी पर कसे और अपने सवालों का जवाब ढूंढने की कोशिश करे। अक्सर हमारी धारणा होती है कि बच्चे ऐसी कोशिश नहीं करते लेकिन मनोविज्ञान कहता है कि कोई भी बात हो प्रमस्तिष्क के किसी कोने में अवश्य मौजूद रहती है और अवसर मिलते ही उसमें चिंतन-मनन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।मैं यदि आज पीछे मुड़कर अपने बचपन की स्मृतियों में जाता हूँ तो बहुत सारे किस्से और बातें ऐसी हैं कि एक प्रौढ़ व्यक्ति के रूप में वो आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी कि तब वो मौलिक थी।
ऐसे ही बहुत सारे किस्से और घटनाएं हम सबके जीवन में कभी न कभी घटित हुए ही होते हैं जो आज एक शिक्षक के रूप में हमें बाल मन को समझने में मदद करते हैं। कुछ उदाहरणों को यहाँ साझा कर रहा हूँ-
उदाहरण -1 मछली को जिंदा करने की घटना।
अपना यह किस्सा मैंने बच्चों को तब सुनाया जब जीव जंतुओं सम्बन्धी किसी पाठ में मछली का जिक्र आया था।
किस्सा दरअसल यूँ था कि मैं कक्षा 4-5 में रहा हूँगा और उम्र भी यही कोई 10-11 साल। आस-पड़ोस भी बहुत नजदीक न था। लेकिन तीन चार सौ मीटर की दूरी पर एक परिवार के 3-4 हमउम्र बच्चे थे। तो कभी इतवार के दिन या छुट्टी के दिन उनसे मिलना-जुलना हो ही जाता था। और कभी-कभार खेलने के लिए नजदीकी गदेरे में भी चले जाया करते थे । एक ऐसे ही गर्मियों के दिन गदेरे नहाने गए तो बहुत छोटी-छोटी 4-5 मछलियों को भी पत्तों में पानी के साथ ले आये जिन्हें हमारी गढ़वाली में गड्याळ भी कहते हैं । घर के पास ही पानी के धारे के पास एक छोटी सी खाळ बनाई और उसमें रख दिया इन्हें। बड़ी देर तक उनको तैरते हुए देखते रहे और उनका नामकरण करके अपना-अपना हक़ उन पर जमाते रहे कि ये मेरी और वो तेरी। दुर्भाग्य से कुछ देर में मेरी वाली एक मछली उल्टी हो कर पानी के ऊपर आ गई।पहले तो कुछ देर तक उसे फिर से सीधा करके पानी में डालते रहे कि शायद फिर से तैरने लगे लेकिन ऐसा न हो पाया। तो हम में से किसी एक ने कहा कि ये मर गई है ।
तो कुछ देर तो हमारी चर्चा इसी बात पर रही कि मरना क्या होता है और अगर ये मर भी गई तो ये उल्टी होकर ऊपर क्यों आ गई ?? इस दौरान कई सवाल हमारे बीच आये और गए। लेकिन कोई ठोस जवाब न मिला। फिर उसी के एक छोटे भाई जिसका नाम बल्ली था, उसने कहा कि मुझे इसको ज़िंदा करना आता है। मैं इसको जिन्दा कर सकता हूँ। हालांकि वो हम सब से उम्र में सबसे छोटा था लेकिन जिस विश्वास से उसने कहा तो हमारा उस पर विश्वास करना लाज़मी था।हमने कहा कि कैसे तो बोला कि पहले दो रुपए लाओ। तो मरता क्या न करता। मैं दौड़कर कर पास ही घर में गया और अपनी गुल्लक तोड़कर दो रुपए भी ले आया। आखिर मेरी मरी हुई मछली को जिन्दा करने का सवाल था।
बल्ली ने वो दो रुपए अपने हाथ की मुट्ठी से ऐसे दबा लिए कि जैसे ये कहीं उड़ न जाएं। इस चक्कर में उसने मछली को जिन्दा करने वाले सारे काम हमारे हाथों से कराए क्योंकि उसके हाथ में तो दो रुपए थे। तो बल्ली हमको आदेश देता रहा कि ये करो और वो करो,ये लाओ और वो लाओ। इसी आदेश में बल्ली का आखरी दांव था कि तिमले के फल लाओ और उसे कूटकर पानी में डालो तो मछली शर्तिया जिन्दा हो जाएगी। बल्ली के द्वारा कई वादे और कसमें दी गई कि अभी तक किये गए उपाय उसने यूँ ही हमको ठगाने के लिए किए थे लेकिन ये तिमले वाला तो पक्का है।
तो पास ही खड़े तिमले के पेड़ से तुरंत ही कुछ तिमले के फल लाये गए और हमारे ही हाथों से कूटकर पानी में डलवाये गए………….लेकिन ये क्या पहले से उल्टी मछली के सीधे होने के बजाय अब बाकी मछलियां भी बारी बारी से उल्टी होने लगी।मेरी तो पैरों तले जैसे जमीन ही खिसक गई थी।हतप्रभ था कि ये क्या हुआ। अब तक बल्ली का बड़ा भाई उससे लड़ने लगा था कि मेरी मछली भी मार दी तुमने । ला मेरी मछली वापस । और मैं यह सब होते देख बगल में खड़ा होकर सुबक रहा था कि जो दूसरी मछलियाँ थी अब वो सब भी नहीं रही। और बल्ली जिरह कर रहता था कि तिमले कूटकर डाले तो तुमने अपने ही हाथों से।मैंने तो नहीं डाला न। उसकी इस बात का हमारे पास कोई जवाब न था।
इस पूरे किस्से को सभी बच्चों ने बड़ी तन्मयता से सुना और इस तरह के अपने-अपने अनुभवों को सुनाने लगे। तो ऐसे ही एक बच्ची ने कहा कि गुरुजी मुझे पहले लगता था कि मछली के मुँह में कोई पाइप होता होगा जिससे वो पानी के अंदर साँस लेती होगी। भाषा शिक्षण में इस तरह के सवाल और बच्चों को कल्पना करने और चिंतन -मनन के अवसर देने से भाषा सम्बन्धी अपनी अभिव्यक्ति को मूर्त रूप दे पाते हैं और यही भाषा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य भी है।
उदाहरण 2- होली के पैसों का गुम हो जाना
यह किस्सा तब सुनाया था जब ईदगाह पाठ पढ़ा रहा था और हमारे विभिन्न त्योहारों के बारे में बच्चों से बातचीत कर रहा था।
किस्सा कुछ यूँ था।जैसा कि हम सभी जानते हैं कि हमारे यहाँ पहाड़ों में बच्चे होली का त्यौहार होली शुरू होने से लगभग एक सप्ताह पहले से मनाना शुरू कर देते हैं।जिसमें वो होली का झण्डा लेकर जगह-जगह घूमते हैं और आने -जाने वालों पर पिठाई लगाकर पैसे मांगते हैं।हमने भी किया है ऐसा ,बहुत मजा आता था ऐसा करने में। पूरे साल भर इंतजार रहता था होली का कि कब आये और कब हम फिर से पैसे मांगेंगे। हमारी होली की टोली में उस साल पैसों की जिम्मेदारी मेरे पास थी। क्योंकि 5,10,20,25 और 50 पैसे के ही सिक्के ज्यादातर मिलते थे उस दौर में ।
तो उनको सुरक्षित रखने के लिए कोलगेट टूथ पाउडर का एक डिब्बा खाली किया गया जिसका ऊपर का हिस्सा निकालकर उसमें पैसे रखने का इंतजाम हो गया था। रोज पैसे मिलते और उसमें रख दिया करते थे। जिसको मैं रात-दिन अपने सबसे बड़े खजाने की तरह साथ लिया करता था। ऐसे करीब 5-6 दिन गुजर गए होंगे जब उसमें लगभग 8-10 रुपए हो गए होंगे। होली आने में अभी दो-तीन दिन बाकी थे तो 5-7 रुपए और बढ़ जाने की उम्मीद सभी को थी। पैसों को खर्च करने को लेकर विचार-विमर्श होने लगा तो ज्यादातर का कहना था कि 15 रुपए हो जाएंगे तो बाजार से ‘पार्षमैन’ का बैट लिया जाएगा इस बार ।
लेकिन मेरा विचार था कि बैट तो घर का बनाया हुआ भी चल जाएगा लेकिन इन पैसों से सब साइकिल सीखेंगे। क्योंकि तब पहली बार बाजार में साइकिल किराए पर मिलने लगी थी 3 रुपए प्रति घण्टा। पहली बार ऐसा मौका मिल रहा था तो साइकिल के प्रति मोह होना लाज़मी भी था। दरअसल तब साइकिल चलाना एक बड़ी उपलब्धि हुआ करता था। जब मुझे लगा कि ज्यादातर बच्चे बाजार के बैट लेने की बात कर रहे हैं तो मेरे साइकिल सीखने के ख्वाब टूटते नज़र आये। हम सब लोग मेरे घर के बिल्कुल बगल में ही एक नहर है उस पर बैठ कर आने-जाने वालों का इंतजार रहे थे पैसे मांगने के लिए। मैंने चुपके से पैसों का डिब्बा खिसकाया जो नहर के तेज पानी में बहकर स्कबर के अंदर चला गया।
फिर सबको कहा कि पैसों का डिब्बा नहर में अपने आप गिर गया है। फिर सब लगे उसे युद्ध स्तर पर ढूंढने में ।लेकिन उसका कुछ पता न चला। शायद स्कबर के अंदर वो किसी चीज में फंस गया था। लेकिन मैं लगातार उसे ढूंढते रहा तो सौभाग्य से एक दिन वो पानी के साथ मुझे खेत में मिल गया। दोस्तों को इसकी सूचना दी गई।तब तक होली निबट चुकी थी।होली में बाद में मिले पैसे भी खर्च हो चुके थे।सिर्फ यही 8-10 रुपए थे जिसमें अब बैट भी नहीं आ सकता था। फिर विचार-विमर्श किया गया कि अब क्या करें। निर्णय लिया गया कि अब इसको सब में बराबर बाँट दिया जाय फिर अपने हिस्से का कोई कुछ भी करे।मेरे हिस्से में भी दो रुपए आए एक रुपया घर से लिया तो कुल तीन रुपए हो गए। उन 3 रुपयों में एक घण्टे साइकिल किराए पर ली और काफी सीखी। लेकिन सीखने में थोड़ा उसका हैंडल और पैडल भी मुड़ गया जिसका 5 रुपए का हर्जाना मुझे साइकिल वाले को काफी दिन तक किस्तों में चुकाना पड़ा।
इस किस्से को सुनते ही बच्चे भी अपने उन सभी किस्सों को खुलकर बताने लगे जिसे वो अक्सर छुपा लेते हैं या शिक्षक से साझा करने में झिझकते हैं। दरअसल एक शिक्षक को बच्चे को यह भी भरोसा दिलाना होता है कि वह भी उनकी ही तरह था और धीरे-धीरे बड़ा हुआ है। बच्चों का यह विश्वास अर्जित करना बच्चे और एक शिक्षक के बीच एक मजबूत कड़ी जोड़ता है जहाँ स्कूल और पढ़ाई एक आसान सी बात लगने लगता है।
इस किस्से को सुनने के बाद एक बच्चे ने तुरंत कहा कि गुरुजी अगर मैं होता तो शुरू में ही अपने हिस्से के पैसे मांग कर अलग हो जाता और साइकिल सीखता।
इस तरह की अभिव्यक्ति ही भाषा सीखने का एक जरुरी हिस्सा भी है जहाँ पर बच्चा अपने भावों को शब्दों के रूप में ढाल सके।