जगमोहन रौतेला
22 जून 2019 को देश के लिए अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए एक और जवान शहीद हो गया। पर इस बार की शहादत की जगह देश की सीमा पर नहीं, अपितु देश के अन्दर अपने ही लोगों के बीच थी। यह जवान सीमा की रक्षा करते हुए नहीं, बल्कि अपनी प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा करते हुए शहीद हुआ। जिन लोगों के हमले से वह शहीद हुआ, वे किसी दुश्मन राष्ट्र के नहीं, बल्कि अपने ही देश, समाज, राज्य व आसपास के लोग थे, जिनसे लड़ना किसी घोषित दुश्मन देश के जवान से लड़ने की अपेक्षा और कठिन होता है। दुश्मन देश के जवान की एक पहचान तो होती है, लेकिन अपने बीच के दुश्मनों की कोई पहचान नहीं होती। वह हमारी ही तरह के कपड़ों व वेशभूषा के साथ रहता है। वह हमारा पड़ौसी और दोस्त भी होता है, लेकिन जब वह रातोंरात अमीर बनने के लालच में आता है तो अपनों के सीने पर गोली चलाने से भी नहीं चूकता।
देश के ऐसे ही दुश्मनों द्वारा रात के अंधेरे में चलाई गई गोली से नैनीताल जिले के कालाढ़ूँगी तहसील के नजदीक तराई केन्द्रीय वन प्रभाग की बरहैनी रेंज में वन विभाग के बीट वॉचर बहादुर सिंह चौहान शहीद हो गए और उनका साथी महेन्द्र सिंह गम्भीर रुप से घायल हो गया, जिसे हल्द्वानी के सुशीला तिवारी मेडिकल कालेज में भर्ती किया गया है। घटना के बारे में वन रक्षक दीपक सिंह नेगी द्वारा दिये गए विवरण के अनुसार, 21 जून की रात को वन क्षेत्राधिकारी ने उन्हें सूचना दी कि कुछ लकड़ी तस्कर दक्षिणी बीट केएन-1 क्षेत्र में खैर के पेड़ काट रहे हैं। वह अपने साथियों रोपण रक्षक मोहम्मद जान, मुमताज अली, विजेन्द्र बाबू, महेन्द्र सिंह व बीट वॉचर बहादुर सिंह चौहान के साथ वहाँ पहुँचे।
उन्होंने अपनी मोटर साइकिलें वहॉ बौर नदी के किनारे झाड़ियों में छिपा दीं। इसके बाद वे लकड़ी तस्करों की तलाश में पैदल ही चल दिए। कुछ दूर चलने के बाद उन्हें कटा हुआ एक खैर का पेड़ मिल गया, लेकिन पेड़ काटने वाले नहीं मिले। तस्करों के लकड़ी लेने के लिए वापस लौटने की उम्मीद में वे लोग पास ही झाड़ियों में छिप गए। रात के लगभग 2 बजे अंधेरे में कुछ लोगों के आने की आहट सुनाई दी। उनके चेहरे स्पष्ट नहीं दिखाई दे रहे थे। उन लोगों के निकट पहुँचने पर बीट वॉचर बहादुर सिंह चौहान ने उनकी ओर टॉर्च की रोशनी फेंकी, जिसके बाद लकड़ी तस्करों ने वनकर्मियों के ऊपर गोलियाँ चला दीं। वन कर्मियों ने भी जवाब में गोली चलाई। वन तस्करों की एक गोली बीट वॉचर बहादुर सिंह चौहान के पेट में और एक गोली महेन्द्र सिंह के पैर में लगी। रात के अंधेरे का फायदा उठा कर तस्कर वहाँ से भाग निकले।
वन रक्षक दीपक सिंह द्वारा इस घटना की सूचना डीएफओ आर.के. सिंह और रेंजर रूप नारायण गौतम को दिये जाने के बाद ये दोनों वनाधिकारी घटनास्थल पहुँचे। दोनों घायल वनकर्मियों को हल्द्वानी मेडिकल कालेज ले जाया गया, जहाँ बीट वॉचर बहादुर सिंह चौहान को मृत घोषित कर दिया गया। नैनीताल जिले के एसएसपी सुनील कुमार मीणा भी 22 जून की सुबह घटनास्थल पर पहुँच गए थे। लकड़ी तस्करों में से एक थाना केलाखेड़ा निवासी लखविन्दर सिंह उर्फ लक्खी को वनकर्मियों टार्च की रोशनी में पहचान लिया था। उसके साथ तीन या चार और लकड़ी तस्करों के होने का अनुमान वनकर्मियों का है। पुलिस ने लखविन्दर और उसके साथियों के खिलाफ धारा 302 व धारा 307 के तहत केस दर्ज किया है, जिनमें से हरसान, बाजपुर निवासी करन सिंह पुत्र इन्द्रजीत सिंह को पुलिस ने गत 25 जून को बरहैनी पुलिया के पास से गिरफ्तार कर लिया है। बहादुर सिंह चौहान उधमसिंह नगर जिले के बाजपुर के पाँवपुरी, बरहैनी निवासी थे और 1986 से वन विभाग में तैनात थे।
एक वन कर्मचारी वन तस्करों से लड़ते हुए शहीद हो गया, लेकिन उसकी मौत पर कहीं कोई हल्ला नहीं मचा। किसी ने भी उसे शहीद घोषित कहने तक की जहमत नहीं उठाई। किसी का खून नहीं खौला। किसी ने बहादुर सिंह की मौत पर दो शब्द संवेदना तक के लिए नहीं कहे। किसी ने उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होना तो छोड़िए दो फूल तक चढ़ाने की जहमत नहीं उठाई। पता नहीं क्यों ? क्या बहादुर सिंह अपना कर्तव्य निर्वाह करते हुए नहीं मारा गया ? क्या वह देश के लिए नहीं मरा ? अगर हाँ तो उसे शहीद क्यों नहीं कहा गया ? अगर वह देश के लिए नहीं मरा तो फिर वह किसके लिए गोली का शिकार हुआ ? क्या वर्दी के रंग के हिसाब से जवान की शहादत तय की जाती हैं ? और तो और मीडिया तक ने उसकी मौत को वह महत्व नहीं दिया। एक अखबार ने तो बहुत ही आपत्तिजनक शीर्षक ‘तस्करों ने वन बीट वॉचर को गोली से उड़ाया’ से समाचार प्रकाशित किया, मानो एक अपराधी ने दूसरे अपराधी को गोली मारी हो। क्यों ? वन कर्मियों तक में अपने साथी की हत्या को लेकर आक्रोश क्यों उत्पन्न नहीं हुआ ? उन्होंने ही उसे शहीद क्यों नहीं कहा ? क्या सीमा पर लड़ने वाला ही देशभक्त होता है ? क्या देश के अन्दर गैरकानूनी कार्य कर रहे लोगों से लड़ते हुए मारे जाने वाले लोग शहीद नहीं हैं ? सीवरों के भीतर काम करते हुए दम घुटने से या बिजली के खम्भों पर करंट लगने से हर साल सैकड़ों लोग प्राण गँवाते हैं, उन्हें शहीद का दर्जा क्यों नहीं दिया जाता ?