तारा चन्द्र त्रिपाठी
अपने को, अपने अध्यापकों को देखते.देखते अर्द्धशती बीत गयी। आज भी स्मृतियों में अनेक अध्यापक विराजमान हैं। जूनियर हाईस्कूल धनियाकोट के अध्यापक श्री नन्दकिशोर जी घुटने के कैंसर.जन्य मारक दर्द से परेशान रहने के बावजूद कभी शिक्षण से विमुख हुए हों, मुझे याद नहीं है। गणित के अध्यापक केवलानन्द जी, कक्षा में कभी सोये न हों, यह भी मुझे याद नहीं है। अंग्रेजी के अध्यापक श्री बालादत्त जी, स्कूल से भाग कर हुड़क्याणियों के नृत्य में न रमे हों, याद नहीं आता। भूगोल के अध्यापक श्री हरकसिंह के पदाघातों का अहसास अभी भी सालता है।
दृश्य बदलता है। रामगढ़ के परीक्षा केन्द्र में दरवाजे पर पद्मादत्त जी पहरा दे रहे हैं और गणित के अध्यापक पर्चा हल करवा रहे हैं। गणित के अध्यापक दरवाजे पर पहरा दे रहे हैं और पद्मादत्त जी अंग्रेज़ी का पर्चा हल करवा रहे हैं। यह सन् 1952 है। चुपके से नकल कर लेने के का संकेत तो गांधी जी के अध्यापक ने भी दिया था।
एक और दृश्य । आज का नहीं, सुदूर अतीत का । मेधावी शिष्य का अँगूठा काट लेने वाले द्रोणाचार्य तब भी थे, आज भी हैं । पाणिनि ने तो इनमें से अनेक को देखा था। तब भी छात्रों को बडे़ प्रेम और परिश्रम से पढ़ाने वाले ’अद्भुताध्यापक’, छात्रों की ठोक-पीट और मुर्गा बनाने को ही शिक्षण का सार मानने वाले ’घोराध्यापक’, रटन्त को ही सब कुछ मानने वाले ’काष्ठाध्यापक’, केवल एक ही विषय के ज्ञाता और पढ़ाने का शुल्क लेने वाले ’उपाध्याय’… सभी प्रकार के अध्यापक विराजमान थे। सार यह है कि अद्भुताध्यापक भले ही हर युग में विरल रहे हों, दूसरे प्रकार के अध्यापक तो थोक भाव से मिलते रहते हैं।
शिक्षा के बारे में अभिभावकों की सोच थी कि बच्चा हाईस्कूल या मिडिल कर, दो रोटी कमाने लगे तो उसका ’खुट अल्ज्यो करदें। खुट अल्ज्यो या विवाह। पर कैसे? आठ-दस गाँवों के बीच एक प्राथमिक पाठशाला थी और तीस-चालीस गाँवों के बीच एक मिडिल स्कूल। शहर के विद्यालयों में पहले तो प्रवेश मिलना ही कठिन था, यदि मिल भी गया तो वह आम आदमी के बूते के बाहर था। केवल वे ही लोग इस सुविधा का लाभ उठा पाते थे जिनके निकट संबंधी शहर में कार्यरत थे। मिडिल करने के लिए छात्रावास में रहना पड़ता था। छात्रावास में जगह भी नहीं मिल पाती थी। यदि जगह मिल भी गयी तो हर महीने अभिभावक को अपनी ’बारी’ पर खाने.पीने का समान छात्रावास पहुँचाना होता था। फलतः बहुत कम बच्चे प्राथमिक शिक्षा से आगे बढ़ पाते थे। अधिकतर बच्चे खेतीबाड़ी के काम में लग जाते थे या पंडिताई का अभ्यास करने लगते थे।
स्वाधीन भारत अभी अपनी शैशवावस्था में था। लोगों में आज की तरह ’सरकार करे’ वाली भावना नहीं थी। ’सरकार करती है’ यह बोध भी उनमें नही जागा था। समुदाय हर समस्या का समाधान स्वयं करने का अभ्यस्त था। ग्राम सभाएँ आज की तरह अनुदान पोषित नहीं थीं। ग्राम प्रधानी मात्र सेवा थी। चुनाव का दंगल नहीं होता था। सर्वसम्मति से गाँव के सयाने समझे जाने वाले व्यक्ति को प्रधान चुन लिया जाता था। सन् 1950। मेरे गाँव के प्रधान हीरावल्लभ जी पढ़े-लिखे तो दफा दो तक ही थे, लेकिन अनुभवी और प्रत्युत्पन्नमति थे। देश-परदेश घूम चुके थे। शिक्षा के महत्व को समझते थे। फिर उनके अपने पुत्र की आगे की पढ़ाई की भी समस्या थी। अतः उन्हें गाँव के बच्चों की आगे की पढ़ाई के लिए एक मिडिल स्कूल खोलने की सूझी। पर कैसे ? धन और साधन कैसे जुटें? उन्हें लगा, भगवान की शरण में जाने से काम बन सकता है। वे सचमुच भगवान की शरण में गये। गाँव में भागवत् कथा का आयोजन हुआ। सभापति जी स्वयं व्यास बने। मंदिर में पीपल के पेड़ की छाया में सप्ताह भर भागवत् कथा चली। कथा सुनने के पुण्य लाभ के लिए गाँव के ही नहीं, आसपास के कई गाँवों के श्रद्धालु बड़ी संख्या में उपस्थित हुए। चढ़ावा ग्राम सभा के कोष में गया और उस चढ़ावे से क्षेत्र के केन्द्रीय गाँव धनियाकोट के तप्पड़ में जूनियर हाईस्कूल के लिए दो बडे़ पर्णकुटीर, अध्यापकों के लिए मेजें कुर्सियाँ श्यामपट्ट और छात्रों के बैठने के लिए चटाइयों की व्यवस्था हो गयी। गाँव के एक अध्यापक नन्दकिशोर जी ने जिला परिषद् की सैतीस रु. प्रतिमाह की अध्यापकी छोड़कर मात्र बीस रुपये प्रतिमाह में इस विद्यालय को संचालित करने का दायित्व लिया। दो तीन शिक्षित बेरोजगार नवयुवक रखे गये। स्कूल चल पड़ा। स्कूल क्या आरंभ हुआ, सभापति जी अपना काम.धाम छोड़ कर स्कूल के पक्के भवन के निर्माण के लिए गाँव.गाँव जा कर सहयोग जुटाने में लग गये। सामग्री जुटने लगी। कहीं से दार (प्रकाष्ठ), कहीं से टिन, कहीं सौ, पचास, दस, पाँच रुपया, जिससे जो बन पड़ा, अर्पित करने लगा। जो लोग कुछ देने की स्थिति में नहीं थे, उन्होंने श्रमदान किया। साल भर में ही समीपस्थ ताल के खेत में जूनियर हाईस्कूल धनियाकोट का पक्का भवन और छात्रावास तैयार हो गया। अगले साल जिला परिषद् नैनीताल ने विद्यालय को अंगीकार कर लिया।
यह केवल मेरे क्षेत्र की ही उद्यमिता हो, ऐसा नहीं है। पहाड़ में शिक्षा.व्यवस्था का विकास लोगों के ऐसे ही सामुदायिक प्रयासों से हुआ है। इसमें कहीं नारायण स्वामी प्रेरणास्रोत बने, कहीं अपने बच्चों के भविष्य के प्रति चिन्तित ग्राम प्रमुख। कहीं देबसिंह बिष्ट और दानसिंह बिष्ट का सहयोग मिला, तो कहीं नैनीताल के हंप्री हाईस्कूल को बन्द होने से बचाने के लिए लाला चेतरामसाह सामने आये। स्वाधीनता से केवल चौ बीस दिन पहले भीमताल में मिडिल स्कूल आरंभ हुआ। लड़खड़ाने लगा तो लीलावती पन्त चालीस हजार के दान से उसका हाथ थामने के लिए आगे आयीं। शिक्षा की प्रगति के इस पड़ाव पर सरकार कहीं पर भी नहीं थी। सरकार दूसरे पड़ाव पर दिखाई दी।
देखा, सरकार जिस व्यवस्था में हाथ लगाती है, वही चौपट हो जाता है। गाँवों में शताब्दियों से खेती और पशुचारण में ही नहीं सामुदायिक कार्यों में भी सहकारिता सहज रूप से चल रही थी। सरकार ने सहकारिता में प्रवेश किया। सहकारिता के स्थान पर भ्रष्टाचार का बोल-बाला हो गया। ग्राम स्वशासन पर हाथ लगाया तो गाँवों में सहयोग के स्थान पर वैमनस्य उभरने लगा। विद्यालयों को गोद लेना आरंभ किया तो मुझको अपने गले लगा लो कहने वाली छुटभइयों की हजारों संस्थाएँ उभरने लगीं। अपने मानक स्कूलों को छोड़कर सरकार ने प्रान्तीयकरण के माध्यम से शिक्षा के विकास का स्पर्श किया तो सारी शिक्षा व्यवस्था मुन्ना भाई एम.बी.बी.एस. की राह पर चल पड़ी।
स्वाधीनता से पूर्व हमारा शिक्षा तंत्र बाबू पैदा करने के लिए बना था और उस मामले में कारगर भी था। बाबू बनने के लिए भाषा, गणित और सामान्य ज्ञान पर्याप्त थे। घोघन्त विद्या खोदन्त पाणी आदर्श था। गुरुजी की मान्यता थी कि डंडा सब कुछ सिखा देता है। स्वतंत्र चिन्तन निषिद्ध था। परंपरा ही सब कुछ थी। अधिकतर अध्यापक लीक पर चलने की शिक्षा देते थे। उनका मंत्र था यद्यपि शुद्धं लोक विरुद्धं नाचरणीयं नाचरणीयं (भले ही तुम्हारा विचार सही हो, लेकिन परंपरा के प्रतिकूल हो तो उसका आचरण नहीं करना चाहिए)। देवासुर संग्राम हर युग में चलता है। लोगों में देव भी होते हैं, असुर भी। आचरण शील होते हैं तो आचरण हीन भी। खुले होते हैं तो छद्म भी। लोग आवरण को ही सच मान लेते हैं और उसी के व्यामोह में फँसे रह जाते हैं। उच्छ्वास लेकर कहते हैं अहा! क्या जमाना था।
खाक जमाना था। 1960 में मेरे एक अध्यापक आगरा विश्वविद्यालय में बी.ए. हिन्दी के उप प्रधान परीक्षक थे। मैं एम.ए. का छात्र था, असली उप प्रधान परीक्षक। अध्यापक महोदय मुझे अपने नामांकित पैड पर हस्ताक्षर कर गाँव चले गये। मैं सभी सहायक परीक्षकों को मूल्यांकन के निर्देश भेजता रहा और उनके मूल्यांकन की समीक्षा करता रहा। एक अन्य प्राध्यापक के अनुरोध पर, हम दो छात्रों ने तीन दिन में, इण्टरमीडिएट की परीक्षा की चार सौ पचास उत्तर पुस्तिकाएँ निपटा दीं।
पास करने के लिए तो सिफारिश पर काम होता ही था। प्रथम श्रेणी दिलाने के लिए भी। चुपचाप अपने प्रिय शिष्यों को प्रकारान्तर से परीक्षा में आने वाले प्रश्नों का संकेत भी दे दिया जाता था। अपने प्रिय छात्र के लिए अधिक मेधावी छात्र को कम अंक देने की शिफारिश भी होती थी। मेरे एक प्राध्यापक से उनके मित्र ने, पता नहीं क्यों, अपने विद्यालय के कतिपय छात्रों को अनुत्तीर्ण करने की शिफारिश की। प्राध्यापक जी ने दोस्ती निभाते हुए सभी छात्रों को फेल कर दिया। जाँच हुई। प्राध्यापक जी अगले पाँच साल के लिए परीक्षकत्व से वंचित कर दिये गये। 1961 में अपने सौन्दर्य से गुरुजनों को सम्मोहित कर मिस पाॅल एम.एस.सी में प्रथम स्थान प्राप्त कर गयीं। उन दिनों यह आम चर्चा थी कि इलाहाबाद विश्व विद्यालय के रामकुमार वर्मा जी की छत्रछाया में या तो किसी रूपवती कन्या को प्रथम स्थान मिलता था या किसी वर्मा को। किसी भी स्वनामधन्य मुखौटे ने पद का दुरुपयोग करने में कभी कमी नहीं की।
जिन मुखौटों को आज भी आप और मैं आदर्श मानते हैं, उन मुखौटों के छद्म से ही विश्वविद्यालयों की यह दुर्दशा हुई है। जब कभी पेंशनर्स की बैठक होती है, मैं बार-बार एक ही रोना सुनता हूँ। सरकार उनके अनुभवों का लाभ नहीं उठा रही है। एक बार मैं उस सभा में बोल पड़ा। क्या हैं हमारे अनुभव? यह नैतिक पतन, यह भाई भतीजावाद यह चमचागिरी, यह कागजी खानापूरी, यह भ्रष्टाचार, यही तो हमारे अनुभव हैं न! भारत की दुर्दशा की सबसे बड़ी अपराधी तो हमारी पीढ़ी है। नरो वा कुंजरो वा पीढ़ी।
लाख भ्रष्टाचार के बावजूद आज कुछ नियम हैं। विश्वविद्यालयों की माखन मिश्री को छोड़ दें तो शिक्षा के अन्य क्षेत्रों में निरपेक्षता को बढ़ावा मिला है। यह नेताओं और अधिकारियों की लाचारी है कि वे इन नियमों से बचने के लिए कभी शिक्षामित्र बनाते हैं तो कभी शिक्षाशत्रु । सुना था थाने बिकते हैं। आज स्कूल बिक रहे हैं। ऐसा लगता जैसे कुछ अनहोनी होने वाली है, इसलिए हर अधिकारी और हर नेता समेट रहा है। ’
पूरे 35 साल अध्यापकी की। स्थापित, उच्चीकृत, नवोदित और प्रान्तीयकृत, लगभग सभी प्रकार के विद्यालयों का आस्वाद लिया। नियमों का पालन करने वाले डा. इन्द्रकृष्ण गंजू और गिरीशचन्द्र जोशी मिले तो अधिकतर अफसरों के चरण चंचरीक, घासीराम कोतवाल के भतीजे, खानापूरी और अब के राखि लेहु भगवान वाले, अनुदान भोगी, प्रमत्त और ढाई अक्षर वाले सब प्रकार के प्रधानाचार्यों और अधिकारियों से पाला पड़ा।
अध्यापकों के भी नाना रूप देखे। पता ही नहीं चलता था कि उनका आवरण असली है या अन्तःकरण। कमजोर के लिए कठोर और बलशाली के लिए कोमल। न समर्पण, न ज्ञान न दीन न ईमान । अध्यापक कक्ष की बहस में महारथी, उपदेश कुशल किन्तु कर्मशून्य । परीक्षा में सामान्य परीक्षार्थियों के सिर पर सवार, पर अधिकारियों के बच्चों को नकल कराने वाले।
अध्यापकी के आरंभिक सोलह वर्षों में शहरों के बच्चों में उभरती हुई जागरूकता देखी। उठते हुए स्वप्नों को देखा। अभिभावकों की चिन्ताओं को देखा। बच्चे को प्रशासक, चिकित्सक और इंजीनियर बनाने की चाहत भी देखी। प्रतिष्ठित विद्यालय थे अतः एक से एक मेधावी छात्र मिले। लगता था, इनके साथ कदम मिलाकर चलने के लिए खुद भी चलना होगा। वर्षों पहले अर्जित ज्ञान के व्याज से काम बनने वाला नहीं है। (यह उन्हीं छात्रों की देन है कि जब मेरे अनेक साथी दूकानों के बाहर पबलू खेल कर दिन बिता रहे हैं, मैं कलम और किताबों से जुड़ा हुआ हूँ।)
तब के राजकीय इण्टर काॅलेज, नैनीताल और राजकीय इण्टर काॅलेज, पिथौरागढ़ के साथ आज के विद्यालयों की तुलना करता हूँ तो बरबस एक प्रश्न मेरे मन को कचोटने लगता है। अपने आप से पूछता हूँ, हमारी शिक्षा व्यवस्था का बंटाधार किसने किया? उत्तर अनेक हैं। संसाधनों की कमी है, संसाधनों का दुरुपयोग है, काम चलाऊ व्यवस्था की नीति हैं। अयोग्य और घूसखोर अधिकारी हैं, नेताओं का हावी होना है और सबसे बढ़कर नियुक्ति और पदोन्नति का गड़बड़झाला है। न दंड है न प्रोत्साहन। पढ़ने और पढ़ाने की परंपरा ही समाप्त हो गयी है। शिच्छक हौं सिगरे जग को’ का दंभ वाला विभाग, प्राथमिक विद्यालय हों या विश्वविद्यालय, अध्ययन शून्य हथकंडेबाजों के ऐसे आश्रयस्थल बन गये हैं, जहाँ वेतन आहरण के अलावा बाकी सब खानापूरी है। शिक्षण निजी ट्यूशन और कोचिंग में चला गया है।
आज अभिभावकों की आकांक्षाएँ बढ़ गयी हैं, पर इस झमेले में छात्र लगभग अनाथ की स्थिति में है। उसकी सामर्थ्य की परख करने की, उसे सँवारने की चिन्ता किसी को नहीं है। अभिभावक के लिए वह मात्र सामाजिक प्रतिष्ठा के अश्वमेध का ऐसा घोड़ा बन कर रह गया है जिसकी अभिरुचि और क्षमता का आकलन करने की आवश्यकता नहीं है।
दूसरी ओर कभी विद्यालय की स्थापना से पूर्व भवन और अध्यापकों की व्यवस्था होती थी। अब नेता जी के फरमान मात्र से महाविद्यालय स्थापित होते हैं। एक कमरा, किसी विद्यालय से उधार लिया गया अकेला अध्यापक, एक बाबू, एक घंटी बजाने वाला। नाम राजकीय महाविद्यालय, चौराहा। बी.ए. पास, चपरासी के पद के लिए ठोकरे खाती नई पीढ़ी।
मध्यवर्गीय अभिभावक सीमाहीन प्रतिस्पद्र्धा से बेचैन हैं। पता ही नहीं चलता कि यह भारत है या रेलवे स्टेशन। हम सब जनरल कंपार्टमेंट के यात्री हैं। हर एक प्रयास में है कि किसी तरह पाँव रखने को जगह मिल जाय। अभिरुचि और सामर्थ्य को परखने का अवसर ही कहाँ है। एक अजीब सी भगदड़ है। फिर हम तो अध्यात्मवादी है न। जो कुछ हो रहा है वह वास्तविक नहीं है केवल प्रतीति मात्र है। शोषण हो, भ्रष्टाचार हो, अकर्मण्यता हो या उत्पीड़न, वास्तविक नहीं, केवल प्रतीति है। प्रवाह के साथ ही बहने में आनन्द है। टकराने की बला कौन मोल ले। तू भी खा मुझे भी खाने दे। यही गणतंत्र है।
जनतंत्र नही, गणों का तंत्र। गण या अनुशासनहीन उपद्रवी समूह। संसद को देख लें या विधान सभाओं को, सब जगह गणों की भरमार है। इनको संयत करने के लिए या तो सिर कटाने को तैयार गणेश की आवश्यकता होती है या हलाहल पीने को तैयार शिव की। पर सिर कौन कटाये? विष कौन पिये? सत्ता का मजा! जिसने जलवा तेरा देखा वह तेरा हो गया।
परिचारक से लेकर प्रधानमंत्री तक सब अपने अपने सत्ता सुख से चिपके हैं। शिक्षा भी कैसी? निगल और उगल। समझने की विश्लेषण करने की आवश्यकता नहीं है। गुरु मुख से सुन, याद कर और कापी में उगल दे। संशयात्मा विनश्यति। तात्पर्य जो अपने मन से लिखेगा, वह फेल।
इस सारी आपाधापी में बचपन कहीं खो गया है। वह आनन्द जो हमने अपने बचपन में लिया, माटी में खेले, मैमनों के पीछे भागे, चिड़ियों की तरह चहके, पेड़ों पर बन्दरों की तरह चढ़े, गाँव के पास बहती छोटी सी नदी में देर तक तैरने का आनन्द लिया। वह निश्चिन्तता आज के बच्चे को सुलभ नहीं है। आज लोग बच्चे को तीसरा वर्ष लगते ही दो किलो का बस्ता लाद कर स्कूल पहुँचा रहे हैं। जैसे किसी नये बछेरे पर जीन लाद दी गयी हो। बड़े शहरों के सम्पन्न परिवारों में तो माता के गर्भ धारण करते ही पैदा होने वाले बच्चे का प्रतिष्ठित विद्यालय में पंजीकरण कराने की प्रथा चल पड़ी है। क्या पता कल प्रसव भी स्कूल में ही कराने की प्रथा न चलने लगे।
(मेरी पुस्तक शब्द भाषा और विचार का एक निबंध)