इंद्रेश मैखुरी
सोशल मीडिया में लॉकडाउन का वक्त काटने के लिए लोग-आप मुझ को पहली बार कब मिले-को अभियान की तरह चलाये हुए हैं,तब एक लंबी,दुखद यात्रा से लौट कर मैं सोच रहा हूँ कि पुरुषोत्तम असनोड़ा जी को मैंने पहली बार कब जाना ! असनोड़ा जी को पहले जाना या गैरसैंण को?
दरअसल लंबे अरसे तक मेरे लिए गैरसैंण का मतलब पुरुषोत्तम असनोड़ा ही रहा. गैरसैंण जाने का मतलब पुरुषोत्तम असनोड़ा जी के पास जाना ही होता था. एक तरह से गैरसैंण और असनोड़ा जी पर्यायवाची की तरह थे. गैरसैंण बोलिए तो असनोड़ा जी का चेहरा सामने आएगा और असनोड़ा जी का नाम सोचिए तो गैरसैंण के बिना तस्वीर पूरी नहीं होगी.
वह छोटे शारीरिक कद का दुबला-पतला व्यक्ति उस छोटे कस्बे का उतना ही बड़ा प्रतीक बना,जितनी बड़ी जगह उस कस्बे की उत्तरखंडी जन मानस में है और रोचक यह कि वह व्यक्ति सत्तर के दशक में ही उस कस्बे में आया था. कोई व्यक्ति और जगह कैसे आपस में हिल-मिल जाते हैं,असनोड़ा जी इस बात के उदाहरण थे.
29 नवंबर 1955 को अल्मोड़ा जिले के रानीखेत ब्लॉक के फयाटनौला गाँव में जन्में पुरुषोत्तम असनोड़ा, मासी में व्यवसाय करने के बाद सत्तर के दशक में गैरसैंण आते हैं. गैरसैंण आ कर वे फकत व्यवसायी ही नहीं रहते बल्कि पत्रकार,एक्टिविस्ट भी हो जाते हैं. नशा नहीं रोजगार दो,चिपको,उत्तराखंड आदि आंदोलनों में वे सक्रीय भूमिका निभाते हैं. उनकी किताबों और पत्र-पत्रिकाओं से अटी हुई दुकान आंदोलनकारियों और सामाजिक सरोकार वाले लोगों का अनिवार्य पड़ाव थी और उनका घर गैरसैंण में आश्रय और भोजन मिलने की गारंटी. किराया न हो तो किराये की व्यवस्था भी हो जाती थी और यह वे ऐसे करते थे गोया आगत ने उन पर बड़ी कृपा की हो.
बड़ा कोमल और मयाळू यानि स्नेहिल किस्म का व्यक्तित्व था उनका. बड़े प्यारे से सामने वाले से बतियाते,उसको हमेशा अत्याधिक तरजीह देते लेकिन अपनी बात भी कहते. पत्रकारिता में भी वे दृढ़ता से अपने उसूलों पर टिके रहे. पत्रकार और पत्रकारिता निरंतर उनके चिंतन के केंद्र में बने रहे.पर्वतीय पत्रकार एसोसिएशन उन्होंने बनाया और उसके माध्यम से छोटे कस्बों के पत्रकारों के हितों के सवाल वे निरंतर उठाते रहे. पहाड़ में पत्रकारों की मान्यता के लिए अलग नीति की मांग उन्होंने लगातार उठाई. मीडिया संस्थानों के अंदर पत्रकारों के शोषण का सवाल वे बार-बार उठाते रहे. एक फेसबुक पोस्ट में वर्तमान में अखबारों की नीति के बारे में उन्होंने लिखा कि जिला,तहसील,कस्बे के पत्रकारों से तो दस रुपये के स्टांप पर यह लिखवा लिया जा रहा है कि वह पत्रकार नहीं बल्कि शौकिया खबरें भेज रहा है. उन्होंने लिखा कि पत्रकारिता की नयी पीढ़ी,इस “आदमखोर मीडिया” के हवाले हो गई है,जिसके लिए मुनाफा ही सब कुछ है.
अमर उजाला से करीब 40 बरस तक वे जुड़े रहे. लेकिन वहाँ रहते हुए,उन्होंने अखबार के तौर-तरीके पर खुला कटाक्ष किया. 2015 में उनके ऐसे ही लिखे हुए ने अमर उजाला और उनके रास्ते अलग-अलग कर दिये. अमर उजाला के संपादक रहे अतुल माहेश्वरी की चौथी पुण्यतिथि पर उन्हें याद करते हुए 03 जनवरी 2015 को उन्होंने अखबार के तौर-तरीकों पर तीखा हमला बोला. और साफ़गोई इतनी है कि अतुल माहेश्वरी की भरपूर तारीफ के बावजूद यह भी लिख दिया कि शोषण की शुरुआत उन्हीं के समय हो गयी थी और अब संस्थान सिर्फ शोषण क्षेत्र रह गया है. अमर उजाला के वर्तमान प्रबंधन,संपादक,प्रसार आदि के तौर-तरीकों पर असनोड़ा जी ने लिखा कि उनमें से कोई भी “किसी भी कुर्सी का भार हो सकता है.”बेचारे प्रबंधन और संपादक की स्थिति “काटो तो खून नहीं” वाली हो गयी.तत्कालीन संपादक विजय त्रिपाठी इतना ही कर सके कि उन्होंने अमर उजाला का गैरसैंण हैड बंद कर दिया और वहाँ की खबरें कर्णप्रयाग हैड से जाने लगी. “कुर्सी का भार”करार दिये जाने के बावजूद असनोड़ा जी से कुछ कहने या सवाल-जवाब का साहस न हुआ. लेकिन गैरसैंण हैड बंद किए जाने को असनोड़ा जी ने अपना अपमान समझा और तत्काल ही अमर उजाला के साथ चार दशक लंबे अपने सफर के अंत का ऐलान कर दिया. काश,बड़े नामधारी पत्रकार भी ऐसा साहस दिखा पाते तो असनोड़ा जी के ही शब्दों में कहें तो मीडिया इस कदर आदमखोर न हुआ होता.
असनोड़ा जी लोकतांत्रिक और जनपक्षधर व्यक्ति थे,जो वामपंथ के भी समर्थक थे.उत्तराखंड और देश में भाजपा-काँग्रेस के इतर तीसरी शक्तियाँ मजबूत हों,यह उनकी सतत आकांक्षा थी. चुनाव अभियानों में जब भी मैं गैरसैंण गया तो बहुत सारे इंतज़ामों के अतिरिक्त हमेशा ही चुपचाप जेब में वे कुछ धनराशि डाल दिया करते थे,जो अगले कुछ दिनों तक हमारी गाड़ी चला देती थी.
वे धार्मिक व्यक्ति थे,लेकिन धार्मिक कट्टरता से दूर देश की गंगा-जमुनी तहजीब के पैरोकार थे. व्यक्ति जो भी होता है,अपने समाज का अच्छा-बुरा अक्स उसमें होता है.
सामाजिक बदलाव के रास्ते पर चलने वालों के सामने पग-पग पर तमाम रूढ़ियों को तोड़ने की चुनौती होती है. समाज की रूढ़ियों की जकड़न से व्यक्ति जितना मुक्त होना चाहे पर रूढ़ियाँ उसे जकड़ने का कोई अवसर नहीं छोड़ती.
व्यक्ति के दुनिया से रुखसत होने के साथ होना तो यही चाहिए कि तमाम जकड़ने दुनिया से विदा हो जाएँ और उसका अच्छापन,उसका भलापन यहीं कायम रह जाये,वह चिरस्थायी हो ! असनोड़ा जी की कोमलता,उनकी स्नेहिलता,उनका भलापन और वक्त-जरूरत पर मददगार के रूप में खड़े होने का उनका जज्बा,हम सबके साथ रहे,हम सब में समाहित हो जाये. उनकी यही याद हम सब के भीतर बनी रही. अलविदा असनोड़ा जी
श्रद्धांजलि, अंतिम प्रणाम !