गोविंद पंत ‘राजू‘
असनोड़ा जी का निधन कोरोना के इस भयावह दौर में हमारे लिए सबसे बड़ी स्तब्धकारी घटना है। हम सभी जो उनसे प्यार करते थे , जो उनसे प्रेरणा लेते थे , जो उनसे सहयोग लेते थे और जो सचमुच उनसे आत्मीयता रखते थे वे सभी असनोड़ा जी के निधन के बाद सकते की सी स्थिति में हैं। बारह अप्रैल की सुबह उनको ह्रदयाघात हुआ था। गैरसैण के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में प्रारंभिक उपचार के बाद उनको बेहतर और जरुरी इलाज के लिए तत्काल अन्यत्र ले जाए जाने की आवश्यकता थी. अनेक मित्रों के प्रयासों और नैनीताल के सांसद अजय भट्ट की कोशिशों के बाद मुख्यमंत्री की सहमति से राज्य सरकार के हैली कॉप्टर से उनको ऋषिकेश एम्स तक समय पर पहुँचाया जा सका था। वहाँ पर शुरूआती जाँच के बाद पाया गया कि समय पर अस्पताल पहुँच जाने से अब वे खतरे से बाहर हैं..हम सबने राहत की साँस ली, फिर वे धीरे धीरे ठीक भी होने लगे थे। बुधवार को दिन में कुछ मित्रों की उनसे बात भी हुई थी. सब कुछ सही हो रहा था लेकिन शाम करीब चार बजे एक और दिल के दौरे ने सब ख़त्म कर दिया।
असनोड़ा जी करीब चालीस वर्ष से ज्यादा समय से उत्तराखंड की पत्रकारिता में सक्रिय थे. उन्होंने गैरसैण को अपना आधार बनाया था और यह कहना जरा भी अतिशयोक्ति नहीं होगा कि गैरसैण से जुड़े किसी भी सवाल और गैरसैण से जुड़े उत्तराखंड के हर एक आंदोलन का वह किसी न किसी रूप में एक अनिवार्य हिस्सा जरूर होते थे। उन्होंने ग्रामीण पत्रकारिता को भी बहुत मजबूती दी और पहाड़ों के जमीनी सवालों को उठाने में भी हमेशा आगे रहे। अमर उजाला को उत्तराखंड में स्थापित करने में भी उनकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका थी हालाँकि बरसों तक उनसे सब कुछ निकाल लेने के बाद अमर उजाला ने बड़ी बेरहमी के साथ उनसे किनारा कर लिया। जिन कटुता पूर्ण स्थितियों में यह अलगाव हुआ था उसने उनको बहुत गहरा आघात दिया था लेकिन असनोड़ा जी ने इन परिस्थितियों पर बहुत जल्दी विजय हासिल कर ली थी और इसके बाद वे ज्यादा सक्रिय होकर कलम चलाने लगे. उनका लिखा अनेक स्थानीय पत्र पत्रिकाओं से लेकर राष्ट्रीय कहे जाने वाले अखबारों और पत्रिकाओं में नियमित तौर पर छपता था और उसकी एक अलग विश्वसनीयता होती थी। गैरसैण जैसे शांत स्थान में उन्होंने एक खास तरह की वैचारिक हलचल पैदा की थी और गैरसैण को उत्तराखंड की असल पहचान बनाने में भी उनका अन्यतम योगदान रहा था। इस काम में वे एक पत्रकार के रूप में जितने सक्रिय रहे एक आंदोलनकारी और एक समर्पित सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी उनका योगदान उससे कम नहीं रहा था
अविभाजित उत्तरप्रदेश की मुलायम सिंह यादव सरकार द्वारा उत्तराखंड की राजधानी के चयन के लिए 1994 में बनी रामशंकर कौशिक समिति के सम्मुख गैरसैण का पक्ष मजबूती से रखने में भी उनकी बेहद महत्वपूर्ण भूमिका रही थी।राज्य बनने के बाद राजधानी चयन के लिए बनाये गए जस्टिस वीरेंद्र दीक्षित आयोग के सामने भी असनोड़ा जी अनेक दस्तावेज लेकर प्रस्तुत हुए थे। इसके साथ ही पत्रकारिता के जरिये भी वे राजधानी के रूप में गैरसैण की उपयोगिता और जरुरत पर निरंतर लिखते रहे। इतना ही नहीं देश विदेश के तमाम बड़े छोटे पत्रकारों तथा रेडियो और टीवी के चैनलों के लिए तो वे गैरसैण के इनसाइक्लोपीडिया जैसे थे। गैरसैंण आने वाले हर पत्रकार और आंदोलनकारी के लिए वे सर्वसुलभ संपर्क थे और उनका आवास सभी के स्वागत और आतिथ्य के लिए सर्वदा प्रस्तुत रहता था। उनके बिना गैरसैंण की कल्पना करना भी हमारे लिए असंभव हो रहा है। उनके निधन से इतना बड़ा शून्य पैदा हो गया है कि उसकी भरपाई मुश्किल लगती है।
पुरुषोत्तम असनोड़ा और गैरसैंण एक दूसरे के पर्याय थे। उत्तराखंड आंदोलन के विभिन्न चरणों में लगभग तीस वर्ष से भी अधिक समय तक वे निर्विकार भाव से पत्रकार, विचारक, प्रेरक और आंदोलनकारी कार्यकर्ता के रूप में अपना काम करते रहे, अपनी भूमिका निभाते रहे मगर उन्होंने कभी इसके प्रतिफल की चेष्टा नहीं की। यह उनके व्यक्तित्व का एक ऐसा पक्ष था जो उन्हें सबसे अलग बनाता था. वे जो कार्य भी करते थे प्रत्याशा में किंचित भी अपेक्षा नहीं रखते थे. उत्तराखंड आंदोलन के अलग अलग दौरों में 1989 में डा.डी डी पंत द्वारा पृथक पर्वतीय राज्य की राजधानी के रूप गैरसैंण का प्रस्ताव रखने और 1992 में यू के डी द्वारा गैरसैंण को उत्तराखंड की राजधानी बनाने की घोषणा, 1994 के लम्बे क्रमिक अनशन, सन 2000 के महिला मोर्चे के अनशन और ख़बरदार रैली से लेकर 2018 के आंदोलन तक हर एक कार्यक्रम में असनोड़ा जी हमेशा एक जिम्मेदार पत्रकार और एक सचेत आंदोलनकारी के रूप में मौजूद रहे थे।
वे उत्तराखंड के जमीनी मुद्दों पर हमेशा चिंतन करते थे और इसका प्रभाव उनके लेखन एवं विचारों में साफ़ दृष्टिगोचर होता है। खुद उन्होंने अपनी जड़ों को गैरसैण से अलग नहीं होने दिया और अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखते हुए गैरसैंण और बाहरी दुनिया के बीच एक धुरी भी बने रहे। कागज कलम से पत्रकारिता की शुरुआत करने वाली पीढ़ी से होते हुए भी उन्होंने खुद को कम्प्यूटर युग में आसानी से ढ़ाल लिया और डिजिटल माध्यमों के तो विशेषज्ञ ही बन चुके थे।
वे बेहद विनम्र व्यक्ति थे लेकिन पत्रकार के रूप में उनका साहस असाधारण था। कड़े और तीखे प्रश्न पूछने में उन्हें कभी कोई संकोच नहीं होता था और अपनी बात वे बहुत स्पष्टता से रखते थे हालाँकि खुद को वक्ता के रूप में प्रस्तुत किये जाने पर उन्हें बहुत संकोच होता था. लेकिन जब भी उनसे किसी गंभीर मुद्दे पर बात होती थी तो उनको सुनना अत्यंत सुखद अनुभव होता था। जिस किसी को भी उनके घर पर रुकने का अवसर मिला है वे जानते हैं कि किस तरह उनका घर किसी आश्रम की सी अनुभूति देता था। पढ़ने को किताबों का जखीरा, कई तरह के फलों के वृक्ष, साग पात के बाड़े, तरह तरह के फूल और घर की धिनाली। और इन सबसे बढ़कर ममतामयी गृहस्वामिनी लीला भाभी। एक पत्रकार और विचारक के रूप में वे जितने खरे थे उतने ही सह्रदय और जिम्मेदार वे पारिवारिक और सामाजिक संदर्भों में भी दिखाई देते थे. अपने परिजनों, रिश्तेदारों और परिवार की अगली पीढ़ियों के साथ उनके संबन्ध अत्यंत आत्मीयता से भरे होते थे और इधर कुछ वर्षों से जब से उन्होंने जाड़ों में देशाटन के लिए जाना शुरू किया था तो वे अपने प्रवासी बंधू बांधवों से भी खूब मिलते रहते और फेसबुक या वाट्सअप में उसका उत्साह पूर्वक उल्लेख भी अवश्य करते थे। बेटी गंगा ने जब पत्रकारिता शुरू की थी तो उसकी उपलब्धियों से वे बहुत प्रमुदित रहते थे और मित्रों से बातचीत में उसका जिक्र जरूर करते थे। शायद वे उसमें अपनी पत्रकारिता का विस्तार देखते थे और गंगा ने भी निजी जिंदगी के बड़े बड़े अपूर्णीय आघातों को झेलते हुए आज भी असनोड़ा जी की आकांक्षाओं को चमकदार बनाये रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. उत्तराखंड की यह बहादुर बेटी एक ही दिन में अपने पति और ससुर को खोने के बाद आज एक बार फिर सास के जीवन मृत्यु के संघर्ष के बीच अपने पिता और संरक्षक को अंतिम विदाई दे रही है। शायद असनोड़ा जी की परवरिश ने ही उसके भीतर इतनी अदम्य जिजीविषा भर दी है।
उत्तराखंड के आंदोलनों से कालेज के दिनों से ही उनका नाता जुड़ गया था। चिपको आंदोलन और वनान्दोलन से भी वे जुड़े रहे और नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन आंदोलन में तो वे बहुत ही सक्रिय रहे थे। उत्तराखंड के आंचलिक पत्रकारों को संगठित करने के उद्देश्य से एक संगठन बनाने में भी उनकी मुख्य भूमिका थी, जिसका पहला बड़ा सम्मेलन उन्होंने गैरसैण में ही आयोजित करवाया था। उमेश डोभाल स्मृति ट्रस्ट से भी वे गहराई से जुड़े रहते थे और ट्रस्ट की और से पत्रकारिता पुरस्कारों के पात्रों के चयन में भी उनकी बड़ी भूमिका होती थी। ट्रस्ट के वार्षिक समारोहों में भाग लेने के लिए वे मौका निकलने की हरसंभव कोशिश करते थे और गैरसैंण में ट्रस्ट का समारोह आयोजित करवाने में मुख्य भूमिका उन्ही की थी।
वे एक सवेदनशील इंसान थे। व्यक्ति के रूप में जमीन से जितने जुड़े थे पत्रकार के रूप में भी उतने ही जनपक्षधर थे, साफगोई से अपनी बात कहते थे और अपनी जानकारियों एवं समझ से हर किसी को अपना बना लेते थे। अपने संपर्क में आने वाले हर व्यक्ति को प्रेरित कर देना उनका स्वाभाविक गुण था इसी लिए उनके व्यक्तित्व से प्रेरित होकर अनेक युवाओं ने उनका अनुशीलन करने की कोशिश भी की थी। युवाओं से उन्हें बहुत स्नेह था और अनेक मामलों में वे पुरानी और नई पीढ़ी के बीच सेतु की तरह भी थे।
उनके इस तरह अचानक बिछड़ जाने से समूचा उत्तराखंड गहरे सदमे में है। गैरसैंण में तो एक बड़ा शून्य पैदा हो ही गया है। कल के बाद भी गैरसैंण से लोगों का आना जाना बना रहेगा लेकिन अब हमको कभी वहां अपना मित्र, अपना साथी, अपना मार्गदर्शक और वो सच्चा इंसान नहीं मिल पायेगा। गैरसैण और बाहरी दुनिया के बीच का एक बड़ा सम्पर्क अब हमेशा के लिए खत्म हो गया है। तुम बहुत याद आओगे असनोड़ा जी !!!
हे सखा! तुम असमय कहाँ चले गए!
रमेश पहाड़ी
पहाड़ में जनसरोकारों की पत्रकारिता हो या कोई आंदोलन, उसमें सशरीर अथवा वैचारिक रूप से सदैव उपस्थित रहने वाले हमारे परम सखा पुरुषोत्तम असनोड़ा असमय ही हमसे विदा हो गए। 4 दिन पहले बड़े सबेरे खबर मिली कि वे हॄदय की कमजोरी का अनुभव कर रहे हैं और गैरसैंण में एक क्लीनिक में हैं तथा जल्दी ही हेलीकॉप्टर से देहरादून लाये जा रहे हैं तो एक झटका सा लगा। अगले 2 दिनों में उनका समुचित उपचार होने के समाचारों से कुछ आशा जगी थी कि वे पूर्ण स्वस्थ होकर हनरे बीच आएंगे, पुनः सामाजिक संघर्षों से जुड़ेंगे लेकिन दैव को कुछ और ही मंजूर था। वे कल 15 मार्च 2020 को शाम लगभग 4 बजे ऋषिकेश स्थित एम्स से ही अनन्त यात्रा पर निकल गए। यह दुःखद समाचार जिसको भी मिला, वह सन्न रह गया।
असनोड़ा जी जीवन और सामाजिक संघर्षों के एक जीवंत प्रतीक रहे हैं। उनका गैरसैंण में होना इस बात का पुख्ता भरोसा था कि वहाँ किसी भी सामाजिक संघर्ष या उपक्रम को आगे बढ़ाने में कोई कठिनाई नहीं आने वाली। वे सब कुछ सम्भाल लेंगे, सब कुछ झेलते हुए भी। वे स्वयं एक संस्था जैसे थे, जहाँ प्रत्येक सामाजिक सरोकार वाले व्यक्ति अथवा संगठनों के लिए एक विश्वास से परिपूर्ण सम्भावना सदैव विद्यमान रही है। सामाजिक कार्यकर्ताओं का तो वह एक ऐसा ठौर रहा, जहाँ कभी भी, कोई भी अपना सिर छिपा सकता था। उनका घर, गृहणी, बच्चे, सब सामाजिक सरोकारों के लिए प्रतिबद्ध जैसे थे। अब गैरसैंण में सदाशयता, प्रेम और अपनत्व वाला, हल्की मुस्कराहट से अपना बना लेने वाला और हर समस्या के समाधान के लिए जूझने वाला वह चेहरा नहीं मिलेगा। क्योंकि अब भौतिक रूप से वहाँ पुरुषोत्तम असनोड़ा नहीं होगा। यह एक बड़ी सामाजिक क्षति है, जिसकी भरपाई शायद ही कभी हो।
अपने छोटे से व्यवसाय के साथ पत्रकारिता की सीख उन्होंने प्रख्यात स्वतन्त्रता सेनानी और अपर गढ़वाल में पत्रकारिता के अग्रदूत देवभूमि के सम्पादक रामप्रसाद बहुगुणा जी से प्राप्त की। उनके सामाजिक सेवा की प्रतिबद्धता के मंत्र को जीवन में उतारते हुए असनोड़ा जी ने फिर कभी न पीछे मुड़कर देखा और न बड़ी से बड़ी विपत्ति में कोई समझौता किया। अनेक झंझावातों से भी न डिगते हुए उन्होंने पत्रकारिता को सामाजिक सशक्तता के एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में प्रयुक्त किया। इसके माध्यम से उन्होंने अनेक सामाजिक आंदोलनों में भागीदारी की। नशा नहीं, रोजगार दो, उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन, वन आंदोलन, गैरसैंण स्थायी राजधानी आंदोलन, पत्रकार संघर्ष समिति, उत्तराखण्ड लोक वाहिनी सहित सामाजिक उत्कर्ष के लिए किये जाने वाला शायद ही ऐसा कोई आंदोलन या विषय हो, जिसमें उनकी भागीदारी न हो। रामप्रसाद बहुगुणा जी के देहावसान के बाद उनकी स्मृति को जीवंत रखने के लिए हम लोगों ने मिल कर रामप्रसाद बहुगुणा स्मृति समिति बनाई थी। उसमें नियमित सक्रिय और उत्साहपूर्ण भागीदार के अलावा असनोड़ा जी के नेतृत्व में पर्वतीय पत्रकार परिषद ने उत्तराखंड सरकार से उनकी स्मृति में राज्यस्तरीय पुरस्कार आरम्भ करने का महत्वपूर्ण कार्य करवाया। इसके अन्तर्गत सरकार ने प्रति वर्ष हिंदी पत्रकारिता दिवस (30 मई) को उत्तराखण्ड के 3 पत्रकारों को सम्मानित करने का निर्णय लिया है।
मेरे प्रति उनके प्रेम का तो वर्णन शब्दों में नहीं हो सकता। अनिकेत के प्रसार, समाचार प्रेषण व पोषण में उनकी निरन्तर भागीदारी रही। 1987 में जब अनिकेत के दैनिक प्रकाशन का निर्णय हुआ तो उसमें उनकी आर्थिक एवं नैतिक सहायता भी महत्वपूर्ण रही।
एक मित्र और अनुज के विछोह की इस त्रासदी को क्या कहा जाय कि इस समय उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होने की स्थिति भी नहीं बन पा रही है। विकट वैश्विक महामारी- कोरोना वायरस जनित महामारी ‘कोविड-19’ के संक्रमण को रोकने के लिए देश में लागू सुरक्षात्मक बन्दी के चलते अपनी संवेदना व्यक्त करने उनके घर, परिवार में भी नहीं जा सकते, परिजनों के साथ मिलकर दुःख भी नहीं बाँट सकते।
हे प्रिय सखा! तुम असमय अनन्त यात्रा पर चले गए। तुम्हारे सेवा-कार्य निश्चय ही तुम्हें सद्गति प्रदान करेंगे और समाज को प्रेरणा देंगे। तुम्हारी आत्मा को शांति प्राप्त हो, यही भावना और कामना है। हार्दिक श्रद्धांजलि।