उमेश तिवारी ‘विश्वास’
वो हमेशा जल्दी में रहता था। दुबला शरीर, तेज़ क़दम चलने की आदत, मिलते ही चेहरे पर बिखरती स्मित। मेरे ज़ेहन में क़ैद अनिल पंत की यह छवि 1970 के दौर के नैनीताल की है।
अपने अधिकांश समकालीन मित्रों के लिए डॉ अनिल पंत का असमय जाना, पंत नगर विश्वविद्यालय से सेवा निवृत्त केमिस्ट्री के प्रोफेसर के रूप में कम, नैनीताल के एक रंगकर्मी के रूप में बिछुड़ना अधिक है।
हमारे रंगकर्मी मित्र डी के शर्मा जिनके मकान में कुछ समय अनिल किरायेदार के तौर पर रहे उन्हें एक होशियार विद्यार्थी के रूप में याद करते हैं। विज्ञान का यह विद्यार्थी नाटक की रिहर्सल में समय पर पहुँच अनुशासन का बेंचमार्क बनाना चाहता था। मुझे अनिल पंत को काम करते देखने का बहुत अवसर नहीं मिला पर अनिल के निर्देशन में ‘एकायन’ द्वारा मंचित एक और द्रोणाचार्य और सृष्टि का आखिरी आदमी की रिहर्सल मल्लीताल रिक्शा स्टैंड के पास सनवाल स्कूल के कमरे में होती, जहाँ गाहे-बगाहे जाना होता था। राकेश दुआ जिन्होंने इन नाटकों में भूमिकाएं निभाई अनिल को एक प्रतिभाशाली निर्देशक के रूप में याद करते हुए कहते हैं कि अनिल रिहर्सल के बीच ही अचानक नया बिम्ब खड़ा कर देता था जिससे नाटक के कई आयाम साफ़ हो जाते।
नैनीताल शहर के रंगकर्म का लेखा-जोखा लगभग 1889 के आसपास से मिलता है।बंगाली एमेच्योर ड्रामेटिक क्लब से लेकर कई नाट्य मंचों और रामलीला मंच से गुज़रती रंगकर्म की यात्रा ’70 के दशक तक पहुँची। नैनीताल के नाट्य परिदृश्य में 73-74 के दौरान ‘तराना’ थिएटर ग्रुप का गठन एक उल्लेखनीय घटना थी। ‘तराना’ के पास नैनीताल के रंगकर्म की विरासत थी। तभी नैनीताल के कुछ युवा जिनमें अनिल पंत भी शामिल थे ‘तराना’ से जुड़ गए। राकेश दुआ, मुक्ता साह, डीके सनवाल, तुषार कांत तिवारी, प्रताप रावत, प्रमोद पाठक, हसन रज़ा, दीप पंत, असरार शम्सी, हेमलता तिवारी, कल्पना त्रिपाठी, रागिनी मेहरोत्रा, पूनम जोशी, सुनीता साह और विनय कक्कड़ ‘तराना’ ग्रुप के सदस्य थे जो समकालीन रंगकर्मी रहे।
‘तराना’ की कुछ प्रमुख नाट्य प्रस्तुतियां क्रांति के चित्र (1974), ग़ुलाम बेगम बादशाह (1975), नदी नाव और मुसाफ़िर, एवम इंद्रजीत (1976), रस गंधर्व (1977), एक और द्रोणाचार्य (1978) इन रंगकर्मियों के नाम दर्ज़ हैं। अनिल पंत के बहाने आज समकालीन रंगकर्म को याद करना समीचीन होगा।
इन्हीं रंगकर्मियों ने इस दौर में ‘एकायन’ की स्थापना की जिसके मंच से अनिल पंत प्रतिभावान निर्देशक के रूप में उभर कर सामने आए। एकायन के बैनर में ही एक और द्रोणाचार्य, सृष्टि का आख़िरी आदमी, क़िस्सा ए तोता मैना, शम्बूक की हत्या और दाज्यू का मंचन किया गया।
1976 में स्थापित नाट्य संस्था युगमंच से जुड़कर 1980 दशक के मध्य अनिल पंत ने दो महत्वपूर्ण नाटकों भीष्म साहनी के कबिरा खड़ा बाजार में और सोफोक्लीज के अज़ीम शाहकार इडिपस का भी निर्देशन किया जिसने युवा रंगकर्मियों को नाट्यकर्म के प्रति नई दृष्टि प्रदान की।
नैनीताल के सभी रंगकर्मी और अकैडमिशियन अनिल के असामयिक निधन से दुखी हैं। हम सभी उनके शोक संतप्त परिजनों के प्रति संवेदना प्रेषित करते हैं। परमपिता उनको यह दारुण दुख सहने की शक्ति प्रदान करे। …शो मस्ट गो ऑन।
2 Comments
Suwarn Rawat
I witnessed Anil Pant’s production -Bhishm Sahini’s Kabira Khada Bazaar Mein & I was part of Sophocles’s Oedipus Rex as an actor.
He successfully directed both the plays.
navin dutt bagouli
अनिल दा अद्भुत था, 2019 में होली के दिन मिलना हुआ था भाष्कर उप्रेती जी के साथ, वहीं पुराना अंदाज। कभी एक जगह नहीं ठहर सकने वाला भाई। श्रद्धांजलि