रिया (11वीं)
नानकमत्ता पब्लिक स्कूल
जैसे ही नज़र घुमाई सामने घना जंगल था। कई सागवान और लिप्टिस के पेड़ों के बीच से होकर गुज़रती सड़क ने हमारी हिदायत की। जंगल पहुँचने पर ठंडी हवा के झोंकों, सूरजदादा की पेड़ों से छनकर आ रही रौशनी और कुदरत की शांति के अहसास ने नज़रों को खिड़की से बाहर झाँकने का इशारा किया। दिली अहसास और नज़रों की इशारों वाली बातें कई मर्तबा मुझे करीबी दुनिया से कहीं दूर ख़्यालों की दुनिया में ले जातीं।
सभी का उत्साह देखते ही बनता था। उस रोज़ हम जा रहे थे राष्ट्रीय धरोहर जिम कॉर्बेट नैशनल पार्क। देखते ही देखते स्कूल में सुबह 6.20 बजे तक सभी साथी आ पहुँचे। नानकमत्ता अभी भी सूरजदादा से मुँह फेरे हुए था। अभी दादा की रौशनी हमारे शहर की घास में गिरी ओस की बूंदों पर नहीं पड़ रही थी। बूंदें इंतज़ार में थी किरणों के। चमचमाने के लिए! उस अंधेरी सुबह में कुछ अलग बात थी। 150 जगमगाते चेहरों के सामने अंधेरा फीका पड़ गया।
समय था बसों में बैठने का। 150 चेहरे 3 बसों में बँट गए। बस चल पड़ी। भले ही सबकी ज़ुबाँ से न निकला हो, लेकिन मन में ज़रूर चल रहा था – “सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं…” दूर फ़लक से सूरजदादा उतरने लगे। वे भी हमारे सफ़र में हमराही बन चले। किसी के हाथों में किताबें थी, किसी की ज़ुबाँ पर बातें तो किसी की नज़रें खिड़की से बाहर। हँसी-ठिठोली भी ज़ारी थी। यूँ ही सड़क के साथ चलते-चलते हम पहुँचे पेड़-पौधों की दुनिया में। जंगल में।
आसमाँ पर लटके सूरजदादा पूरी जद्दोजहद कर रहे थे झाँकने की। पेड़ों को यह मंजूर कहाँ! इस जंगल से होकर गुज़रती है नंदौर नदी, जो अपना पानी नानकमत्ता के नानकसागर डैम को भी देती है। इस संसार को देखकर मैं पुलकित थी। नदी में पानी कम था। स्थिर और शांत था। लग रहा था मानो ये पानी छलाके मारते हुए मेरी ओर आ रहा हो। मैं भीतर तक भीग चुकी थी पानी से। कुदरत की कलाकारी से! चोरगलिया के इस जंगल ने भी हमारा खूब साथ दिया सफ़र में। मानव बस्ती शुरु होते ही हमने जंगल से अलविदा कहा।
जिस प्रकार समाज समाजशास्त्रीय लैब है, ठीक वैसे ही हमारी कुदरत विज्ञान, भूगोल आदि की प्रैक्टिकल लैबोरेटरी है। क्लासरूम में पढ़े कॉन्सेप्ट को कुदरत में खोजा जा सकता है। सफ़र के दौरान कई नदियों से सामना हुआ। पूरे पैटर्न को देखते हुए समझ आया कि किस तरह एक नदी अपने आसपास के इलाके से पानी की निकासी करती है और उसे प्रभावित करती है। कुछ समय पहले जियोग्राफ़ी में पढ़े नदियों और भौतिक विशेषताओं वाले पाठ को मैं अलग-अलग नज़ारों से जोड़ पा रही थी।
हम रामनगर पार कर चुके थे। बस इंतज़ार था जिम कॉर्बेट पार्क के टाइगर रिज़र्व, ढेला पहुँचने का। हमारा इंतज़ार ख़त्म हुआ। बस रुकी। स्कूल ड्रैस में कुछ साथी दिखे। कदम बढ़ाया तो सामने नवेंदु मठपाल सर, राजेश भट्ट सर, दीक्षा दीदी और कुछ अन्य लोग खड़े थे। सभी साथी लाइन बनाकर खड़े हो गए। पेड़ पौधों से घिरी उस जगह पर रहने वाले जीवों के लिए हम नए थे। कुछ चिड़ियाएं हमपर दूर से नज़र रखे हुए थीं।
नवेंदु सर के सहयोग से ही हमारा रामनगर जाना मुमकिन हो पाया। उन्होंने सभी से हमारा परिचय कराया। ‘उज्वाक दगड़ी’ टीम ने वीरेन डंगवाल जी और बल्ली सिंह चीमा जी के गीतों से दिन की शुरुआत की। इन गीतों ने दिन में चार चाँद लगा दिए। वक्त की नज़ाकत को समझते हुए हमें जल्द ही 5 टीमों में बाँट दिया गया। सभी टीमों में एक गाइड और कुछ टीचर मौजूद थे।
सभी ने कदम बढ़ाए। हमारी टीम के गाइड ने हमें रूफ़स ट्रीपाई बर्ड, ग्रेट स्लेटी वुडपैकर आदि के बारे में बताया। कुदरत की गोद में मैं ख़ुदको महफ़ूज़ पा रही थी। खूबसूरत रंग आँखों में बस गए। कुदरत के दिल के करीब जाकर मैं जीवन की धड़कन सुन पा रही थी। इन नज़ारों में खोई मैं खड़ी रही। अचानक से एक धक्का लगा। देखा तो पाया कि मेरी टीम आगे निकल चुकी है। मैंने भी दौड़ लगा दी। नवनिर्मित बटरफ्लाई गार्डन के पहले दर्शक हम बने। तितलियों के लिए ज़ायकेदार खाने का इंतज़ाम था। तरह-तरह के फूलों से सजा था गार्डन।
हम जंगल के अंदर बढ़ते जा रहे थे। हमारे जाने से वहाँ के जीव अपने ही घरों से दूर कहीं छिप गए थे। मैं जंगल में जीवों के सामाजिक जीवन को देख पा रही थी। इसका सबसे अच्छा उदाहरण दीमक का है। पूरे झुंड में रहने वाली दीमक की तामीर देखी। सीनियर गाइड राजेश सर ने दीमक की और अन्य कई कहानियाँ सुनाईं। कुछ कदम और चलने के बाद हम सभी ने तेंदू के पेड़ के नीचे आसरा लिया। ‘उज्वाक दगड़ी’ टीम से दो गीत और सुनने का मौका मिला। दोनों ही गीतों ने सोचने पर मजबूर कर दिया।
“कोई अपनी खुशी के लिए दूसरों की रोटी छीन ले, हम नहीं चाहते….” ये बोल मुझे ख़यालों की दुनिया में खींच ले गए। हमारे वर्गीय समाज में ऐसा ही तो होता है। सत्ताधारी और समाज में दबदबा रखने वाले लोग हमेशा ही अपने स्वार्थ के लिए कमज़ोर वर्ग का शोषण करते हैं। इस स्थिति पर कार्ल मार्क्स की कही बात सच लगने लगती है कि समाज में हमेशा संघर्ष की स्थिति बनी रहती है और समाज दो धड़ों में बंटा होता है। एक, जिसके पास संसाधन प्रचुरता में हैं। दूसरा, जिसके पास सामान्य ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भी नहीं। पहला धड़ा हमेशा दूसरे का शोषण करता है। संसाधन के लिए हमेशा संघर्ष चलता रहता है और इसी प्रकार समाज आगे बढ़ता है। सत्ताधारी कमज़ोर वर्ग की परेशानियों को नज़रअंदाज़ करते हुए इस व्यवस्था की हिमायत करते हैं।
कुछ समय बाद मेरे ख़्यालों का गुब्बारा फटा और चल पड़ी सभी के साथ। सभी ने एक जगह साथ बैठकर खाना खाया। जो साथी अपना लंचबॉक्स नहीं लाए थे वह भी भूखे नहीं रहे। सभी ने मिल बांटकर खाया। यह देखकर खाने का ज़ायका कई गुना बढ़ गया। नवेंदु सर ने अपने गुज्जर छात्रों के घर से हमारे लिए छाछ भी मंगाई थी। सभी ने उसका भी लुत्फ़ उठाया। अब हमारी अगली मंज़िल थी वाइल्डलाइफ़ फोटोग्राफ़र दीप रजवार जी की आर्ट गैलरी। हम सभी फिर से बस में बैठ गए वहां की ओर निकल पड़े। रास्ते में बड़े-बड़े कूड़े के ढेर देखकर मन में शिकन थी कि हम मनुष्य अपनी कुदरत को कुछ देने के बजाय उसे नुकसान ही पहुँचाए जा रहे हैं।
कुछ देर बाद हमारी बस रुकी। हम आर्ट गैलरी पहुँच चुके थे। थोड़े इंतज़ार के बाद हमें भी अंदर जाने का मौका मिला। जैसे ही अंदर कदम रखा लगा मानो किसी अलग ही दुनिया में आ पहुँची हूँ। मेरे सामने किसी की 10 सालों की मेहनत थी। सभी फोटोज़ में वो जुनून साफ़ झलक रहा था जो अपनी जान की परवाह किए बिना शौक को पूरा करने का होता है। मैं उस आर्ट गैलरी में मेहनत, जुनून और निरंतरता की गरमाहट महसूस कर पा रही थी। हर फोटो में एक कहानी की धड़कन थी। अपने आप में हज़ारों शब्द कह रही थी।
इतने में ही एक जाना-पहचाना चेहरा दिखा। होंठों पर मुस्कान आ गई। “ये तो सुरेश लाल सर हैं!” मेरे मुँह से अनायास ही निकल गया। कुछ देर बाद सर से ज़रा बात करने का मौका मिल गया। “जश्न ए बचपन” ग्रुप के ज़रिए सुरेश लाल सर से पहचान हुई थी। वे एक आर्टिस्ट हैं। उनके बनाए पोस्टर और पेंटिंग मुझे बहुत पसंद आती हैं। नवेंदु सर, सुरेश सर और दीप सर जिनसे आभासी दुनिया में ही मुलाकात होती रही उनसे आमने सामने मिलना अनोखा और सुखद अनुभव रहा।
अब लौटने का समय आ चुका था। यादगार लम्हों को हमने तस्वीरों में कैद कर लिया। हमने सर लोगों से रुख़सत ली और बस की ओर बढ़ चले। सभी थक चुके थे, लेकिन खुशी और सुकून थकान से कहीं ज़्यादा था। हमने सूरजदादा से भी विदा ली और अंधेरे का स्वागत किया। आज के इस अंधेरे में कोई उदासी नहीं थी। सभी मशगूल थे बातों और यादों में। आज के पूरे दिन का सफ़र मेरे दिमाग में चलचित्र की तरह घूम रहा था। लिहाज़ा, मेरी हसरत थी कि सभी लम्हों को अपने दिल के संदूक में संजो लूँ। ताकि जब मन हो एक-एक लम्हा निकालकर उसे फ़िरसे जी लिया जाए।