राजीव लोचन साह
इस साल संसद के बजट सत्र में बजट नहीं, बल्कि गौतम अडानी प्रकरण हावी रहा। 24 जनवरी को अमेरिका की शोध संस्था हिंडनबर्ग ने अपनी एक रिपोर्ट जारी की, जिसमें अडानी समूह के कामकाज में जबर्दस्त अनियमितता का उल्लेख करते हुए इसे सदी की सबसे बड़ी धोखाधड़ी बताया गया था। इसके बाद अडानी के शेयरों में इतनी गिरावट आयी कि वे तीन दिन के भीतर विश्व के सबसे धनी लोगों की सूची में तीसरे स्थान से लुढ़क कर बाइसवें स्थान पर पहुँच गये। शेयरों की इस उठा पटक में लाखों निवेशकों का करोड़ों रुपया डूब गया। जानकार लोगों को भारतीय जीवन बीमा निगम और भारतीय स्टेट बैंक की चिन्ता परेशान करने लगी, क्योंकि इन वित्तीय संस्थाओं ने भी अडानी के कारोबार में अरबों रुपया फँसा रखा है, जो धन वास्तव में भारत की जनता का है। इन संस्थाओं को चोट पहुँचने का मतलब है कि भारत की जनता को चोट लगना। इसीलिये संसद में निर्मला सीतारमन द्वारा बजट पेश करने के तत्काल बाद संसद में सम्पूर्ण विपक्ष एकजुट होकर इस प्रकरण की संयुक्त संसदीय समिति द्वारा अथवा सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में बनी एक समिति द्वारा जाँच किये जाने की माँग करने लगा। कई दिनों तक संसद की कार्रवाही ठप्प रही। मगर केन्द्र सरकार ऐसी कोई जाँच करवाने को कतई राजी नहीं हुई। अन्ततः राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस के लिये कुछ राजनैतिक दलों के सांसद सदन में वापस आ गये। 7 फरवरी को राहुल गांधी ने अडानी और प्रधानमंत्री के आपसी सम्बन्धों को लेकर लोकसभा में एक वक्तव्य दिया। उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री अपने पर लगे आरोपों का तार्किक जवाब देंगे। मगर प्रधानमंत्री ने न लोकसभा में और न ही राज्य सभा में इन आरोपों का जिक्र किया। अपने लच्छेदार भाषणों में वे अपनी उपलब्धियाँ गिनाते रहे अथवा विपक्षियों पर तंज कसते रहे। देश की जनता इस उलझन में फँसी रह गई कि अन्ततः सच्चाई क्या है। सच्चाई क्या है, यह सामने आना ही चाहिये, क्योंकि यह जनता का अधिकार है।