राजीव लोचन साह
2002 के साम्प्रदायिक दंगों के बाद हुए ध्रुवीकरण से भारतीय जनता पार्टी को गुजरात में जो चुनावी स्वीकार्यता मिली, वह आज तक बनी हुई है। 2010 के बाद इस ‘गुजरात मॉडल’ में संशोधन करते हुए नरेन्द्र मोदी ने इसमें ‘वाइब्रेंट गुजरात’ का तड़का लगाया, जिसमें कॉरपोरेट हितों को सर्वोच्च रखा गया था। इस मॉडल का तात्कालिक और सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि कॉरपोरेट मीडिया पूरी तरह से भाजपा का गुलाम हो गया और वर्ष 2014 में नरेन्द्र मोदी देश की केन्द्रीय सत्ता पर विराजमान हो गये। इस प्रयोग से उत्साहित होकर भाजपा ने इसे पूरे देश में लागू कर दिया। एक ओर कॉरपोरेट लूट बहुत बढ़ गयी तो दूसरी ओर समाज में धर्म के आधार पर विभाजन करने की कोशिशें भी बहुत तेज हो गयीं। इसके स्वाभाविक परिणाम के रूप में एक ओर महंगाई और बेरोजगारी बढ़ी तो दूसरी ओर समाज में परस्पर वैमनस्य फैला, साम्प्रदायिक दंगे होने लगे और कई जगह निरपराध मुसलमानों को गौ तस्कर बता कर उनकी हत्यायें हुईं। अब तक ‘गोदी’ हो चुके कॉरपोरेट मीडिया ने सच्चाई सामने न आने देने के लिये आम जनता को गुमराह किये रखा। यह प्रयोग उत्तराखंड में भी लगातार चल रहा है। भाजपा, आर.एस.एस. और उनके आनुषंगिक संगठनों ने पिछले नौ सालों में सुनियोजित रूप से जनता के दिमाग में जो जहर बोया है, वह अब सफलतापूर्वक अपना असर दिखा रहा है। पिछले दिनों पुरोला और समस्त यमुना घाटी के साथ हल्द्वानी के कमलवागांजा तक में जो घटनायें हुई हैं, उसके पीछे यह जहर और इसे प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा दिया गया नैतिक समर्थन ही है। चूँकि पहाड़ के शान्त समाज में हिंसा उस रूप में नहीं पनप सकती, अतः यह उन्माद अल्पसंख्यकों की दुकानों के शटर तोड़ने तक ही सीमित रह गया। छोटे दुकानदारों की इन घटनाओं में भारी उपस्थिति यह सिद्ध करती है कि ऑनलाईन रिटेल व्यापार से हो रही उनकी बदहाली को भी शातिर तरीके से मुसलमानों की ओर मोड़ दिया गया है।