रमदा
“रमदा ” का यह आलेख सितम्बर 2018 में ‘ नैनीताल समाचार ‘ में प्रकाशित हो चुका है। यह आलेख आज के समय में भी उतना ही प्रासंगिक है इसलिये इसे वैब साइट में फिर से प्रकाशित किया जा रहा हैं।
सम्पादक
उनका घर में वर्षों पुराना आना-जाना है. जब तक इजा थी उनकी गप-शप, “काथ-क्वीड़/सौल-कठौल”, उसी के साथ ज्यादातर होती थी. आते-जाते, नमस्कार-पुरस्कार के साथ थोड़ी औपचारिक सी बात-चीत के अलावा मुझे न तो अपनी रूचि का वहाँ कुछ लगता था न ही इतना समय था. इजा की लम्बी चली बीमारी के दौरान वह नियमित रूप से उसका हाल-चाल जानने आते रहते थे, थोड़ी बहुत बातचीत का सिलसिला तब मेरे साथ शुरू होने लगा था. अब इजा रही नहीं मगर वह आते –जाते रहते हैं, मुझे साथ में बैठना पड़ता है. बात–चीत में भी संलग्नता का, कम से कम, दिखावा तो करना ही पड़ता है. वह नए ज़माने के हिसाब से शिक्षित नहीं ही हैं, जब तक ताक़त थी भैसें पालने, खरीदने-बेचने और दूध का कार–बार करते रहे, फिर भाबर में ही सैटल हो गए. बच्चे खाने-कमाने लायक हो गए, एकाध फ़ौज में है, बेटियां ब्याह दी, ऐसा कुछ नहीं है जिसे न कर पाने का अफ़सोस हो. खुद से संतुष्ट हैं. जिन्दगी की पाठशाला से बहुत कुछ सीखा-पढ़ा है. अब मुझे उनको सुनना अच्छा लगने लगा है. पहाड़-गाँव भले ही न जा पाते हों पर खबर पूरी रखते हैं. इधर उनको सुनते लगने लगा है कि उनके पास ऐसा बहुत कुछ है जिसे ध्यान से सुनना-‘गुणना’ बहुत ज़रूरी है.
पहाड़ के गाँवों में खेती के खतम होते जाने के कारणों – पलायन, बंदरों-सुअरों द्वारा किये जाने वाले नुकसान आदि में वह एक नया जोड़ते हैं. सरकार द्वारा गरीबी की रेखा से नीचे के कार्ड धारकों को निहायत कम कीमत पर अनाज उपलब्ध कराये जाने की व्यवस्था. पहाड़ की खेती में बहुत कड़ी मेहनत के बाद ही कुछ हाथ लगता है, ऊपर से बंदर-सुअर. वह बताते हैं, अब जब उससे कहीं ज्यादा बिना हाथ हिलाए ही मिल जाता हो तो हाड़ हिला देने वाली मेहनत का क्या मतलब. मैं दबे स्वर से अपनी असहमति दर्ज करता हूँ तो वह कहते हैं, “मास्साब! आपको नहीं पता ग्राम प्रधान, जो राशन की दुकान भी चलाता है, की मेहरबानी से तक़रीबन पूरे गाँव के पास गरीबी की रेखा के नीचे वाले कार्ड हैं, परिवार के सारे लोग घर पर नहीं हैं तो क्या राशन-कार्ड में उनके नाम तो हैं, गुजारे के लिए काफी राशन मिल जाता है. ऐसे में खेती को तो खतम ही होना है. आप नहीं मानते तो मत मानो, आप तो मुझे ये बताओ ये गरीबी की रेखा कहाँ और कैसी होती है?”
वह विकास को बिकास कहते हैं (बाज़ार-शक्तियों से संचालित आज के सरकारी विकास को नियंत्रित या सम्यक विकास से अलग करने की अपनी कोशिश में मैंने भी सरकारी विकास को “बिकास” कहना शुरू कर दिया है). अभी उस दिन मैं अनमना सा उनकी बात सुन रहा था, एकाएक कहने लगे आजकल हमारे गाँवों में आकाश और बिकास की लड़ाई चल रही है. मैंने चौंक कर उनकी तरफ देखा तो बोले – “बिकास के चक्कर में सड़क के लिए तमाम पेड़ कटे, सड़क के लिए विस्फोट हुए जो उधरा उसे नीचे की ओर खिसका दिया. उपर सडक किनारे हैंड पंप तो लग गए पर नीचे नौलों-धारों में पानी रहा नहीं. बिकास के लिए पानी का टैंक मंज़ूर हुआ तो पधान जी के घर पर बड़ा सा टैंक बन गया, दूर से पाइप लाइन से पानी भी आ गया, टैंक भरने भी लगा, कुछ लोगों ने अपने घर तक पाइप भी लगा लिए. आराम हो गया, पानी मुंह पर आ गया ठहरा. पर आकाश को मंज़ूर नहीं हुआ साब! दो साल में वह सोता ही सूख गया जहां से पानी आ रहा था. अब फिर वही पानी-पानी. आदमी कहता है मैं बिकास करूंगा आकाश कहता है मैं भी देखूंगा”.
चाय वह पीते नहीं, एक घुटुक नींबू-पानी पीकर वह चले गए. मगर “आकाश और बिकास की लड़ाई” वाली उनकी बात आजकल मुझे हैरान किये हुए है.
आकाश बरस रहा है. केरल के भयावह हालातों से आप वाकिफ़ हैं, कसर बाकी देश में भी नहीं है. जिलाधिकारी, मौसम विभाग प्रायः रोज रेड-अलर्ट जारी कर रहे हैं. बारिश सड़कें ध्वस्त कर रही है, भूस्खलन हो रहे हैं, गाँव-गाँव शहर–शहर गली-मुहल्लों-घरों में पानी भर रहा है. बादल ठीक वहीं फट रहे हैं जहां निचले इलाकों में लोग नदियों-नालों के किनारे बसे हैं. बारिश का कहर जारी है, घर,स्कूल ढह रहे हैं. जन-जीवन अस्त-व्यस्त. मीडिया रोज दिखा-बता रहा है, तमाम नेता लोग आकाश से तबाही का मंज़र देख कर कष्ट में हैं. ये किस तरह की बारिश है या किस तरह से अब होने लगी है, पहले क्या अलग तरह से, कम-कम होती थी, अब क्या ज्यादा तेज़ी से ज्यादा मात्रा में होने लगी है? कहीं यह वही मामला तो नहीं है- “आकाश और बिकास की लड़ाई”
इस बीच कितना और कितनी तेज़ी से “बिकास” हुआ है. इसने गाँवों और शहरों के प्राकृतिक जल-प्रवाह को किस कदर नुकसान पहुँचाया है. नदियों की राह किस तरह रोकी, बदली गयी है. कितना खनन नदियों, खेत खलिहानों में किया गया है. इस “बिकास” के लिए जल्दी से जल्दी सड़क बनाने की मौजूदा तकनीक ने गाड़-गधेरों-नदियों में कितना मलबा पहुँचाया है. हॉट-मिक्स की सड़कों की ऊंचाई परत दर परत कितनी ऊँची उठा दी जाती है. नदियों, झीलों के किनारे कितनी जमीन कब्ज़ा दी गयी है. आवास और पर्यटन-रिसोर्ट्स के नाम पर कहाँ-कितना दबाया गया है. बारिश का पानी जिन जगहों से जमीन के भीतर जाता था, वहां कितना सीमेंट हमने बिछाया है. बारिश का पानी जिन जगहों पर जमा होता था वो ताल, तलैया, पोखर, चाल-खाल कहाँ बिला गए. कितना प्लास्टिक-कचरा हमने पानी का रास्ता रोकने के लिए बिछाया है. पचेश्वर जैसे ये बाँध कल क्या हालत पेश करेंगे. आदि, आदि. आप गुणी लोग हैं और तमाम सोच/कह सकते हैं.
मुझे लगने लगा है, वह ठीक कहते हैं. आदमी कहता है मैं “बिकास” करूंगा आकाश कहता/ कह रहा है मैं भी देखूँगा.
इन हालातों में रैड-अलर्ट दरअसल ज़रूरी है मगर बारिश के लिये नहीं “बिकास” के लिए.