राजीव लोचन साह
न्यायपालिका पिछले कुछ समय से लकवाग्रस्त हो गयी थी। सरकार और नौकरशाही के सामने उसका आत्मसमर्पण लोकतंत्र के हितैषियों को चिन्तित करने लगा था। यदि सरकार-प्रशासन के खिलाफ अदालत जाने की नौबत आती तो लोग दस बार सोचते थे कि क्या ऐसा करना बुद्धिमानी होगा। उस दौर में चुनावी बौंड ही शायद एकमात्र मामला रहा होगा, जिसमें न्यायालय ने सरकार से पड़ते दबाव की परवाह न कर अपना निर्णय सुनाया था। हालाँकि वह फैसला भी किसी पक्के नतीजे पर नहीं पहुँच सका और अधूरा रह गया। इस बीच दिल्ली उच्च न्यायालय के एक न्यायमूर्ति के घर पर आग लगने के बाद करोड़ों रुपये के नोटों की गड्डियाँ मिलने के बाद न्यायपालिका की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता रसातल को ही चली गयी। हालाँकि न्यायपालिका में कदाचार का यह पहला मामला नहीं है। भ्रष्टाचार की अफवाहें वहाँ लगातार तैरती रहती हैं। मगर इतना पुख्ता प्रमाण इससे पहले कभी नहीं मिला था। कुछ लोग इस घटना के पीछे कोई गहरी साजिश देख रहे हैं, मगर उन पर विश्वास करना मुश्किल है। इस माहौल में सर्वोच्च न्यायालय से दो ऐसे निर्णय आये हैं, जिनसे लगता है कि न्यापालिका ने अपनी विश्वसनीयता पुनः प्रतिष्ठित करने के लिये कमर कस ली है। पहले फैसले में उत्तर प्रदेश सरकार को लताड़ लगायी गयी है कि वहाँ कानून का राज ध्वस्त हो गया है। यह निर्णय उ.प्र. पुलिस द्वारा सिविल मुकदमों को आपराधिक बना देने के सिलसिले में आया है। आज से पचास साल पहले की बात होती तो इस फैसले के बाद उ.प्र. सरकार को सत्ता से हटा दिया जाता। आज वह सम्भव नहीं है। एक दूसरे निर्णय में तमिलनाडु के राज्यपाल को विधानसभा से पारित बिलों को अकारण और अनावश्यक रूप से रोके जाने पर फटकार लगायी गई है। यह निर्णय भारत के संघीय ढाँचे के लिये संजीवनी का काम करेगा, क्योंकि पिछले दस वर्षों में केन्द्र की भाजपा सरकार ने गैर भाजपायी प्रदेश सरकारों को कदम-कदम पर परेशान किया है।