योगेश धस्माना
राज्य गठन के बाद पहले विधान सभा चुनावों से लेकर अब तक के इतिहास पर नजर डालें तो पौड़ी और अल्मोड़ा को एक सोची—समझी राजनीति के तहत हाशिए पर धकेल दिया है। विधान सभा चुनाव हो या पंचायत चुनाव, आरक्षण को लेकर सत्तारूढ़ दलों द्वारा मनमानी तरीके से सीटों का आरक्षण कर योग्य उम्मीदवारों को राजनीति से साइड लाइन किया गया है। ताजा उदाहरण अल्मोड़ा नगरपालिका अध्यक्ष की सीट का है, जहां पहले इसे सामान्य महिला के किया गया। परन्तु बीजेपी ने इस सीट पर अपनी ताकत को कमजोर भांपते हुवे इसे ओबीसी के लिए आरक्षित कर दिया, जब कि यहां ओबीसी मात्र २ प्रतिशत हैं। ऐसा करके बीजेपी ने कांग्रेस की शोभा जोशी और स्वतंत्र उम्मीदवार मीता उपाध्याय की उम्मीदवारी से घबराकर इस सीट को ओबीसी के लिए रिजर्व करने की घोषणा कर डाली। इसी तरह चमोली के जोशीमठ नगरपालिका सीट पर डेढ़ प्रतिशत ओबीसी आबादी को यह तोहफे में दे डाली। पौड़ी जिले को भी इसी तरह हाशिए पर पहुंचा दिया गया। पहली बार राज्य गठन के बाद श्रीनगर जिसमें पौड़ी भी शामिल था, अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित किया गया। फिर नए परिसीमन के बाद दुबारा इसे भी अनुसूचित जाति के लिए २०२७ तक के लिए रिजर्व कर दिया गया। आसन्न नगर निकाय चुनाव में भी पौड़ी के सामान्य दावेदारों को ठेंगा दिखाते हुवे महिला जगत के लिए रिजर्व कर दिया गया है।पौड़ी, जहां आजादी के बाद, प्रथम नगर पंचायत अध्यक्ष अवतार सिंह रमोला को राष्ट्रमंडल देशों के अध्यक्षों के सम्मेलन में भाग लेने हेतु सरकार ने नामित किया, उसी पालिका परिषद से अध्यक्ष बिग्रेडियर लक्ष्मण सिंह नेगी को जनता ने चुना, उसी नगर से दो अप्रवासी नागरिकों चौफ़ीन और आ डेविड जैसे लोग पौड़ी नगरपालिका के अध्यक्ष रह चुके हो, जिनकी प्रतिभा का डंका देश भर में था, उस नगर से अब आरक्षण और दलगत राजनीति के चलते इसके वजूद को ही मिटाने का षड्यंत्र चल रहा है। ऋषिकेश नगर निगम में जहां 80 प्रतिशत जनता पहाड़ी मूल की है, वहां कांग्रेस ने जाटव और भाजपा ने पासवान को मेयर पद पर उतार कर पहाड़ी समुदाय की घोर उपेक्षा की है। हल्द्वानी में भी ओबीसी की राजनीति धामी और भगत दा के बीच नए संघर्ष को जन्म दे गयी। महात्मा गांधी जिन्होंने निकाय चुनाव को आम सहमति से लड़े जाने की बात कही थी, उस भावना को दोनों राजनीतिक दलों ने तार—तार किया है। इस चुनावों में टिकट वितरण से एक बात स्पष्ट हो गई है कि मुख्यमंत्री धामी ने रणनीति के तहत अपने धुर विरोधियों त्रिवेंद्र सिंह रावत, विधान सभा अध्यक्ष ऋतु खंडूरी और कुछ सीमा तक अनिल बलूनी के समर्थित उम्मीदवारों को टिकट न देकर उनके कद को घटाया है। ऐसी स्थिति में चुनाव के बाद निर्दलीय प्रत्याशी जीत कर बीजेपी के समीकरण को बिगाड़ सकते है।
अल्मोड़ा में 1962 में विधानसभा चुनाव में जनसंघ का खाता खोलने वाले राम दत्त जोशी और पौड़ी में जनसंघ के सूत्रधार एडवोकेट घनानंद बहुगुणा यद्यपि चुनाव जीत नहीं सके पर उन्होंने गोपाल सिंह रावत, अलका आर्ट, सुमन लता भड़ोला उत्तराखण्ड आंदोलन में जेल जाने वाली पहली महिला, जनसंघ को जन आधार देने वाले गुलाब सिंह बिष्ट, ऋषिबल्लभ सुंद्रियाल, मोहन सिंह रावत जैसे लोगों ने 1952 से जनसंघ और फिर 1980 के बाद भाजपा को, उत्तराखंड में नींव का पाषाण बनने में मदद की। उनकी विरासत को तो आज का भाजपा नेतृत्व जानता तक नहीं है। इसी तरह अल्मोड़ा में जनसंघ के पहले विधायक रामदत्त जोशी और शोभन सिंह जीना की विरासत को आज के बीजेपी नेता भुला चुके हैं। इससे लगता है कि पौड़ी, अल्मोड़ा को राजनीतिक दल सुनियोजित चाल के तहत हाशिए पर पहुंचा रहे हैं। इसका एक अन्य कारण यह भी है कि दोनों केंद्रों से पलायन की रफ्तार तेज हो गई है। यही कारण रहा है कि पिछले चुनाव में पौड़ी, अल्मोड़ा में जनता ने मतदान के प्रति उदासीनता के कारण मतदान का प्रतिशत 50 का आंकड़ा छू भर पाई। सरकार के लिए भी यह चुनौती है।