जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’
उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य का पिछला महीना काफी उठा–पटक वाला रहा. भीषण सड़क दुर्घटनाओं ने लोगों को हिलाकर रख दिया. गांव–गांव तक सड़कें तो बन रही हैं, लेकिन उनको पक्का नहीं किया जा रहा है. यह सड़क दुर्घटनाओं का सबसे बड़ा कारण है बरसात की वजह से सड़कों पर गड्डे बन जाते हैं, जिनको भरा नहीं जाता व जब मानक से अधिक यात्रियों को ले जाने वाली बस, जीप या टैक्सी इन गड्डों से गुजरती है तो वह पलट कर खायी में जा गिरती है. इसी प्रकार ग्रामीण सडकों के मोड़ बहुत संकरे व तीव्र ढलान वाले होते हैं, वहां पर भी वाहन झोंक खा जाते हैं पलट जाते हैं या भारी वजन होने की वजह से ढलान पर लुढ़कने से भी दुर्घटनाएं हो रही है. यह तो आम जनमानस भी समझता है, लेकिन सरकार के विभाग नहीं समझना चाहते है.
दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात यह देखने को मिली है कि, ग्रामीण सडकों पर सुव्यवस्थित पानी की निकासी की नालियां न होने से सड़कों पर पानी आने से सडकों पर गड्ढे, कीचड़, दलदल व फिसलन से भी दुर्घटनायें हो रही है. पहाड़ों में सड़क दुर्घटनाओं का सबसे बड़ा कारण, क्षमता से अधिक सवारियों को ढोने का है. यहाँ जीप–टैक्सी वालों की मनमानी चलती है, जब तक वह मन मुताबिक सवारी नहीं ठूंस देता तब तक वह खिसकता नहीं है. ऐसे में मजबूरन यात्रियों को जान हथेली में रखकर अपने गंतव्य तक पहुंचना पड़ता है. अन्यथा या तो टैक्सी बुक करो. ग्रामीण सड़क वाले क्षेत्रों में परिवहन विभाग ने कभी इन विषयों को गंभीरता से नहीं लिया और न ही वे इन सड़कों पर आकर परिवहन व्यवस्था को सही करने का प्रयास करते हैं. हाँ व्यवस्था की जाँच के बहाने रुपये इक्कठे करने अचानक जरुर आते होंगे.
यमुना–टोंस घाटी हो या पिथौरागढ़ से लेकर राज्य के ग्रामीण सडकों पर 9 सीटर वाहनों में 20 से 25 लोग हर समय यात्रा करते दिख जाते हैं, पर इन पर आज तक नियंत्रण की व्यवस्था राज्य की सरकारों ने कभी नहीं की. जनता को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है. जब कोई बड़ी सड़क दुर्घटना होती है, तो दिखावे के लिए आनन–फानन में तरह–तरह की जाँच कमेटियां बना दी जाती है. कुछ दिन बाद फिर ढ़ाक के वही पात. पिछले महिने देहरादून में भीषण कार दुर्घटना में युवाओं को जान गंवानी पड़ी. अब कारण तो सामने कभी नहीं लाये जायेंगे, पर इसको शराब परोशने वाले पब, क्लब, होटल व शराब बेचने वालों को मामले में लपेटा गया.
रात को खुलने की समय सीमा को दिखावे के लिए कम करने की बात हुई. भाई अब जब आपने पब या होटल को अनुमति दी है तो वहां लोग शराब पीने तो जायेंगे ही, अब हर कोई अपने साथ ड्राईवर लेके तो नहीं जाता, 90 प्रतिशत लोग पब या होटल में शराब पीकर खुद ही कार चलाते हैं, इसी तरह विवाह शादियों की कॉकटेल पार्टियों में भी ऐसा ही देखने को मिलता है. इसको कौन नियंत्रित करेगा? सब राम भरोसे चल रहा है. शराब की ओवर रेटिंग पिछले एक दसक से आज तक रुकी नहीं. कुछ छापे दिखावे के लिए मारकर इतिश्री कर दी जाती है. हर शराब की दूकान के बाहर खुले में लोग शराब पीते कभी भी देखे जाते है. ये सब क्या मज़ाक चल रहा है भाई इस प्रदेश में, जहाँ राम राज लाने वाली सरकार सत्ता में है. शराब सारी दुनिया का लोकप्रिय पेय है, लेकिन उसके लिए अलग – अलग देशों ने शख्त नियम क़ानून बनाये है जिनका पालन किया जाता है.
यही बात शराब के उत्पादन को लेकर भी है. उत्तराखंड के गांव–गांव के लोग अपनी स्थानीय शराब बनाने की तकनीकी जानते है. लेकिन उनको शराब उत्पादन को आर्थिकी से जोड़ने की बात कोई सरकार नहीं करती, कभी की भी होगी तो वह झुनझुना निकला. क्यूंकि सत्ता कथित तौर पर सीधे शराब सिंडिकेट से मिली हुई रहती है व मोटा मुनाफा सीधे ऊपर के आकाओं तक पहुँच जाता है. टारगेट पहले से ही फिक्स रहता है. हिमांचल प्रदेश की सोलन विस्की तो जग प्रसिद्ध है, अब हिमांचल प्रदेश ने कई वैराएटी की वाइन व बियर का उत्पादन बड़े पैमाने पर करना शुरू कर दिया है, इससे वहां के ग्रामीण किसानों की आर्थिकी में बड़ा सुधार हुआ है, इसी प्रकार सिक्किम की रम देश–दुनियां में अपना व्यापार फैला रही है.
हाल ही की खबर है की वहां की सरकार ने कुछ उद्यमियों को वाइन बनाने का प्रशिक्षण देकर फैमिली ब्रांड तैयार किये है. वाइन या बियर की गुणवत्ता सरकार तय करती है. सिक्किम की सरकार वाइन व बियर उद्योग को आम लोगों, किसानों के साथ जोड़कर आर्थिकी का बड़ा मॉडल तैयार किया जा चुका है, जो भविष्य में विदेशों को निर्यात भी करेगी. ऐसा उत्तराखंड में क्यों नहीं किया जा सकता या किया जा रहा है? वर्षात में सडकों के टूटने की वजह से किसानों का उत्पाद उनके खेतों व घरों में ही बरबाद हो जा रहा है. सैकड़ों सड़के बारिश की वजह से बंद हो जाती है, यह सिलसिला कभी थमने का नाम नहीं लेगा, क्यूंकि नेताओं की जेसीबी जो चलनी है. ये हमारा विकास का मॉडल है.
उत्तराखंड में शराब उत्पादन भीषण बेरोजगारी को समाप्त करने का बेहतरीन जरिया बन सकता है. सड़कों के टूटने की वजह व ट्रांसपोर्ट में अनावश्यक पैंसा बरबाद करने के बजाय स्थानीय कलस्टर बनाकर स्थानीय अनाजों, जड़ी–बूटियों, फलों की विस्की, रम, वाइन, बियर बनाने को छोटी–छोटी फैक्ट्रियां स्थापित की जाएँगी तो लोगों को काम मिलेगा, जब नजदीक में फैक्टरी होगी तो किसान भी उत्पादन करना शुरू करेगा. शराब उत्पादन के लिए युवाओं को सिक्किम की तरह प्रशिक्षण देकर रोजगार पर लगाया जा सकेगा. बाकी शराब उत्पादन को लेकर कुतर्क करने वालों को यही जवाब है कि क्या? उत्तराखंड के घर – घर या गांव तक शराब नहीं पहुँच रही, क्या शराब के ठेके दूरदराज गांवों तक नहीं खुले है क्या? सैनिक बहुल राज्य में हर माह लाखों शराब की बोतलें नहीं बंटती क्या? जो बद्रीनाथ जातें हैं कथित तौर पर क्या वहां स्थानीय शराब नहीं मिलती? उत्तराखंड की जनजातियों को क्या शराब बनाने की अनुमति नहीं है? ध्यान रहे में शराब उत्पादन से आर्थिकी को मजबूत करने की बात कह रहा हूँ, मैं ऐसा लिखकर शराब के सेवन की वकालात नहीं कर रहा हूँ. उत्तराखंड के नीतिकारों को ढकोसले का चोला उतारकर इस पर विचार करना चाहिए. आर्थिकी का विकेंद्रीकरण कर रोजगार तैयार किया जा सकेगा. इसका ठेका सरकार बड़े ब्रांड, बड़े ठेकेदार, बड़ी कंपनी, बड़े सेठ को दे, यह तो कोई सही तर्क नहीं है जनाब. यही तरीका हर महकमे के साथ हो तो उत्तराखंड में कोई बेरोजगार नहीं होगा.
राज्य में रोजगार का मॉडल हकीक़त के धरातल पर जानने व स्थानीय संसाधनों के महत्व व उसका अधिकतम आर्थिक लाभ को समझने से ही बनेगा. दरअसल उत्तराखंड का दुर्भाग्य रहा है की यहाँ हकीकत के धरातल पर आज तक कोई नीति नहीं बन पायी है और न इन नीतियों को बनाने की समझ नीतिकारों को है. विधानसभाओं के सत्र चलते नहीं वहां विकास को लेकर बहस नहीं होती. नीतियां नौकरशाह बनाते आ रहे हैं, सरकार केवल ठप्पा लगाती आ रही है यही परंपरा बन चुकी है. नौकरशाह तो प्रशासन चलाना जानता होगा, वह कोई उत्तराखंड का विशेषग्य तो नहीं? राज्य के विकास की नीतियों के निर्माण में स्थानीय लोगों की कोई भागेदारी नहीं है. जो कुछ भी राज्य के बारे में न जानते – समझते है दुर्भाग्य से वे उत्तराखंड के खसम बने हुए है. लानत है उत्तराखंडियों पर. चुल्लू भर पानी में डूब जाना चाहिये, जो न अपनी धरती बचा सके? न अपना रोजगार बचा सके? न अपनी इज्जत और आबरू बचा सके? और जो न अपनी राजधानी बना सके?