राजीव लोचन साह
दो राज्यों की विधानसभाओं के लिये हुए चुनावों में कांग्रेस को जबर्दस्त झटका लगा है। जम्मू कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस के गठबंधन को सरकार बनाने के लिये आवश्यक बहुमत तो मिल गया है, मगर इसमें कांग्रेस का योगदान बहुत बड़ा नहीं है। जम्मू क्षेत्र, जहाँ उससे उम्मीद की जा रही थी, वह भाजपा को पछाड़ने में ज्यादा कामयाब नहीं रही। यह सवाल तक उठ खड़ा हुआ है कि सरकार में जम्मू क्षेत्र को पर्याप्त प्रतिनिधित्व कैसे दिया जाये। हरियाणा में तो कांग्रेस की खासी फजीहत हो गयी। न सिर्फ एक्जिट पोल में कांग्रेस की सरकार बनती दिखाई दे रही थी, बल्कि हर जानकार व्यक्ति आश्वस्त था कि दस साल की एंटी इनकम्बेंसी के चलते भाजपा की विदाई तय है। मगर चुनाव परिणामों में कांग्रेस की हार ने सब को हैरान कर दिया। कांग्रेस इस परिणाम को ई.वी.एम. के माध्यम से किया गया षड़यंत्र बता कर खारिज कर रही है। परिस्थितियों और पिछले कुछ चुनावों के अनुभवों को देखते हुए इस सम्भावना को एकदम नकारा भी नहीं जा सकता। मगर कांग्रेस के लिये यह झटका बहुत जरूरी था। पिछले दो-तीन सालों में राहुल गांधी के उदय से लोगों का झुकाव तेजी से कांग्रेस की ओर हुआ है। मगर चुनाव जीतने के लिये जो संगठन और उत्साह होना चाहिये, वह कांग्रेस में सिरे से नदारद है। अति महत्वाकांक्षी, मगर काम करने के लिये अनिच्छुक बुढ़ाते हुए लोग प्रदेशों में नेतृत्व से चिपके हुए हैं। गुटबाजी अपने चरम पर है। सोच के आधार पर कई जगह तो लगता है कि कहीं ये लोग अपनी पार्टी के भीतर भाजपा का काम तो नहीं कर रहे हैं। काम करने के तौर तरीके बदले बगैर ये क्षेत्रीय नेता समझते है कि सिर्फ राहुल गांधी की बढ़ती लोकप्रियता उन्हें चुनाव की वैतरणी पार करवा देगी। उनके मुकाबले वह भाजपा है, जिसका पोलिंग बूथ स्तर तक एक सुदृढ़ संगठन है। पार्टी के कार्यक्रमों को भाजपा कार्यकर्ता तृणमूल स्तर तक सफलतापूर्वक कार्यान्वित कर सकते हैं। चुनाव में सफलता के लिये कांग्रेस को अपने आप को बदलना होगा।