सेवा में,
स्वस्ति श्री सर्वोपमा योग्य श्री 6 संपादक जी और सभी आदरणीय नैनीताल समाचार वाले। हम यहां कुशल से हैं और भूरपूर आशान्वित हैं कि आपकी छत्रछाया में हमारा नैस इस निष्प्राण होते समाज में जान फूंकने के लिए जुटा है। आज पूरे 18 बर्स बाद हरेले की चिट्ठी भेज रहा हूं। बड़ा संयोग है मेरे लिए। पिछली बार जब चिट्ठी लिखी तो प्रवास भी तभी शुरू हुआ था और उत्तराखंड से बाहर पत्रकारिता का सफर भी। लगभग एक पीढ़ी का समय गुजर गया। तब कागज की लिखावट आज व्हाट्सएप संदेश तक आ गई है। डाक टिकट का दौर पॉपअप नोटिफिकेशन से बदल गया है। हम वही हैं, जैसे निकले थे कभी दिलों में उम्मीदों का हिमालय लेकर…।
मेरे राज्य ने इतने सालों में आठ मुख्यमंत्री देखे। उत्तराखंड के बाहर पत्रकारों और लिखने-पढ़ने वाले लोगों से मिलते और चर्चा होती है तो उनकी नजर में मेरे राज्य के कर्ता-धर्ताओं की छवि क्याप्प हुई। उनके हिसाब से उत्तराखंड की जनता और नेताओं का रिश्ता विक्रम-बेताल जैसा ठैरा। कंधे में लद गए और दुनियाभर की कहानियां सुना रहे। न उनका चरित्र सुधरने जैसा और न जनता अपनी भलमनसाहत में उनको सबक सिखाने जैसा मन रखती है बल। …कब मेरे पहाड़ी ‘आई डोंट केयर’ की मानसिकता से बाहर निकलेंगे, पता नहीं।
रामपुर तिराहा कांड पर 30 साल बाद पिछले महीने ही फैसला आया निचली अदालत का। दो-तीन पुलिसवालों पर जिम्मेदारी डालकर सब किनारे हो गए। उस समय के यूपी के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह से लेकर राज्य के बड़े नौकरशाह तक, प्रमुख सचिव से लेकर डीजीपी तक सब मेरे उत्तराखंड के गुनहगार थे, हैं और रहेंगे। भले ही इंसानी अदालतों ने उन्हें सजा न दी हो लेकर गोल्ज्यू देख रहे होंगे और लोक-परलोक में इंसाफ जरूर होगा, मुझे विश्वास है।
वैसे, पहाड़ी अंजाम की परवाह नहीं करता। लड़ता है शिखर तक पहुंचने या सांस टूट जाने तक। पिछले दिनों उत्तराखंड के जंगल बचाने के दायित्व में जान गंवाने वाले पर्वतपुत्र निश्चित रूप से रणछोड़दास नहीं थे। वे प्रकृति को बचाने की कोशिश करते हुए मरे। सरकारी कर्मचारी थे, दूर से देखकर भी लौट सकते थे। उनके अंदर किसी कोने में पहाड़ डटा हुआ था।
गिर्दा और आप लोगों की आवाज में तल्लीताल डांट पर गाये ये शब्द याद आ जाते हैं- लड़ना है भाई ये तो लंबी लड़ाई है…। संपादक जी, थके नहीं हैं उत्तराखंडी। हां, थोड़े निराश जरूर हैं। लड़बेर ल्यूलों उत्तराखंड…आप लोगों से सुनते आए। लेकिन इतना जरूर है कि जल, जंगल, जमीन की बुनियादी लड़ाई अब हाशिए पर मुझे दिख रही है। आप लोगों ने सड़क पर वह संघर्ष जिया है। आजकल्यान, ज्यादातर लोग अपने घरों में सिमटे हुए बौद्धिक जुगाली कर रहे हैं। शराब और डाटा की अथाह उपलब्धता ने चेतना को लकवा मार दिया है संपादक जी। घरों की छतों से पहाड़ दिखाकर ब्लॉग और रील बनाने वाले लड़के-लड़कियों को बेरोजगारी नहीं खलती। पहाड़ के कस्बों में दोपहर ढाई-तीन बजे से शराब की दुकानों के बाहर 20 से 30 साल के युवाओं को मंडराते देखता हूं तो दिल रो देता है।
पत्रकार हूं तो दो आखर पत्रकारिता पर भी लिखूंगा ही। निराश नहीं हूं। उम्मीद से भरा हूं। कॉरपोरेटीकरण और गोदी मीडिया के दौर में भी दर्जनों पत्रकार हैं जो छटपटाहट के बीच अपनी बात रखते हैं। सच का सूरज आसमान पर ही कहीं ओट में है। जिन्हें नहीं दिख रहा, वो हताशा में बादलों को ताकतवर मान बैठे हैं। आम आदमी की आवाज बनना अब भी मुश्किल नहीं। हां, सरकार की पुरजोर खिलाफत मुख्य धारा की मीडिया में आसान तो नहीं ठैरा।
विडंबना ये है कि अब हरेले में हरियाली की बात नहीं होती। खेती और बारिश की बात नहीं होती। किसान की बात नहीं होती। ये टूरिज्म और शॉपिंग में मानसून ऑफर का बेढंगा दौर है। खैर, नैनीताल समाचार की छापरी हमेशा हरी-भरी रहे। आप अपने पाठकों को हरेले का तिनड़ा भेजते रहना। उनको भी भेजना जो पहाड़ी देहरादून में बैठकर दिल्ली का हुक्म बजा रहे हैं। उन पहाड़ी रील पुत्रों को भी, जिन्हें पता ही नहीं कि वो मोबाइल स्क्रीन में डूबकर और फर्जी गर्व करके जाने क्या-क्या खो रहे हैं। उनको भी जिनकी उम्र बीत गई गैरसैंण में असली राजधानी और सचमुच का पहाड़ी राज्य बनने की उम्मीद में और घुन-च्यून एक हो गए। आप पांच दशक से हरेला पठा रहे हो पाठकों को, उनको मत भूल जाना जो हमारी तरह पहाड़ में पैदा होकर दूसरे राज्यों में प्रवास के लिए अभिशप्त हैं। एक तिनड़ा उनके नाम भी रखना जो दूसरे देशों में जा बसे लेकिन वहां के नार्थ इंडियन रेस्तराओं में मंडुए की रोटी की एडवांस बुकिंग डॉलर-यूरो में कराते हैं।
एक चिट्ठी में क्या-क्या लिखूं संपादकजी। पिछली बार लिखी हरेले की चिट्ठी सहेजकर रखी है 18 साल से। हमेशा हिम्मत देती है मुश्किल समय में। उम्मीद जताती है दिल के किसी कोने में…। कभी तो प्रवास खत्म होगा। अहसास दिलाती है कलम के जिंदा होने का। दिल को गुदगुदाती है पहले प्रेमपत्र की तरह। घर की दीवार पर टंगी है, जैसे मन के किसी कोने में टंगा है मेरा प्यारा पहाड़।
संपादक जी, मन भर आया है। कम लिखा, ज्यादा समझाना। पिछली बार शिकायत की थी, आर्थिक मोर्चें पर नैस के सक्षम न हो पाने को लेकर। अब किस मुंह से करूं। टीस है दिल में। खैर छोड़िए…। अपना ध्यान रखना।
सदैव आपका
पंकज विशेष
अनचाहे प्रवास से