प्रभात उप्रेती
आज सड़क चलता आदमी भीजब तब आपको पर्यावरण पर डोज पिला सकता है, धर्म की तरह और सयाने लोगों की तरह ’सुड’ जैसे घातक शब्द के साथ जो हम भारतीयों के बचपन से ही चिपक कर जिंदगी भर मनोवैज्ञानिक परेशानी कर देता है। होश सम्भालते ही मेरा चरित्र संकोची था पर जल्दी ही प्रकृति से दोस्ती हो गयी। वह मुझे अपने हर रंग में रिश्तेदार लगने लगी। नैनीताल में मैं पेड़ों, चट्टानों, सूरज, चांद, तारों, पत्थरों से बात करता जैसे अपने से बात कर रहा हूं। हम सब साथ-साथ पनप रहे थे। कभी एक पत्ता क्या खेत में लगी खरपतवार भी न उखाड़ता। मुझे ये गर्वोक्ति लगती मैं चीटी भी नहीं मारता। भला चीटी को मारा क्यों जाय! गर काटे तो अलग बात है। आपको कोई सक्षम बेबात मारे तो कैसा लगेगा। यह तो चराचर जगत का स्वभाव है। बेबात कोई जीव किसी की जान नहीं लेता।
इस होने को किसी ने सिखाया न था। यह अपने आप मेरी नसों में तब था,जब ’पर्यावरण ’ शब्द किसी हवा में न था। फिर तथाकथित बड़े होते होते ही ’पर्यावरण’ शब्द से परिचित हुआ। फिर चिंतन चला तो यह नैटशैल में इसके बारे में ध्यान आया, धारण बनी। समाधि अभी तक पैंडिंग है। जब प्रवक्ता हुआ तब ही एक भेंट में सुंदर लाल बहुगुणा जी ने ही बतलाया कि कहीं कुछ खतरा है जिसे पर्यावरण कहते हैं। बाद मेंं महान वैज्ञानिक, इंसान डॉ. डी.डी. पंत जी से एक लम्बे साक्षताकार में वैज्ञानिक अंदाज में कहा, ’’कामरेडी की ‘इकालाजी एण्ड रिलिजन’ पढ़ो। वह कहता है, जिसे िंहंदू अहिंसा कहते हैं, वही पर्यावरण हैं, ’’इकोलाजी और इकानामी एक दूसरे से अलग नहीं हो सकतीं। नीत्से का पॉवर कॉनस्पेट चल रहा है तो पर्यावरण कैसे बचेगा। मोर मनी यू हैव मोर हैप्पी यू आर!’’
ओह! भोगवाद हिंसक है। समझा, एक सबके लिए सब एक के लिए। आज क्लियर हो गया है ’पर्यावरण’ जीवन भर रात दिन सुबह शाम चलने वाली एक प्रोसेस, जीवन पद्धति है। न कि आदर्श, न पेड़, न वह जिसका हैप्पी बर्थडे पांच जून को होता है। यही आजादी है जिसके लिए आदमी जान दे देता है। पर जब उत्तेजना, हिंसा मजा देती है, यह सोच आ जाए तो सब तबाही का प्रवेश मंच पर होता है। हिंदू धर्म में कुछ खास है। हर दिन त्योहार। ईजा को मैं देखता कुछ ऐसा कर रही है जो प्रकृति से जुड़ा है। गृह शांति के लिए भी पेड़ हैं तो जानवर से लेकर अचेतन तक सब पूज्यनीय हैं,देवताओं के वाहन हैं कर्म सिद्धांत से पूर्वजन्म भी है, तो विकास के साथ रिवर्स गेयर में भी ’बड़ा भाग मानुस तन पावा’ वालाकोई भी जीव, अचेतन हो सकता है।
अचेतना भी चेतना की एक ठहराव की स्थिति है मुझे गांव वासियों ने बतलाया, बुग्याल में जाते हैं तो इजाजद से जाते, तहजीब से जाते हैं। नो हल्ला, कील के जूते नहीं, रंगीन कपड़े नहीं। जड़ी-बूटी उखाड़ना है तो पहले इजाजद हाथ जोड़ के लो, तमीज से उखाड़ो। शिक्षा ही सही नहीं। ज्यादातर सुबह से सोने तक प्रकष्ति के हर कानून तोड़ते हैं। इतना हम खदुआ हो गये हैं कि पाचन खराब, पाचन खराब तो पेट खराब,पेट खराब तो दिमाग खराब हो लिया है। शिक्षाविद डॉ आशुतोष उपाध्याय कहते हैं, ’’जितना विकास, एक्टिविटी, उतना पौल्यूशन, डिसआर्डर होगा। प्रकृति कहती है, कम काम करो, कम खाओ।शेर जहां रहता है वहां एक निशान तक नहीं छोड़ता हम पिकनिक में ही हजार निशान छोड़ देते हैं।’’
नन्दादेवी राजजात में हर बारह साल बाद फोना फ्लोरा को इतनी बुरी तरह कुड़बुद्धियों द्वारा रोंदा जाता है कि अपनी स्थिति में आने में बारह साल और लगते हैं। क्या हमारा सिस्टम है। अब काहे के विश्व गुरू! ’जब थी हरूलि तब थी हरूली अब हरूली हुरा हुर’’ आदमी पैदा ही धरती का नाश करने के लिए है। कोरानिल डीलर कहते हैं, ’’पत्थर युग से ही आदमी ने कास्टल इकोसिस्टम को खत्म किया है। न्यूजीलेंड, एल्यूनेटियन, आइसलैंड में 13000 हजार साल पहले जो मानव समुद्र किनारे रहता था उसमें जानवरों के हड्डियों के ढेर लगा दिये। कितने ही उद्धरण हैं, सूचना है, किताब,गूगल में ,उद्धरणों का क्या करना! हम आजाद कहां से हुए! उपद्रव के लिए। हममें अच्छे तो अंग्रेज थे,ये बुजुर्ग कहते थे तो बहुत गलत भी न थे।
हम खुशी की, उससे भी उपर आनंद की बात करते हैं हम गमों को इनवाइट करते हैं। देखें! यथार्थ का यूटयूब। इस उत्तेजना, भोगवाद के युग में ऑल वैदर रोड के लिए पेड़ों की लाशें बिछा देते है। एक खबर थी कि एक पेड़ से एक आदमी घायल हुआ है इसलिए आदेश है ऐसे सारे पेड़ काट दें। अरे काहे का पर्यावरण ! पर्यावरण चिल्ला सेमीनार कर नींद हराम कर रहे हो। इसकी स्थिति आज के इस नारे में प्रगट है। ’पर्यावरण के उपकार फंड पब्लीसीटी और सेमीनार।’ बहुत बड़े अंग्रेजी सेमीनार के बाद भोजन की दावत में जो प्लास्टिक बिछ जाता है तो लगता है किसी महायुद्ध के बाद लाशें बिछी हैं। गोंवद ने तो इसकी मजेदार व्याख्या किसी ठोस पदार्थ वाले रसायन से की थी। मेरे साथ रेल सफर में एक विदेशी कह रहे थे।’’ मैं तो इस देश में हर जगह भीड़ भीड़ देख के पागल हो गया हूं। यहां भी प्लास्टिक में रेल वाले खाना दे रहे हैं। कितना प्लास्टिक हो जाएगा सोचे!
आज तो ’पर्यावरण’ शब्द ब्रांड है। पर यह न जनता की, न प्रशासन की,न नेताओं की सूची में है। यह साइड की चीज है जो कभी कभार सेमीनारों में या कभी, जनहित याचिका में कुछ कर देती है। अब कट एण्ड पेस्ट में जरा पर्यावरण आंदोलनों की बात की जाय। जन आंदोलन की नियति है कि वह जब पीक में होते हैं तो वह अपनी स्थिति खो देते हैं। उनकी धारा बदल जाती है। उसे चालाक,सक्षम लोग अपहरण कर लेते हैं। अब पर्यावरण आंदोलन कह, चिपको आंदोलन की कुछ क्लिप दिखाता हूं।
चिपको आंदोलन की कहानी जासूसी और नियति सी लगती है। सर्वोदयी जो कांग्रेस का एक तरह से सामाजिक संगठन था, उत्तराखंड में महान क्रांतिकारी सरला देवी ने जगाया। उन्होंने जब पर्यावरण की कोई चर्चा नहीं थी, उसी समय आगाह किया था सम्भल जाओ रे। सर्वोदय वालों ने जब गोपेश्वर में हकोकहकू के जरा सा छोटी सी जगह में आंदोलन किया तो यह विश्वप्रसिद्ध,प्रतियोगिता में पूछा जाने वाला सवाल हो गया।
कभी एकाएक सब जुट जाता है।इसी आंदोलन पृष्ठभूमि के लिए सब संयोग हो लिए। गढ़वाल में सुंदरलाल जी, चंडीप्रसाद, कुंवर प्रसून, प्रताप शिखर और कुमाऊं में कम्यूनिज्म, सर्वोदय की फ्यूजन सी जनसर्घष वाहनी के सदस्य, सब जुट लिये। कभी कभी महाविद्यालयों में खास बैज निकलते हैं। वह बहुत अच्छा, बुरा कर जाते हैं। ऐसे ही बैज के लड़के अल्मोड़ा, टेहरी में एक साथ निकले।दिल्ली के बौद्धिक, लंदन के पत्रकार सारे संयोग एक साथ आ लिये और एक अनाम हकोहकूक का आंदोलन एक पर्यावरण आंदोलन में बदल कर इतिहास के पन्नों में चिपक लिया। यह आंदोलन, राजनीति, संस्कृति ताकतों के संबंधों को दर्शाती है कि कैसे मीडिया, बुद्धिजीवी, राजनीतिज्ञ मिल कर एक सामान्य जंगल हकोहकूक की मांग को पर्यावरण का आंदोलन बना कर इतिहास का सबसे बड़ा झूठ लिख देते हैं तो एक चेतावनी के रूप में सारे विश्व को सबक भी सिखाता है।
‘चिपको’ जिसे कितने ही साल पहले राजस्थान की बिश्नोई महिलाओं ने अपनी जान के देके पाया था, वह उत्तराखंड में एकदम छा गया। उस पर बहुत बहस हो ली है पर उसके नटशैल को कम जाने गये पर बेहतरीन उसके योद्धा आंनद सिंह बिष्ट ने बहुत सूत्र सरल रूप् में व्याख्या मुझसे एक बात चीत में कही। ’‘गुरू जी चिपको अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति तो प्राप्त कर गया, पर अंगू का वह पेड़ नहीं दे पाया।’’ सारी बहसों का यहां देहांत हो जाता है। उन्होंने अपने लेख में सुंदरलाल जी चंडी प्रसाद जी के मतभेदों का भी जिक्र किया।चंडी जी ने बढ़ती बेरोजगारी, के लिए यहां के लोगों के लिए चिरान गिरान का प्रशिक्षण देने की बात की। वह मस्त आदमी थे। भट्ट जी से मतभेदों के रहते उन्होंने एनजीओ खोल कर रामबांस का काम करना शुरू कर दिया था। बातचीत का उपसंहार करते उन्होंने कहा ’’गुरूजी! हम तो धार के पत्थर हैं कब जाने लुढ़क जाएं और बिना मठाधीश हुए इनामात नहीं मिलते। आगे बढ़ने के लिए राजनीति चाहिए। वह हमें आयी नहीं।’’
हमारे दोस्त रंगीले घनश्याम सैलानी चिपको कवि ने कहा था, चिपको वह अवैध संतान है जिसके समृद्ध होने पर हर कोई कह रहा है कि यह मेरा है यह मेरा है। सुंदर लाल जी के विदेश जाने पर उन्होंने कहा था मुझे भी तो भोगना है मुझे भी मजे लेने हैं मुझे नहीं ले गये। आंदोलनकारी चिरंजीलाल भट्ट रात दिन रात चैलेंजर ले कर अपनी आंख में मोटा चश्मा लगा कर अपनी शाररिक कमजोरी के रहते भी जंगल जंगल, गांव घूमते। एक बार उन्होंने मुझसे कहा था, दिल वाले मरता है,दिमाग वाला जंग जीतता है। इस आंदोलन पर सबसे बड़ा इल्जाम लगा कि इनामात खास नेताओं को मिले पर जनता को मिला, घुत्ता! मैंने तो इस आंदोलन की पोल समझ ली तो इससे कुट्टी कर ली।
दो लेख मैंने लिखे असल चिपको पर, अखबार और मैगजीन के लिए। पर दोनों छपे नहीं, एक गौरा देवी के साक्षाताकार वाला था, वह लेख सात साल बाद इस फरमान से आया कि हम इसका उपयोग न कर सके आप जहां चाहें इसे छपवा सकते हैं। वाह इमानदारी! हां! पहाड़ों का दर्द, सोचने वालों की आवाज नैनीताल समाचार ने कभी मना नहीं किया, जो भी मैंने आंदोलनों पर लिखा, उन्होंने स्थान दिया। आंदोलन, भावुक होते हैं और भावुकता बीत जाने,ग्लोरीफाइड होने पर निर्मम होती है। गौरादेवी को खूब ग्लोरीफाइड किया गया पर जब वह कैंसर या हेमाचूरिया से मर रही थी उन्हें किसी ने न देखा तक नहीं, मरने पर नियमानुसार मूर्ति लग गयी। आज उसी रीणी में तबाही है।
रीणी जब, गौरा देवी को देखने विदेशी, जापानी जाते थे तो तमाम रीणी की महिलाएं चिढतीं कि इसीने ही आंदोलन थोड़ी किया हम भी तो थे। हमारे नेता तो कामरेड गोविंद रावत थे। बहुत सरल, जिंदगी भर दुःख ंझेलने वाली गौरा इस इलजाम से असहाय हो जातीं। मैं नीर भरी उस समय उनका बेटा पत्थर फोड़ता था। कामरेड गोविंद रावत चिपको के केन्द्र थे पर उन्हें धुरी के गुरूत्वार्कषण से जल्दी ही बड़े गष्हों ने दूर फेंक दिया गया। वह मेरे गमशाली में गुरू थे। बहुत भोले संघर्षशील। मैंने उनका भी साक्षातकार लिया तो उन्होंने कहा था पर्यावरण की बात वह कर रहे हैं जिन्होंने पर्यावरण खतम किया। हमारे पूर्वजों को मालूम नहीं था कि पर्यावरण क्या है पर वह पर्यावरणविद थेकृ। प्रभात मुझसे ज्यादा न खुलवाओ।पौलीटिकल पार्टीं में हूं तो कुछ पौलीटीशियन तो रहने दो, जो हुआ सो हुआ।
धनसिंह राणा ने नंदादेवी कांड पर क्या खूब ’संघर्षनामा ’किताब लिख दी उसे कोई पर्यावरणविद कोट नहीं करता, न हमें। उसमें एक जबरदस्त पत्र अमेरिका के एक रैड इन्डियन का है जिसे उसने वहां के राष्ट्रपति को लिखा है। वह पर्यावरण को सही परिभाषित करता है। धनसिंह, फायर ब्रांड तो थे पर खिलाड़ी नहीं थे। धनसिंह ने भटके चिपको को, झटक और पटक दिया। चिपको बाद में दो धड़ों में ऐसा बदला कि जाजल घाटी के मेरे पुराने टेहरी के दोनों मित्र शिष्य,प्रताप शिखर, कुंवर प्रसून भी बंट गये। एक सुंदरलाल जी के विरोधी,एक पक्षधर।
कुंवर प्रसून के बीज बचाओ आंदोलन कहते हैं वंदना शिवा ने हड़प लिया था पर विजय जड़धारी होशियार निकले उन्होंने उसे पकड़ लिया। चिपको, नकली पर्यावरण की कहानी बन के रह गयी। दिल्ली विश्वविद्वालय के भूविज्ञान के प्रोफेसर डॉ प्रेमस्वरूप चिपको के बाद आये वन अधिनियम के लिए कहते हैं,’’ जैसे बड़ी बीमारी के लिए कोई दवा दी जाती है तो मर्ज तो ठीक हो जाता है पर साइड इफैक्ट रह जाता है। यही भू कानून का हुआ’। बिल्कुल सही बात थी। मुझे कैंसर हुआ मुझे कीमो चढ़ा तो वह तो ठीक हुआ पर साइड इफैक्ट अभी तक झेले जा रहा हूं। मिंया की जूती मियां के सर के अंदाज में वन अधिनियम ने वन पर वह प्रतिबंध लगाया कि लकड़ी के लिए हको हकूक के अंदोलन ने वह अपनी गत मारी कि लकड़ी मिलना तो दूर फूंकने के लिए भी टायर लाये गये। मैंने तो इस पर एक फिल्मी कहानी भी सुभाष घई के लिए लिखी, ’टायर’। भले ही वह अपू्रव नहीं हुई।
मैंने चिपको की अंन्दुरूनी कहानी को बहुत पीएचडी विद्यार्थियों को बतलायी पर एक नैपाली महिला को छोड़ हर किसी ने मुझे ही जला हुआ इंसान समझा। इतना दिमाग होते भी आदमी में सही सोच है ही नहीं। गायत्री मंत्र कहता है, ’’ जो सोच रहा है,चाहे वह प्रतिष्ठत हो न हो,सबसे बड़ा आदमी है।’’ पर आगे सोचता हूं कि जो कर रहा है,वह सोचने वाले से भी बड़ा आदमी है। अब रोज दष्श्य देखें, पढें। सारा उत्तराखंड, हिमांचल, बगा, बहा, टूटा जा रहा है। किस की मावासी खायी थी हमने जो हम ऐसा देख रहे हैं रोज यही समाचार है। वो बगा, वो टूटा, उसे बाघ ले गया, बंदर सुअरों ने तबाह कर दी खेती। दारू में र्डूबा उत्तराखंड, पूरा बिका उत्तराखंड! हैं हो! कैसे मैं शुद्ध पहाड़ी लिख दूं ’पर्यावरण!’
जब पिठौरागढ़ से हल्द्वानी मुझे अन्य होशियार बु़द्धजीवी की तरह आना पड़ा तब मैं पूरे एक साल नरेद्र नेगी के गीत को लेकर रोता रहा। पहाड़ जाने वाली गाड़ी मुझे रूलाती रही। नराई जबरदस्त थी। पर बहुत दिनों बाद वही पहाड़ जाने वाली गाड़ी मुझे डरानी लगी। हर जगह पहाड़ में जो दरक रहा था, वह मेरे अंदर दरक रहा था। पिथौरागढ का एक गांव जहां बरसात में सारे गांव वाले रात भर जागते थे। वह एक ही गांव था। अब तो बरसात में सारा पहाड़ जागता है। मैं अपनी दोस्त की गाड़ी में मुनस्यारी से पिठौरागढ़ आ रहा था तो मेरे मित्र कहने लगे, प्रभात रिटायर हो रहे हो अब तो हल्द्वानी जमीन ले लो। बीमार पड़ोगे तो क्या करोगे! मैंने वही जबाब दिया जो मैं अपने हितेषियों को देता हूं, बीमारी के डर से गर कहीं बसना है तो एम्स की बगल में ही मकान क्यों न बनाऊं!
कालातंर में यह सच रहा। केंसर हुआ तो हल्द्वानी भी ठौर न रही, मुझे जैसा कि सुशीला तेवाड़ी अस्पताल, या सरकारी अस्पताल करता है मुझे दिल्ली रैफर कर दिया। उसी कार में अचानक ड्राइवर, जो वार्ता सुन रहा था, बोला,’’ बुग्याल का फूल हल्द्वानी कहां खिलेगा!’’ मैं बड़ा गौरवान्वित तब हुआ था, पर सभी आदर्शवादियों को बुग्याल के फूलों को हल्द्वानी में ही खिलना कहें या मुर्झाना पड़ा। बर्बादी के आसार नजर आते हैं बदले बदले क्या पूरे खत्म सरकार नजर आते हैं वहां पर्यावरण क्या बेचता है! इस बाजार में।
ओह! थम जाऊं। हॉफ रहा है हूं मैं,उम्र के कारण नहीं, अफसोस के कारण। इस दुष्चक्र में जहां वीरेन्द्र डंगवाल के भगवान हैं वहां तो मुझे दुषचक्र में आदमी ही दिखता है। पहाड़ में सदियों गिंडे के गिंडे रात भर जलते थे, कोई ठकुराई अदावत नहीं थी,फिर भी हर घर में एक लाइसेंसी बंदूक थी जो हर रात को मीट और दारू की तीस के लिए फायर करती थी। मेरे छोटे फौजी भाई, रिटायर्ड आइजी आइटीबीपी बिमल उप्रेती कहते हैं, ’’ नार्थ इस्ट चार खम्भों में खड़ा है।सरकार, नौकरशाह, पूंजीपति, विद्रोही गुट सब मौज में हैं। अरूणाचल में ईटा नगर में जब मैं गया तो एक शोरूम देख के अचरज में पड़ गया, उसमें इटली का फर्नीचर था। एक छोटा स्टूलपांच हजार, एक कुर्सी तीस हजार। मैंने दुकादार से
पूछा बिकता है! तो वह बोला,’’ आज शाम यह सब खतम हो जाएगा कल हवाई जहाज से माल फिर आजाएगा।’’ आपको क्या चाहिए हल्द्वानी में!कहीं भी। वैध, अवैध सब फर्नीचर का मिल जाएगा। कहां का पर्यावरण! कहां का पांच जून। तो बंधू! र्प्यावरण का सच लिखना है तो आंख खोल के लिखने की हिम्मत करो, अांख बंद कर शुतुरमुर्ग ही जिंदा रहता है, जगाने वाला मुर्गा तो काटा जाता है। जी! एक कट एण्ड पेस्ट हमारे आंदोलन की भी देखें गोपेश्वर से शुरू होते पिथौरागढ़, अल्मोड़ा \, हल्द्वानी, रूद्रपुर तक हमने पौलीथिन विरोधी आंदोलन किया। सदाबहार जयदीप पुरोहित ने तो उसे गोंविद घाट की बेतहाशा गंदगी तक पहुंचाया।कहां का तीर्थ! मुझे मीडिया ने पौलीथिन बाबा बना दिया तो बड़े पर्यावरणविदों के लिए मजाक की बात भी बनी। वह मिलते तो कहते और बाबा क्या हाल है पालीथिन के! नेता, प्रशासक,जनता सब इसके खिलाफ हैं। सारे विश्व में यह डॉन की तरह छाया है। न्यायपालिका के कितने ही कानून पर हल्द्वानी में,अपनी जगह ही देखें, कुगरगत्त से हाल हैं।
संस्थाओं के पास एक इनाम का कोटा होता है जिसे वह हर साल मजबूरी से किसी को देते हैं। एक डैम वालों ने एक साल अपने इनाम के कोटे से मुझे बकायदा कार में लाये। मेरे पौलीथिन के काम पर मुझे शाल भेंट किया जो पौलिथिन में ही था। ऐसे ही एक गाथा मुझे एक अखबार की मुझे मेरे काम के लिए कुमाउं रत्न बनाने की भी है। वह फिर कभी। फिर भी इस हर जन आंदोलनकुछ बेहतरीन लोगों को मौका देता है।वह लड़ने के दम को बनाये रखता है। इन आंदोलनों ने बहुतों को प्रेरणा भी दी। पिथौरागढ़ मेंं ही कुंवर देवेन्द्र राठौर से बादशाह तबियत के वष्क्षमित्र का जन्म हुआ जिन्होंने बहुत बड़े द्रोपदी जंगल को डीडीहाट में विकसित किया। जगत सिंह जंगली से लोग हुए। वह राजनैतिक रूप से सक्षम रहे। यह आश्चर्य की बात थी जब मैंने उनका पहला साक्षाताकर गोपेश्वर में लिया, उनसे पूछा चंडी प्रसाद जी के बारे में क्या विचार हैं! तो आश्चर्य उन्होंने कहा, कौन चंडी प्रसाद! उनकी मासूमियत पर हम वारी हो गये। हल्द्वानी में ही मदन सिंह बिष्ट वन अनुसंधान केन्द्र वाले अपने सरकारी काम से दीगर भी जबरदस्त काम किये हैं तो छुटपुट रूप में हमारे साथ रिटायर्ड स्टेटबेंक मैनेजर दिवंगत चंन्द्र दत्त पंत जी रहे जिन्होंने अपना खर्च कर, नैनीताल भीमताल रोड में अपनी कार से जाते हुए खूब पेड़ लगाये जिसे बाद में घास काटने वालियों ने काट दिया, कहां की वह पर्यावरणविद।
वैसे ही हल्द्वानी में डॉ अशुतोष पंत ने अपना पूरा जीपीएफ पेड़ लगाने बांटने में खतम किया। रामगढ के बची सिंह बिष्ट, इस बची हुइ्र्र्र पृथ्वी को बचारने की कोशिश में दिन रात हैं तो हल्द्वानी की रेवती कांडपाल, चंदन नयाल, भवाली के जगदीश नेगी नदी को पुर्नजीवित करते, कितने ही दीवाने हैं जो काम कर रहे हैं। दीवानगी है, मजाक नहीं। हर आंदोलन एक प्रवाह की तरह होता है जिसके साथ छोटी छोटे जलश्रोत भी फूट पड़ते हैं। आदमी के अंदर भलेपन और विकष्तियों ,अभावों को बदलने की प्रवृत्ति तो होती ही है। जब हमने पिथौरागढ़ में पालीथिन आंदोलन चलाया उसके समानान्तर और भी आंदोलन होने लगे। जब हवा बहती है तो फिर अंदर जो जगता है, वह कमाल करता है।
पौलीथिन आंदोलन पूरे साल चला। पिथौरागढ़ में वह जलुवा हो गया कि उसमें नेता, सेवानिवृत्त लोग, अन्य लोग शामिल ऐसे हुए कि उस अांदोलन के साथ ही अन्य आंदोलन करने लगे। अपने आप लोगों ने महिला अस्पताल सफाई, रोड बनाना, खाल चाल बनाना, नौलों धारों का रख रखाव व अन्य स्वःस्फूर्त आंदोलनो की बाढ़ सी आ गयी। लोगों ने घास तक उगाई, गाजर घास के खिलाफ आंदोलन किया। गजब था वह साल। उन दिनों सारा आलम ऐसा था कि मुझे गांधी जी की याद आयी कि ऐसे ही चलता होगा उनका अंदोलन! सब सम्मोहित, जनूनी बने हैं मरने का कोई खौप नहीं। उस आंदोलन को मध्यप्रदेश की विधानसभा में कोट किया गया।वह दिन ऐसे इतिहास को रच रहे थे जो पुस्तकों में न आये पर फिजाओं में आये।
एक बार जब मैं जूलाघाट गया तो किसी ने कहा, एक यहां पौलीथिन बाबा है। चलिए मिल लें। मैंं गया तो उन्हें देखा, कमाल के इंसान। कागज के थैले बना बना कर अपने परिवार को पाल रहे थे, मिशन भी, कमाई भी। उन्हें वहीं के लोग पौलीथिन बाबा कहते थे। ऐसे ही गांव गांव में पर्यावरण पर काम करने वाले कितने ही लोग थे, हैं।
आंदोलन दिवालिया भी होते हैं,दीवानगी भी जन्माते हैं। और यह भी हुआ कि एक बार जब मैं एक इमानदार भले एसडीएम के पास पर्यावरण के लिए गया तो वहां एक और भी अफसर बैठे थे। मेरी बात सुनी तो बोले, गुरूजी आपको प्रणाम। पर कभी प्रशासन के पास न आएं। प्रशासन को सिखाया जाता है स्टेटसक्यू बनाए रखो। जनता ही आपको प्रेम देगी और फिर एसडीम की ओर इंगित कर कहा, अरे गुरूजी को कोई जमीन लीज की दिलाओ। दो ट्रक बजरी रेता भिजवा देना। अपना घर बनाएंगे। बाद में पता चला वह सीनियर एसडीम थे रिलीव होने हैड आफिस आये थे।
अब मैं तो डिग्री कालेज में था। इस ऑफर से फिसला नहीं। पर प्रबल आंदोलनों में ये ऑफर मिलते हैं। आदमी फिसलते हैं,गिरते हैं। पर्यावरण हो या कोई आदर्श अपने पीक में बहुत फलरिश होता है पर जब डाऊन होता है तो सारी फूंक खिसक जाती है। एक टीवी साक्षातकार में एक किशोरी ने गजब बात की, हम अपने कम्पफर्ट जोन से निकलते ही नहीं, पर्यावरण कैसे बचेगा! हम पौलीथिन की रिसाइकिल की बात कर रहे हैं उसे खतम करने की नहीं। यह सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया कि इसका अल्टरनेटिव बताओ। पर मौत का क्या अल्टरनेटिव! सारी दुनिया में समुद्र, पहाड़, रेगिस्तान की खूबसूरती में ये दाग देख लो, खत्म होते प्राण देख लो।
ओह! मैं तो इसे विद्वान की तरह लिखने वाला था, पर भावुक हो गया,यह सब अदृश्य, खत्म होने वाली जिंदगी लिख गया। पिता जी की का वह शेर याद आया जो वह हमेशा कोट करते थे और अब कॉमन भी हो गया है हमीं जब न होंगे तो क्या रंगे महफिल किसे देख के आप मूस्कुराइयेगा तो मुस्कुराइये आप उत्तराखंड या लखनऊ के मॉल में हैं। लुटने को तैयार है रिलायेंस का मॉल। ’लूट लो लूट लो’ वहां जाने से बाजार देख बेहोश हो जाते हैं। लगता है,भारत में कहां गरीबी! उत्तराखंड के हर मोड़ में रिर्जोट हैं। माया के खिलाफ बात करने वाले महात्माओं के धाम में जायदाद को लेकर झगड़े हैं, पूंजीपति मडरा रहे हैं
आदमी यही करता हैसमस्या पैदा करो,फिर समाधान ढूढो। हालिया एआई लाये फिर कहो,अरे ये तो खा जाएगा सब,अरे एवरेस्ट और चोटियों में कूड़ा लेकर जाने की क्या जरूरत है! पहले गंदगी लो जाओ फिर प्रोजेक्ट के तहत एक अभियान चलाओ। वाह राजू तुम कहते थे, नये दौर के साहसी घुमम्कड़ों ने इस आदर्श वाक्य को भुला दिया है कि प्रकष्ति की गोद में जाओतो वहां से कुछ मत लाओ, सिवाय तस्वीरों के। वहां कुछ छोड़ो मत।सिवा अपनी यादों के।’’
आज फिर जाना तुंगनाथ, पंच केदार बदरी सब जगह घायल आत्माएं प्रकृति की तड़फ रही है। और जानना चाहें तो, मेरी पुस्तक ’सियासते-ए उत्तराखंड जरूर पढें जिसे बहुत कमों ने पढ़ने और टिप्पणी करने की जहमत न की क्योंकि यहां भी नव उदारवाद की तरह भावनाओं व कर्म के संन्दर्भ में एकाधिकार है। तो यह रहा प्रकृति उसके साथ जो किया उसका कट एण्ड पेस्ट। अब बस दर्द है जो लिखा है जिसके लिए दवा नहीं, दुआ की जरूरत भी अब नहीं अब कुछ लगता ही ही नहीं मलहम इस घाव में दोस्तो वज्म सजाओ कि बहार आये ही खिल गये जख्म कोई फूल खिले या न खिले। हम आजाद हैं कहीं भी,कभी भी, कैसे भी, कूड़ा फैलाने के लिए। हम भूल गये हैं जंगल का वह वाक्यांश ’दौलत मत खाओ, बदौलत खाओ।’जो यथार्थ जिंदगी पर भी लागू है।