जगमोहन रौतेला
अपने निर्धारित कार्यकाल से लगभग डेढ़ साल पहले ही महाराष्ट्र के राज्यपाल पद से भगत सिंह कोश्यारी ने गत 12 फरवरी 2023 को त्यागपत्र दे दिया था। उन्होंने त्यागपत्र देने से पहले गत 23 जनवरी 2023 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर राज्यपाल पद छोड़ने की इच्छा जताई थी। उन्होंने अपने पत्र में प्रधानमंत्री से कहा कि वे अपना शेष जीवन पढ़ने- लिखने और चिंतन मनन में बिताना चाहते हैं। इसके लिए वे अपने गॄह प्रदेश उत्तराखंड लौटना चाहते हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक तरह से आभार व्यक्त करते हुए कहा कि उन्होंने महाराष्ट्र जैसे संतों, समाज सुधारकों और बहादुर सेनानियों की भूमि के राज्य सेवक / राज्यपाल के रूप में सेवा करने का अवसर दिया। यह मेरे लिए पूर्ण सम्मान और सौभाग्य की बात थी। मुझे प्रधानमंत्री का हमेशा स्नेह मिला। वह बीते साढ़े 3 साल के दौरान राज्य की जनता से मिले प्यार को कभी नहीं भूल सकेंगे। इस पत्र में होशियारी ने एक तरह से प्रधानमंत्री मोदी से दिशा निर्देश मांगा था कि उन्हें क्या करना चाहिए? कोश्यारी के राज्यपाल पद को छोड़ने की इच्छा व्यक्त करने के साथ ही यह तय हो गया था कि बहुत जल्द ही महाराष्ट्र राष्ट्र के राजभवन से कोश्यारी की विदाई हो जाएगी।
राज्यपाल का पद समय से पहले छोड़ने के पीछे भले ही कोश्यारी ने अपने जीवन का शेष समय पढ़ने-लिखने और चिंतन-मनन में बिताने की चाह व्यक्त की हो, लेकिन यह बात बहुत हजम करने वाली नहीं थी। पढ़ने-लिखने और चिंतन-मनन के लिए डेढ़ साल बाद भी वक्त निकाला जा सकता था या फिर राजभवन में ही पढ़ने -लिखने और चिंतन -मनन का कार्य किया जा सकता था। पढ़ने- लिखने वाले बहुत से राज्यपालों ने पूर्व में ऐसा किया भी है। राजनैतिक तौर पर राज्यपाल पद छोड़ने की इच्छा के पीछे केंद्र का दबाव माना गया। जिसके पीछे कोश्यारी के कुछ विवादित बयान थे। जो उन्होंने महाराष्ट्र में अलग-अलग कार्यक्रमों में छत्रपति शिवाजी महाराज, महात्मा फुले, सावित्रीबाई फुले और “मराठी मानुष” पर दिए थे। जिस पर उन्हें शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस की आलोचना का सामना भी करना पड़ा था। यह भी माना गया की केंद्र सरकार अगर कोश्यारी से त्यागपत्र लिए बिना उन्हें राज्यपाल पद से हटाती ( बर्खास्त ) है तो यह उनके राजनीतिक जीवन के लिए अच्छा नहीं होगा। लिहाजा ऐसी भूमिका बनाई गई कि कोश्यारी ने खुद ही त्याग पत्र देने की मंशा जाहिर कर दी।
यह एक राजनीतिक पक्ष था जो साफ-साफ और सीधे-सीधे समझ आ रहा था। पर शिवसेना में असंतोष के बाद राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने जिस तरह महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को सदन में बहुमत साबित करने का निर्देश दिया वह अनेक संवैधानिक सवाल खड़ा करने वाला था। कोश्यारी के उस निर्णय की भी उस समय आलोचना हुई थी। यह अलग बात है कि उद्धव ठाकरे ने सदन में विश्वास मत का सामना करने से पहले ही अपनी पार्टी के असंतुष्ट नेताओं के सामने एक तरह से समर्पण करते हुए मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया था। जिसके बाद उद्धव ठाकरे सरकार में गृह मंत्री रहे एकनाथ शिंदे को भाजपा के समर्थन के बाद मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई। शिवसेना के अंदर पैदा हुए असंतोष और महाराष्ट्र विधानसभा में पार्टी के दो गुटों में विभाजन को सर्वोच्च न्यायालय में संवैधानिक आधार पर शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे की ओर से चुनौती दी गई। जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले दिनों जनवरी, फरवरी, मार्च 2023 महीनों में लगातार सुनवाई की और सुनवाई के बाद अभी अपने फैसले को सुरक्षित रखा हुआ है। इस पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय कभी भी आ सकता है।
शिवसेना उद्धव ठाकरे बनाम शिवसेना एकनाथ शिंदे मामले में सर्वोच्च न्यायालय में चली लंबी सुनवाई के दौरान न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने जिस तरह तत्कालीन राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी की भूमिका की तीखी आलोचना ही नहीं की, बल्कि यह तक कहा कि राज्यपाल को अपनी भूमिका का निर्वाह करते समय राजनीति के अखाड़े में नहीं कूदना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली 5 सदस्यीय संविधान पीठ ने गत 16 फरवरी को इस मामले में सुनवाई करते हुए कहा कि सरकार किसकी गठित होगी? किसकी नहीं? राज्यपाल को यह सब कहते कहते हुए कैसे सुना जा सकता है? सरकार के गठन पर राज्यपाल यह कैसे कह सकते हैं कि जब सरकार बनाते हैं तो राज्यपाल को विश्वास मत देने के लिए कहा जा सकता है? हम केवल यह कह रहे हैं कि राज्यपाल को राजनीतिक अखाड़े में नहीं कूदना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने यह टिप्पणी तब की जब राज्यपाल की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने बहस करने की अनुमति मांगी। मेहता ने कहा कि वह तथ्यों के साथ अपने तर्कों को केवल यह दिखाने के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं कि राज्यपाल की भूमिका संवैधानिक तौर पर गलत नहीं थी। इस संवैधानिक पीठ में न्यायाधीश एमआर शाह, न्यायाधीश कृष्ण मुरारी, न्यायाधीश हिमा कोहली और न्यायाधीश पीएस नरसिम्हा में शामिल हैं।
इसी मामले में सुनवाई करते हुए गत 15 मार्च 2023 को सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने कहा कि सत्ताधारी दल के विधायकों के बीच मतभेद राज्यपाल की ओर से मुख्यमंत्री को शक्ति परीक्षण के लिए बुलाने का आधार नहीं हो सकता। राज्यपाल के ऐसा करने से एक निर्वाचित सरकार गिर भी सकती है। राज्यपाल एक विशेष परिणाम के लिए अपने कार्यालय के प्रभाव का इस्तेमाल नहीं करने दे सकते हैं। ऐसा करना लोकतंत्र के लिए एक दुखद तमाशे की तरह होगा। सर्वोच्च अदालत की संविधान पीठ ने गत जून 2022 में महाराष्ट्र के सियासी संकट में राज्यपाल की भूमिका पर गंभीर सवाल उठाते हुए यह टिप्पणी की।
मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने कहा कि पार्टी के भीतर विधायकों के बीच मतभेद किसी भी आधार पर हो सकते हैं। जैसे विकास निधि का भुगतान, सरकार का जनता से किए वायदों को पूरा न करना या पार्टी लोकाचार से विचलन। यहां पर सवाल उठता है कि क्या यह राज्यपाल के लिए मुख्यमंत्री को सदन में शक्ति परीक्षण के लिए बुलाने का पर्याप्त आधार हो सकता है? सुनवाई के दौरान महाराष्ट्र के तत्कालीन राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि राज्यपाल के सामने शक्ति परीक्षण कराने के कई आधार थे। इसमें शिवसेना के 34 विधायकों के हस्ताक्षर वाला पत्र, उद्धव ठाकरे सरकार से समर्थन वापसी की निर्दलीय विधायकों की चिट्ठी और विपक्ष के नेता का आवेदन। इन सब ने उन्हें ( राज्यपाल को ) शक्ति परीक्षण का आदेश देने के लिए प्रेरित किया। यह अलग बात है कि कोश्यारी के शक्ति परीक्षण के निर्देश से पहले ही उद्धव ठाकरे ने हार के डर से त्यागपत्र दे दिया था। जिससे एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाने का रास्ता साफ हो गया।
संविधान पीठ ने भगत सिंह कोश्यारी की ओर से पेश सॉलीसीटर जनरल तुषार मेहता के इन तर्कों को एक तरह से खारिज करते हुए कहा कि मौजूदा मामले में नेता प्रतिपक्ष का पत्र मायने नहीं रखता, क्योंकि वह हमेशा यही लिखेंगे कि सरकार बहुमत खो चुकी है या सत्तारूढ़ पार्टी के विधायक खुश नहीं है। सत्ताधारी विधायकों का पत्र भी प्रसांगिक नहीं है कि उनकी सुरक्षा को खतरा था। पीठ ने कहा कि यहां सिर्फ यह बात थी कि 34 विधायकों ने कहा कि पार्टी कार्यकर्ताओं व विधायकों के बीच व्यापक असंतोष है। यह बात प्रासंगिक हो सकती है, पर क्या यह विश्वास मत हासिल करने का निर्देश देने का पर्याप्त आधार है? हालांकि बाद में यह कहा जा सकता है कि उद्धव ठाकरे का गणित बिगड़ चुका था।
महाराष्ट्र के तत्कालीन राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी की ओर से पेश तुषार मेहता ने कहा कि राज्यपाल ने यह कतई निर्धारित नहीं किया था कि उद्धव ठाकरे ने सदन का विश्वास खोया है या नहीं! उन्होंने उनसे सिर्फ अपने सामने पेश विकल्पों के आधार पर बहुमत साबित करने के लिए कहा था। इस पर मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने कहा कि राज्यपाल का पत्र देखें। उससे स्पष्ट होता है कि उन्हें पहले से ही विश्वास है कि ठाकरे ने सदन के अंदर विश्वास खो दिया है। आखिर राज्यपाल यह निष्कर्ष कैसे निकाल सकते हैं? क्या राज्यपाल इस बात से बेखबर हो सकते हैं कि पिछले 3 साल से सरकार चल रही है और गठबंधन की 3 में से 2 पार्टियां चट्टान की तरह मजबूत हैं। पूरे समय कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी एक ठोस दल बने रहे। यह केवल शिवसेना में है जहां व्यवधान और असंतोष था। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि शिवसेना कोई पिछलग्गू दल नहीं, बल्कि गठबंधन के समान रूप से महत्वपूर्ण दल में से एक था। उन्होंने महत्वपूर्ण सवाल उठाते हुए कहा कि क्या गठबंधन की एक पार्टी में असंतोष मुख्यमंत्री को शक्ति परीक्षण के लिए बुलाने की खातिर पर्याप्त हो सकता है? यही हमारी चिंता है और यह लोकतंत्र के लिए बहुत खतरनाक है।
मेहता ने कहा की राज्यपाल की प्राथमिक जिम्मेदारी यह देखना है कि राज्य में एक स्थिर सरकार बनी रहे। लोकतांत्रिक रूप से चुने गए नेताओं को अपने कार्यकाल के दौरान सदन का विश्वास प्राप्त करना जारी रखना चाहिए अन्यथा कोई जवाबदेही नहीं होगी। इस पर संविधान पीठ ने कहा कि विधानसभा का मानसून सत्र इसी समय शुरू होने वाला था, तो अपने बहुमत को परखने का पक्का तरीका तब होता है, जब सरकार अनुपूरक मांगों को सदन में रखती। अगर यह धन विधेयक को पारित कराने में नाकाम रही होती तो नतीजा अपने आप सामने आ जाता। शिवसेना के उद्धव ठाकरे गुट की ओर से अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने अपने प्रत्युत्तर में कहा कि हम फिर से दल बदल के “आया राम, गया राम” की स्थिति में आ गए हैं।
मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि यह मामला शिवसेना के उद्धव ठाकरे और एकनाथ शिंदे गुट का नहीं, बल्कि राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियां के मुद्दे का है। राज्यपाल को अपने संवैधानिक शक्तियों का इस्तेमाल बड़ी सावधानी से करना चाहिए। उन्हें यह ध्यान रखना होगा कि 34 विधायक शिवसेना के हिस्सा थे, चाहे उनका आंतरिक मामला कुछ भी हो। राज्यपाल यह नहीं कह सकते कि इन 34 विधायकों का पत्र सरकार के विश्वास को डगमगाने का आधार है। राज्यपाल को 34 विधायकों के पत्र का अर्थ यह नहीं लगाना चाहिए कि उन्होंने समर्थन वापस ले लिया है। अब यदि 34 विधायक शिवसना का हिस्सा हैं तो राज्यपाल के सामने कौन सा ठोस आधार है? जो मुख्यमंत्री से शक्ति परीक्षण की मांग करता है। पीठ ने कहा कि राज्यपालों को विशेष ध्यान देना होगा और ऐसे मामलों में उन्हें पर्याप्त संवैधानिक मशक्कत करनी चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने इस मामले में 16 मार्च 2023 को अंतिम सुनवाई करते हुए अपने फैसले को सुरक्षित रखा है। संविधान पीठ ने सुनवाई के दौरान जिस तरह राज्यपाल के तौर पर भगत सिंह कोश्यारी के भूमिका की तीखी आलोचना की, उसे देखकर लगता है कि अगर कोश्यारी अभी भी महाराष्ट्र के राज्यपाल होते तो उन्हें न केवल राजनैतिक आलोचनाओं का सामना करना पड़ता, बल्कि अपनी साख बचाने के लिए त्यागपत्र ही देना पड़ता। संभवतः सर्वोच्च न्यायालय में चल रहे इस मुकदमे की सुनवाई के दौरान उठने वाले संवैधानिक सवालों और न्यायालय के संभावित रुख को जानते व महसूस करते हुए ही भगत सिंह कोश्यारी ने पहले ही त्यागपत्र देना उचित समझा जो एक तरह से उनका उचित कदम कहा जा सकता है। जिससे उनकी राजनीतिक फजीहत होने से बच गई। कोश्यारी 30 अगस्त 2019 से 12 फरवरी 2023 तक लगभग साड 3 साल महाराष्ट्र के राज्यपाल रहे ।
महाराष्ट्र के राज्यपाल पद से त्यागपत्र देने के बाद भगत सिंह कोश्यारी गत 17 फरवरी 2023 को देहरादून पहुंचे। देहरादून पहुंच कर उन्होंने कहा कि वे अब उम्र के नए पड़ाव पर हैं, इसलिए प्रधानमंत्री से महाराष्ट्र के राज्यपाल का पद छोड़ने का आग्रह किया था। बहुत दिनों से इच्छा थी कि रोजमर्रा की राजनीति से दूर रहकर कुछ सामाजिक काम और मनन-चिंतन किया जाए। प्रधानमंत्री ने मेरा आग्रह स्वीकार किया। इसके लिए मैं उनका आभार व्यक्त करता हूं। अब उत्तराखंड के उत्थान के लिए जो भी संभव होगा मैं उसे पूरा करने का भरसक प्रयास करूंगा। एक ओर कोश्यारी सक्रिय राजनीति से दूर रहने का संकेत दे रहे थे तो वही दूसरी ओर उनके स्वागत में पहुंचे भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भट्ट उनसे भाजपा की प्राथमिक सदस्यता लेने का आग्रह कर रहे थे। भट्ट ने कहा कि सियासत में भगत दा का लंबा अनुभव है। पार्टी प्रदेश के विकास के लिए उनके अनुभव का लाभ उठाएगी और उनसे परामर्श लेते रहेगी। भगत दा के पास बेहतर संगठन क्षमता रही है। उन्हें सरकार में रहने का भी भरपूर अनुभव है। ऐसे में अगर वह भाजपा की प्राथमिक सदस्यता फिर से लेते हैं तो इससे पार्टी को बहुत राजनीतिक लाभ होगा।
भगत दा ने भले ही चुनावी राजनीति न करने की घोषणा की हो, पर लगता नहीं कि उनका मन राजनीति के बिना लगेगा। राज्यपाल का पद छोड़ने के लगभग डेढ़ महीने बाद भी वे भाजपा के बैनर तले विभिन्न कार्यक्रमों में लगातार सक्रिय हैं। प्रदेश के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी से लेकर सरकार के मंत्रियों, भाजपा पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं का जमवाड़ा आए दिन उनसे मिलने के लिए लगा रहता है। इससे यह पता चलता है कि भगत दा के चिंतन-मनन का अर्थ ही भाजपा के बैनर तले सक्रिय रहना है और कुछ नहीं।
Tags: politics