शगुन, हिमांशु, तरण देओल, सीमा प्रसाद
‘डाउन टू अर्थ’ से साभार
शहरीकरण भले ही विकास का एक पैमाना हो, लेकिन इसने हिमालय क्षेत्र को त्रासदी के मुहाने तक पहुंचाने में बड़ी भूमिका निभाई है। इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (आईसीआईएमओडी) की 2019 में प्रकाशित रिपोर्ट “द हिंदूकुश हिमालय असेसमेंट : माउंटेंस, क्लाइमेट चेंज, सस्टेनेबििलटी एंड द पीपल” के अनुसार, हिंदू कुश हिमालय (एचकेएच) क्षेत्र की सबसे बड़ी आबादी भारत में रहती है। एचकेएच आठ देशों (अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, चीन, भारत, म्यांमार, नेपाल और पाकिस्तान) में फैला हुआ है। भारत में यह आबादी करीब 5.03 करोड़ है। इसके बाद बांग्लादेश में 4.55 करोड़, अफगानिस्तान में 3.33 करोड़ और पाकिस्तान में 3.21 करोड़ आबादी है।
जर्नल ऑफ अर्बन एंड रीजनल स्टडीज ऑफ कंटेंपररी इंडिया में 2018 में प्रकाशित कुमांऊ विश्वविद्यालय के प्रकाश सी तिवारी, अभिनव तिवारी और भगवती जोशी के अध्ययन “अर्बन ग्रोथ इन हिमालय : अंडरस्टैंडिंग द प्रोसेस एंड ऑप्शंस फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट” के अनुसार, 1901 से 2011 के बीच भारतीय हिमालय रेंज की जनसंख्या में 567.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यह वृद्धि राष्ट्रीय जनसंख्या वृद्धि के मुकाबले दोगुनी होकर 1,358.5 प्रतिशत हो गई है। हालांकि, वृद्धि की दर अलग-अलग राज्यों में भिन्न है (देखें, जनसंख्या का दबाव, पेज 32)। अध्ययन के मुताबिक, जहां मिजोरम ने 2001 से 2011 के बीच 52.6 प्रतिशत की जनसंख्या वृद्धि दर्ज की, वहीं हिमाचल प्रदेश और असम की पहाड़ियों में जनसंख्या वृद्धि लगभग नगण्य थी क्योंकि ये दोनों राज्य स्थलाकृतिक रूप से अधिक दुर्गम हैं, शहरी विकास के लिए यहां बहुत कम गुंजाइश है।
भारत में 1,400 मील लंबी हिमालय पर्वत श्रृंखला जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा और मेघालय जैसे दस राज्यों और पश्चिम बंगाल (दार्जिलिंग जिला) और असम (दीमा हसाओ और कार्बी आंगलोंग जिले) के दो पहाड़ी क्षेत्रों में फैली हुई है। हिमालय में शहरी आबादी की वृद्धि दर 34.6 प्रतिशत थी, जो देश की औसत वृद्धि (31.8 प्रतिशत) से अधिक थी। 2011 की जनगणना के अनुसार, इस क्षेत्र में 540 शहर शामिल थे जिसमें 174 जनगणना कस्बों को जोड़ा गया था। औसतन 5,000 की आबादी वाले ये शहर और कस्बे ज्यादातर तराई, भाबर, दून और नदी घाटियों के मैदानी क्षेत्रों में स्थित है।
अध्ययन के अनुसार, हिमालय में स्थित कस्बों की औसत जनसंख्या देश की औसत (22,369 बनाम 61,109) का एक तिहाई है। ऐसा पर्वतीय इलाकों में परिवहन साधनों के विकास में आने वाली कठिनाइयों और प्राकृतिक संसाधनों की सीमाओं के कारण है। हिमालय क्षेत्र में एक-तिहाई शहरों की जनसंख्या 2,000 प्रति वर्ग किमी से अधिक नहीं है और 142 (26 प्रतिशत) कस्बों की आबादी 2,000 से 4,000 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी के बीच है। अध्ययन के मुताबिक, “इससे पता चलता है कि हिमालयी शहरी केंद्र शिथिल रूप से बसे हुए हैं और स्थलाकृतिक परिस्थितियां ज्यादा आवास निर्माण के अनुकूल नहीं हैं।”
अध्ययन के अनुसार, इन कस्बों का औसत घनत्व जम्मू और कश्मीर के पुराना दरूढ़ के न्यूनतम 49 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी से लेकर उत्तराखंड के शफीपुर (हरिद्वार) में अधिकतम 85,654 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी तक है। केवल तीन कस्बों में प्रति वर्ग किमी में 50,000 से अधिक व्यक्ति हैं। ये कस्बें हैं, उत्तराखंड (नैनीताल) का फतेहपुर रेंज (63,955 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी), शफीपुर (85,654) और जम्मू और कश्मीर का पट्टन (69,778 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी)। यहां 2001 से अब तक लगभग 72 प्रतिशत जनसंख्या वृद्धि दर्ज की गई है। 2011 तक ग्रामीण क्षेत्रों से लोगों के भारी पलायन के कारण भी ऐसा हुआ है। शफीपुर और पट्टन जैसे कस्बे मैदानी क्षेत्रों में स्थित हैं और अन्य हिमालयी शहरी कस्बों की तुलना में यहां अधिक संस्थागत और आवास सुविधाएं हैं।
जर्नल ऑफ अर्बन एंड रीजनल स्टडीज ऑफ कंटेंपररी इंडिया में 2021 में प्रकाशित बीआर पंत व रघुबीर चंद के अध्ययन “ए जियोग्राफिकल स्टडी ऑफ द हिमालय टाउंस ऑफ इंडिया” के अनुसार, उत्तराखंड में शहरी आबादी का विकास 1971 से 2011 के बीच के दो दशकों में तेजी से हुआ। परिणामस्वरूप सड़कों का व्यापक नेटवर्क बना और गांव से शहर की ओर पलायन बढ़ा। यह सड़क नेटवर्क 1991 के 44,332 किमी से बढ़कर 2011 में 49,277 हो गया, जो ग्रामीण बस्तियों को शहरी केंद्रों से जोड़ता है।
उत्तराखंड पर हुए इस अध्ययन में कहा गया है कि इसके परिणामस्वरूप पारंपरिक फसलों की खेती और पशुपालन से इतर फल, सब्जियां, फूल, दूध का उत्पादन शुरू हुआ जिसे पास के गांवों से लेकर नजदीकी शहरी बाजारों में बिक्री के लिए भेजा जाने लगा। गांवों के उत्पादन पैटर्न में यह बड़ा बदलाव था। अध्ययन कहता है कि हिमालय में कस्बों के विकास के कारण, वन आधारित कृषि जो ग्रामीण भोजन और आजीविका का मुख्य स्रोत थी, घटती चली गई। अध्ययन में कहा गया है कि ऐसा तब है जब कृषि योग्य भूमि की उपलब्धता कुल क्षेत्रफल का केवल 15 प्रतिशत है और खाद्य उत्पादन क्षेत्र की वार्षिक खाद्यान्न आवश्यकता का मात्र 35 प्रतिशत ही पूरा करता है। अध्ययन के अनुसार, “निर्वहन की दिक्कतों के कारण, वयस्क पुरुष आबादी का एक बड़ा हिस्सा रोजगार की तलाश में क्षेत्र से बाहर चला जाता है। इसलिए, हिमालय में शहरीकरण मुख्य रूप से ग्रामीण पलायन से प्रेरित आजीविका में कठिनाई का परिणाम है।”
सामाजिक और गंगा आह्वान कार्यकर्ता हेमंत ध्यानी ने डाउन टू अर्थ को बताया कि उत्तराखंड में समतल मैदान बहुत कम हैं। नदियों या सड़कों के पास जोशीमठ जैसे पुराने भूस्खलन के मलबे पर ही इमारतों का निर्माण किया जा सकता है। इस राज्य में सड़क नेटवर्क 1960 के दशक में विस्तारित हुआ जब भारत-चीन युद्ध का समय था। फिर, 20 साल पहले तब और विस्तार हुआ जब उत्तराखंड एक अलग राज्य बना। ध्यानी ने कहा, “पहाड़ों में एक छोटे से शहर की कितनी क्षमता हो सकती है, इसे निर्धारित करने की कोई योजना नहीं है।”
पहाड़ों के शहरी इलाकों में भूजल भंडार कम हो गया है क्योंकि अधिकांश वर्षा सतही अपवाह के माध्यम से हम खो देते है और यह भूमि उपयोग के बदलते पैटर्न के कारण होता है जिसने इस क्षेत्र के कस्बों और शहरों के जल विज्ञान को बदल दिया है। प्रकाश सी तिवारी, अभिनव तिवारी और भगवती जोशी के अध्ययन में कहा गया है कि झीलों में पानी कम हो रहा है और झरने सूख रहे हैं। अध्ययन में कहा गया है, “45 प्रतिशत प्राकृतिक झरने सूख गए हैं और 21 प्रतिशत मौसमी हो गए हैं। 1985-2015 के दौरान नैनीताल के शहरीकृत झील क्षेत्र के जल प्रवाह में 11 प्रतिशत की गिरावट आई है।” इतना ही नहीं, भीमताल और नैनीताल झीलों की क्षमता पिछली शताब्दी के दौरान गाद के कारण क्रमशः 5,494 और 14,150 क्यूबिक मीटर घट गई है। 30 सालों से शहरी सीमा के आसपास के क्षेत्रों ने हर साल कृषि भूमि का नुकसान झेला है। उत्तराखंड हिमालय के तीन कस्बों, पिथौरागढ़ (12.97 प्रतिशत), बागेश्वर (11.36 प्रतिशत) और अल्मोड़ा (11.36 प्रतिशत) ने शहरी क्षेत्रों के निर्माण के दौरान अतिक्रमण की उच्चतम दर मिली।
स्पेशल सेंटर फॉर डिजास्टर रिसर्च, जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी ने अपने एक अध्ययन में पिछले दो दशकों में पश्चिमी हिमालय के धर्मशाला और पिथौरागढ़ में उभरते शहरी केंद्रों में भूमि उपयोग पैटर्न की मात्रा निर्धारित करने का प्रयास किया। यह कार्य स्कूल ऑफ एनवायरमेंटल साइंस, जेएनयू के प्रोफेसर पीके जोशी द्वारा किया गया था। पीके जोशी ने कहा,“धर्मशाला और पिथौरागढ़ अपने वनस्पति आवरण के संदर्भ में शहरीकरण से प्रभावित हैं। लेकिन भौगोलिक कारणों से प्रभाव की मात्रा भिन्न होती है। जैसे धर्मशाला में शहरीकरण के लिए जब भू-उपयोग बदला तो इसने यहां के प्राकृतिक वनस्पति आवरण को कुछ नुकसान पहुंचाया जबकि पिथौरागढ़ में बड़े पैमाने पर भूमि उपयोग परिवर्तन से वनस्पति आवरण का काफी नुकसान हुआ।”
बेलगाम पर्यटन
हिमालयी राज्यों में बेलगाम पयर्टन ने भले राज्यों के आर्थिक उन्नति के द्वार खोले हों लेकिन इसने पारिस्थितिक क्षरण को भी तीव्र किया है। नीति आयोग द्वारा 2018 में जारी रिपोर्ट “सस्टेनेबल टूरिज्म इन इंडियन हिमालयन रीजन” के मुताबिक, 2025 के अंत तक भारत के हिमालय क्षेत्र में घुमक्कड़ी के लिए जाने वाले पर्यटकों की संख्या 24 करोड़ पार कर जाएगी। पर्यटकों के इस बोझ से हिमालय में समस्याएं और बढ़ जाएंगी। अगर यह अनुमान सही निकला तो इस क्षेत्र में सबसे बड़ा खतरा जंगलों पर मंडरा रहा है। हिमालय अपनी हरियाली खो सकता है। इस खतरे को लद्दाख के उदाहरण से समझ सकते हैं। 1974 में सिर्फ 527 पर्यटक वहां घूमने गए थे। उसके बाद से यह संख्या लगातार बढ़ती गई और 2011 में 1.42 लाख पर्यटक लद्दाख पहुंचे। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि सारे पहाड़ी राज्य ईको-टूरिज्म के लिए अपनी-अपनी पॉलिसी और प्लान तो बना रहे हैं, लेकिन इस राह में आने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए सभी राज्य तैयार नहीं हैं।
लद्दाख ईकोलॉजिकल डेवलपमेंट एंड एनवायरमेंटल ग्रुप (एलईडीईजी) ने 2017 में पता लगाया कि स्थानीय लोग जहां हर दिन सिर्फ 25 लीटर पानी खर्च कर रहे थे, वहीं पर्यटक रोजाना 75 लीटर पानी बहा देते थे। कई होटलों में रोजाना पानी की खपत 5 हजार लीटर प्रतिदिन तक पहुंच गई है। लद्दाख में हर साल करीब ऐसे 25 होटलों के रजिस्ट्रेशन को अनुमति मिल रही है। ऐसे में पानी की खपत दिनोंदिन बढ़ती जा रही है।
पर्यटकों की संख्या लगातार बढ़ रही है लेकिन इसके परिणामों पर किसी का ध्यान नहीं है। यहां तक कि पहाड़ इस बोझ को उठा भी सकते हैं या नहीं, इसे भी नजरअंदाज कर दिया जा रहा है। यह समस्या स्थानीय लोगों के साथ ही बाहर से आने वालों और नीति निर्माताओं के एक तबके को अब परेशान कर रही है जिसके चलते जम्मू-कश्मीर स्थित वैष्णो देवी जाने वाले श्रद्धालुओं की भीड़ को नियंत्रित करने, हिमाचल के रोहतांग पास में पर्यटकों की संख्या सीमित करने और सिक्किम के धार्मिक पर्यटनस्थलों में सस्टेनेबल टूरिज्म शुरू करने जैसे कुछ सकारात्मक कदम उठाए जा सके हैं। हालांकि, कुछ हद तक सफलता मिलने के बावजूद बड़े पैमाने पर इन्हें लागू नहीं किया जा सका।
केंद्र सरकार भारत के हिमालयी क्षेत्रों में पयर्टन को बढ़ावा देने के लिए हर साल करोड़ों रुपए आवंटित करती है। 2014-15 में स्वदेश दर्शन स्कीम के तहत सिक्किम को 98 करोड़ रुपए आवंटित किए गए, ताकि वहां नॉर्थ ईस्ट इंडिया सर्किट तैयार किया जा सके। इसी तरह, 2016-17 में ईको सर्किट बनाने के लिए उत्तराखंड को 80 करोड़ रुपए आवंटित किए गए, जिनमें से 16 करोड़ रुपए राज्य को मिले। इसी तरह, मिजोरम को भी केंद्र सरकार से 94 करोड़ रुपए आवंटित हुए। 2017 में पर्यटन मंत्रालय ने ‘तीर्थयात्रा कायाकल्प और आध्यात्मिक संवर्द्धन अभियान’ (प्रसाद स्कीम) के तहत करोड़ों रुपए आवंटित किए।
हिमाचल प्रदेश में सस्टेनेबल टूरिज्म के बारे में टेरी (द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट) और मेट्रोइकोनॉमिका ने 2013 में एक रिपोर्ट जारी की जिससे पता चलता है कि पर्यटकों की भीड़ के चलते पहाड़ों पर बढ़ते बोझ को कम करने की जरूरत है। बुनियादी संसाधनों के विकास के दौरान पानी की आपूर्ति, ठोस कचरे व गंदे पानी के निस्तारण की अनदेखी नहीं की जा सकती।
वर्ल्ड टूरिज्म ऑर्गेनाइजेशन और यूनाइटेड नेशंस एनवायरमेंट प्रोग्राम (यूएनईपी) ने 2005 में पर्यटन स्थलों की वहन क्षमता से जुड़े सुझाव जारी किए थे, ताकि कानूनी तौर पर प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल से टिकाऊ पर्यटन को बढ़ावा मिल सके और प्राकृतिक धरोहरों का संरक्षण किया जा सके। लेकिन, एक्सपर्ट्स का कहना है कि न तो ऐसा कोई कानून अब तक बनाया गया है और न ही पॉलिसी मेकर्स में इसके लिए कानून बनाने की इच्छा दिख रही है।
नए पर्यटन सर्किट तैयार करने के लिए केंद्र सरकार की तरफ से कई सुझाव दिए गए हैं। इनमें पर्यटकों से मिलने वाले राजस्व को बढ़ाने के लिए उनसे ग्रीन सेस जैसे टैक्स वसूलने, पर्यावरण संरक्षण के लिए पारिस्थितिकी सेवा भुगतान (पीईएस) या ग्रीन बोनस की व्यवस्था करने जैसे मुद्दे शामिल हैं। ईको टूरिज्म के विकास, स्थानीय लोगों के रोजगार और सांस्कृति संरक्षण के लिहाज से ये कदम महत्वपूर्ण हैं। केंद्र की तरफ से ये सुझाव भी दिए गए हैं कि संरक्षित क्षेत्रों और प्राकृतिक धरोहरों पर सीमित संख्या में ही पर्यटकों को जाने की अनुमति दी जानी चाहिए। पर्यटन स्थलों पर प्रॉपर्टी की खरीद-फरोख्त के लिए कानून बनाने चाहिए।
नर्मदा बचाओ आंदोलन की अगुवा रहीं मेधा पाटेकर कहती हैं कि पर्यावरण पर पड़ रहे असर और उसके मूल्यांकन के लिए केंद्र सरकार की तरफ से करवाए जाने वाले शोध आमतौर पर काफी कमजोर होते हैं। उन्होंने डाउन टू अर्थ से कहा कि किसी परियोजना के शुरू होने से पहले पर्यावरण पर उसके संभावित असर के मूल्यांकन के साथ ही बाद में उस इलाके पर पड़े असर पर भी शोध होना चाहिए। पाटेकर कहती हैं कि विकास परियोजनाओं के बारे में स्थानीय लोगों ने बार-बार अपनी चिंताएं जाहिर कीं, लेकिन सरकार ने हर बार उनकी अनदेखी कर दी। लोग पीढ़ियों से पर्यावरण की अहमियत और कानूनी तौर पर प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल के बारे में जानते हैं। इसलिए इस बात का खयाल रखा जाना चाहिए।
वह कहती हैं कि अगर जोशीमठ में लोगों के घर और होटल ध्वस्त होते हैं, तो हिमालय में चल रही जलविद्युत परियोजनाओं और अन्य बुनियादी ढांचे के विकास को भी नष्ट कर दिया जाना चाहिए। पाटेकर कहती हैं, “लोगों को क्रांति लानी होगी या फिर सरकार पर वैसा ही दबाव बनाना होगा, जैसा 2020 में किसान आंदोलन के दौरान देखा गया था। ताकि, सरकार झुकने के लिए मजबूर हो जाए और हिमालय के लोगों की जरूरतों, उनकी मांगों को सुनें।
पर्यावरण क्षरण
अनेक प्राकृतिक और मानवजनित कारणों से होने वाले भूमि-अपक्षरण, सूखते हुए नदी-झरने, बदलते हुए नदी मार्ग पूरे भारतीय हिमालय क्षेत्र को विनाश की खाई में धकेलने को आतुर दिखते हैं। लेकिन वस्तुतः यह वनों की अंधाधुंध कटाई ही है, जो इनमें से अनेक समस्याओं का मुख्य कारण है।
जंगलों की कटाई वह पुराना दुःस्वप्न है, जो दशकों से चला आ रहा है। 2006 में नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर के स्कॉलर्स प्रोग्राम के सीनियर विजिटिंग फेलो महाराजा पंडित ने 1970 और 2000 के बीच के वर्षों में वन-उन्मूलन की प्रवृति का अध्ययन करने वाले शोधार्थियों के एक दल की अगुआई की थी। इस दल के निष्कर्ष के अनुसार, इस क्षेत्र ने अपनी वन संपदा का 15 प्रतिशत अंश इसी अवधि में गंवा दिया। इस दल के एक आकलन के अनुसार, वर्ष 2100 तक भारतीय हिमालय क्षेत्र का मात्र 10 प्रतिशत इलाका ही बचा रहेगा जो घने वनों से आच्छादित होगा। पश्चिमी हिमालय का वनों से घिरा क्षेत्र 2000 में 61 प्रतिशत से घटकर 2100 के आते-आते केवल 16.8 प्रतिशत बचेगा और पूर्वी हिमालय में वनों के क्षेत्र में यह गिरावट 76.2 प्रतिशत से घट कर 38.7 प्रतिशत हो जाएगी। इस दृष्टि से सिक्किम का आंकड़ा सबसे अप्रत्याशित सिद्ध होगा जो धीमी गति से वनों की कटाई के बावजूद वर्ष 2100 तक सबसे कम वनाच्छादित राज्य होगा। रिपोर्ट के अनुसार, “वनों का उन्मूलन और उनके दुष्प्रभावों को सबसे अधिक तेजी राज्य के भौगोलिक रूप से छोटे होने से मिली है। सिक्किम का लगभग 50 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र वृक्षरेखा (टिंबरलाइन) से बाहर पड़ता है जहां जंगल का विकास संभव नहीं है।”
स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट 2021 के अनुसार, 2019 की तुलना में देश के पहाड़ी जिलों के वन आवरण में 902 वर्ग किलोमीटर की गिरावट दर्ज की गई है। यह गिरावट हिमालय-क्षेत्र के राज्यों में अधिक स्पष्ट दिखती है। इन राज्यों में यह 1,072 वर्ग किलोमीटर है। पूर्वोत्तर क्षेत्र के साथ तुलना करने पर यह भौगोलिक अंतर और अधिक भयावह दिखाई देता है। स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट 2019 के अनुसार, अरुणाचल प्रदेश (16 पहाड़ी जिले) ने कुल 257 वर्ग किलोमीटर वन आवरण गंवा दिया, जबकि मणिपुर (नौ पहाड़ी जिले) में यह अनुपात 249 वर्ग किलोमीटर, नागालैंड (11 पहाड़ी जिले) में 235 वर्ग किलोमीटर, मिजोरम (आठ पहाड़ी जिले) में 186 वर्ग किलोमीटर, असम (तीन पहाड़ी जिले में) 107 वर्ग किलोमीटर, मेघालय (सात पहाड़ी जिले) में 73 वर्ग किलोमीटर, त्रिपुरा (चार पहाड़ी जिले में) 4 वर्ग किलोमीटर, सिक्किम (चार पहाड़ी जिले में) 1 वर्ग किलोमीटर की गिरावट हुई है। हालांकि कुछ राज्यों में वन आवरण में मामूली वृद्धि भी देखी गई है।
हिमालय क्षेत्र में वनों के विनाश के विविध कारण हैं। आईसीआईएमओडी रिपोर्ट के अनुसार 1980 के दशक में भारतीय हिमालय क्षेत्र में 1,432 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर कृषि योग्य भूमि पर निर्भर थे। मैदानी इलाकों में यह आंकड़ा 483 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर था। रिपोर्ट के मुताबिक, “यह स्थिति स्वयं में इस बात का सूचक है कि विगत सालों में नए वनक्षेत्रों और सामुदायिक भूमियों का अतिक्रमण कितनी निर्ममतापूर्वक किया गया है।” अन्य कई दूसरे कारणों के अतिरिक्त वन-उन्मूलन मिट्टी के अपक्षरण की गति को तेज करता है। यह अपक्षरण पश्चिमी और पूर्वी हिमालय-क्षेत्र में भिन्न रूपों में दिखाई देता है। उत्तर पश्चिमी पहाड़ियों (जहां औसतन 350-3,000 मिमी सालाना बारिश होती है) की तुलना में पूर्वोत्तर पहाड़ियों में अधिक बारिश (1,500-11,500 मिमी सालाना) होने के कारण इस क्षेत्र में मिट्टी का अपक्षरण अधिक और तेजी से होता है। उत्तर पश्चिमी क्षेत्र में यह अपक्षरण 22.3 प्रतिशत होता है जो पूर्वोत्तर क्षेत्र के 12.6 प्रतिशत से कहीं अधिक है। यह निष्कर्ष अप्रैल 2022 में करेंट साइंस जर्नल में प्रकाशित “कॉजेज एंड कंसक्वेशेज ऑफ सोइल इरोजन इन नार्थइस्टर्न हिमालया, इंडिया” नामक रिपोर्ट पर आधारित है।
इस क्षेत्र के भूमि अपक्षरण में 30 प्रतिशत भूमिका जलक्षरण की भी है। ऊपर उल्लिखित अध्ययन के अनुसार, नागालैंड के भूमि के तकरीबन आधे अपक्षरण (47.05 प्रतिशत) के लिए जलक्षरण जिम्मेदार है, मणिपुर में यह आंकड़ा 33.21 प्रतिशत और अरुणाचल प्रदेश में 11.74 प्रतिशत है। चोटी, टीले, ढलान, घाटी और दोआब जैसे विविध भूमि क्षेत्रों में मिट्टी का अपक्षरण एक भौगोलिक परिघटना है जो बृहत्तर हिमालय, मध्य हिमालय और शिवालिक क्षेत्र में कम अथवा अधिक मात्रा में सतत जारी है।
यह निष्कर्ष एग्रोपेडोलोजी जर्नल में 2014 में प्रकाशित रपट “सोइल्स ऑफ नॉर्थ-वेस्टर्न हिमालयन एको-सिस्टम एंड देयर लैंड यूज, कंस्ट्रेन्ट्स, प्रोडक्टिविटी पोटेंशियल एंड फ्यूचर स्ट्रैटजी” पर आधारित है। कंजर्वेशन एग्रीकल्चर में 2016 में हिमाचल प्रदेश पर प्रकाशित केस-स्टडी के अनुसार, भौगोलिक स्थिति, वनस्पति, औसत वर्षा और वनाच्छादन मिट्टी के अपक्षरण के महत्वपूर्ण कारण हैं। हिमाचल प्रदेश के कुल क्षेत्रफल का 34 प्रतिशत हिस्सा भारी अपक्षरण, 16 प्रतिशत हिस्सा सामान्य अपक्षरण और 2 प्रतिशत हिस्सा अति गंभीर (भूस्खलन की घटना और आशंका वाले क्षेत्र) अपक्षरण की श्रेणी में आता है।
हिमालय से निकलने वाली नदियां और सहायक नदियां भारत के जल संसाधनों के दो तिहाई की साझीदार है। हिमालय के विशालतम ग्लेशियर पिघल कर जिन नदियों का हिस्सा बनते हैं, उनमें गंगा, ब्रह्मपुत्र, सिंधु, बराक और भारतीय हिमालय-क्षेत्र से निकलने वाली दूसरी बड़ी नदियां शामिल हैं। इन ग्लेशियरों से पानी प्राप्त करने के बाद ही ये नदियां सालों भर सिंचाई के संसाधन और पनबिजली परियोजनाओं के उपयोग में आती हैं और साथ-साथ पारिस्थितिकी तंत्र को भी बहाल रखती हैं। बहरहाल निचले इलाकों में पानी का बहाव जलवायु के गर्म होने, ग्लेशियर-क्षेत्र में बदलाव और बरसात के पैटर्न पर निर्भर है।
विशेषज्ञ कहते हैं, “इस क्षेत्र में तापमान में वृद्धि होने से बर्फ के पिघलने की गति में भी वृद्धि होगी और परिणाम यह होगा कि निचले इलाकों में जलबहाव में पहले तो तेजी दर्ज की जाएगी और उसके बाद गति धीरे-धीरे कमी आ जाएगी। हालांकि इन इलाकों में शुरुआती दौर में बढ़े तापमान और ग्लेशियर के पिघलने की रफ्तार के कम होने की क्षतिपूर्ति भविष्य में अच्छी बरसात से हो सकती है, लेकिन तापमान में वृद्धि बरसात के स्वरूप पर असर डाल सकती है। ऐसी स्थिति में बरसात के समय और भंडारण दोनों पर इसका बुरा असर पड़ सकता हैं।”
विद्युत परियोजनाएं
जलविद्युत परियोजनाएं हिमालय के नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र को असंतुलित करती हैं। भारत में जलविद्युत परियोजनाओं का इतिहास लगभग 120 साल पुराना रहा है। 1897 में तीस्ता नदी की क्षमता का उपयोग करते हुए दार्जिलिंग की पहाड़ियों में 130 किलोवाट की पहली छोटी जलविद्युत परियोजना शुरू की गई थी।
1905 और 1932 में क्रमशः जम्मू व कश्मीर और हिमाचल प्रदेश के हिमालयी राज्यों में जलविद्युत परियोजनाएं विकसित की गईं। फिर स्वतंत्रता के बाद बड़े पैमाने पर बहुउद्देशीय बांध परियोजनाएं भी विकसित की गईं। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इन बांधों को ‘भारत के आधुनिक मंदिरों’ का दर्जा दिया। जोशीमठ में जो हो रहा है, उसकी पुनरावृत्ति से बचने के लिए कई विशेषज्ञों ने सरकार से हिमालयी क्षेत्र में सभी जलविद्युत परियोजनाओं को बंद करने का आग्रह किया है। 30 नवंबर, 2022 तक की डेटा के अनुसार भारत की स्थापित बिजली उत्पादन क्षमता 46,850 मेगावाट है। तीन हिमालयी राज्यों- हिमाचल प्रदेश (10,263 मेगावाट), उत्तराखंड (3,975.35 मेगावाट) और जम्मू व कश्मीर (3,360 मेगावाट) में सबसे अधिक उत्पाद क्षमता है। वर्तमान में भारत के 12 हिमालयी राज्यों में 25 मेगावाट की क्षमता वाली कुल 86 बड़ी परियोजनाएं संचालित हैं। 20 ऐसी भी परियोजनाएं हैं, जिन पर सक्रिय निर्माण-कार्य चल रहा है।
हिमालयी क्षेत्र दुनिया के सबसे अधिक सक्रिय भूकंपीय क्षेत्रों में से भी एक है और भूगर्भीय अस्थिरता के प्रति संवेदनशील हैं। जलविद्युत परियोजनाओं में शामिल ब्लास्टिंग और डायनामाइटिंग जैसी प्रक्रियाएं इन अस्थिरताओं को और बढ़ाती ही हैं। इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस (आईएसबी), हैदराबाद के अनुसंधान निदेशक अंजल प्रकाश कहते हैं, “हिमालय दुनिया में घनी आबादी वाले पर्वतीय क्षेत्रों में से एक है और वैज्ञानिक पहले से ही उत्तराखंड में एक बड़े भूकंप की आमद की चेतावनी दे चुके हैं।” प्रकाश जलवायु परिवर्तन पर गठित अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की विशेष रिपोर्ट के समन्वयक और प्रमुख लेखक भी थे।
7 फरवरी, 2021 को चमोली आपदा के बाद भी बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं पर चर्चा हुई थी। चमोली जिले में ही जोशीमठ आता है। हाल ही में चमोली जिला एक हिमस्खलन की वजह से अभूतपूर्व बाढ़ से प्रभावित हुआ था, जिससे दो जलविद्युत परियोजनाओं – तपोवन विष्णुगाढ़ और ऋषिगंगा को नुकसान भी पहुंचा था। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) ने अप्रैल 2022 में एक रिपोर्ट पेश की थी। इस रिपोर्ट के अनुसार, प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली की कमी के लिए जिला आपदा प्रशासन के साथ-साथ जलविद्युत परियोजना अधिकारी भी जिम्मेदार हैं। अधिकांश मौजूदा या निर्माणाधीन परियोजनाओं की परिकल्पना 10-15 साल पहले की गई थी और वर्तमान वैज्ञानिक आंकड़ों के आधार पर इनका पुनर्मूल्यांकन करने की सख्त जरूरत है।
प्रकाश कहते हैं, “पुराने आंकड़ों के आधार पर हम आज की परियोजनाओं को मंजूरी नहीं दे सकते। आज जलवायु परिवर्तन बहुत स्पष्ट है और हम जलवायु परिवर्तन में आए हाल के रुझानों और परिवर्तनों को ध्यान में रखे बिना कुछ भी योजना नहीं बना सकते।”
बांधों, नदियों और लोगों पर काम करने वाली दक्षिण एशियाई नेटवर्क संस्था एसएएनडीआरपी (सैंड्रप) द्वारा संकलित डेटा के अनुसार, 2021 में कम से कम 11 जलविद्युत परियोजनाओं को बादल फटने से आई बाढ़ से नुकसान का सामना करना पड़ा। इसमें उत्तराखंड और हिमाचल में चार-चार, जम्मू-कश्मीर में दो और लद्दाख में एक परियोजना शामिल है।
2013 में केदारनाथ में अचानक आई बाढ़ के बाद सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड में जलविद्युत परियोजनाओं के विस्तार पर रोक लगा दी थी। तब पर्यावरणविद् रवि चोपड़ा के नेतृत्व में अलकनंदा और भागीरथी बेसिन के 24 प्रस्तावित जल विद्युत परियोजनाओं की स्थिति की जांच करने के लिए मंत्रालय द्वारा 17 सदस्यीय विशेषज्ञ समिति का गठन भी किया गया था। समिति ने 23 परियोजनाओं द्वारा क्षेत्र की पारिस्थितिकी पर पड़ने वाले अपरिवर्तनीय प्रभाव के बारे में अपनी रिपोर्ट दी। हालांकि तब से इस मामले में 30 सुनवाई हुई है, लेकिन इसके बाद भी जलविद्युत परियोजनाओं पर सरकार की नीति भ्रामक है। 2019 में जल शक्ति मंत्रालय ने उपरोक्त 24 परियोजनाओं में से लगभग छह को मंजूरी भी दे दी। पर्यावरण कार्यकर्ता मानसी अशर कहती हैं, “जब आप हिमालयी क्षेत्र में भूमिगत होकर काम करते हैं तो जाहिर है कि क्षेत्र का भूविज्ञान और भूजल विज्ञान दोनों प्रभावित होगा। हालांकि स्थानीय लोगों पर प्रभाव निर्माण कार्य शुरू होने के बाद ही स्पष्ट हो पाता है।”
मानसी, जलविद्युत परियोजनाओं में निर्मित होने वाले सुरंग व अन्य भूमिगत निर्माण से पैदा होने वाले असंतुलन का अध्ययन करने वाली डोजियर कमेटी का हिस्सा थीं। “रन-ऑफ-द-रिवर” आधारित जलविद्युत तकनीक उन परियोजनाओं के निर्माण में काम आती है, जहां पर बड़े पैमाने पर विस्थापन की आवश्यकता नहीं होती है। इस तकनीक में जलमग्न क्षेत्र बहुत छोटा होता है क्योंकि ड्रिलिंग भूमिगत होती है। मानसी ने बताया, “इस तकनीक में आप पानी को बांधते हैं और इसे एक भूमिगत सुरंग की ओर मोड़ते हैं। फिर इसके बाद इसे एक खड़ी ढलान देते हैं और जहां भी सुरंग नदी के तल पर वापस खुलती है आप वहां एक टरबाइन बना देते हैं। इस डिजाइन के अनुसार, नदी तल पर बहने की बजाय सुरंग में बहती है। इस परियोजना में परियोजना प्रभावित परिवारों की संख्या कम होती है क्योंकि भूमि का प्रत्यक्ष अधिग्रहण न्यूनतम होता है। हालांकि पहाड़ की चोटी पर स्थित वे गांव जिनके नीचे सुरंग खोदी जा रही होती है, वे सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। उन पर प्रभाव निर्माण शुरू होने के बाद ही सामने आ पाता है।”
पिछले तीन वर्षों में अरुणाचल प्रदेश में भी “लोअर सुबनसिरी जलविद्युत परियोजना” के निर्माण स्थल पर कई आपदाएं और दुर्घटनाएं घटित हुई हैं। यह 2006 से नेशनल हाइड्रो पावर कारपोरेशन (एनएचपीसी) लिमिटेड द्वारा विकसित की जा रही अब तक की सबसे बड़ी निर्माणाधीन जलविद्युत परियोजना है। इस परियोजना के इस साल विधिवत शुरू होने की संभावना है।
जलविद्युत क्षमताओं के कारण पूर्वोत्तर क्षेत्र को अक्सर भारत के “भविष्य के बिजली घर” के रूप में देखा जाता है। 30 मार्च 2022 तक 58,196.5 मेगावाट की क्षमता वाली देश में लगभग 98 जल विद्युत परियोजनाएं पाइपलाइन में हैं। इनमें से 12,663.5 मेगावाट की स्थापित क्षमता वाली 36 बड़ी जलविद्युत परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। बिजली और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्री आर के सिंह ने राज्यसभा में इसकी जानकारी दी थी। इन 36 में से सात परियोजनाओं को छोड़कर बाकी सभी हिमालयी क्षेत्र में हैं। इनमें से नौ हिमाचल प्रदेश, सात उत्तराखंड, पांच-पांच सिक्किम और जम्मू व कश्मीर व एक-एक अरुणाचल प्रदेश, असम और पश्चिम बंगाल में स्थित हैं।
क्या जलविद्युत परियोजनाएं आर्थिक रूप से न्यायसंगत हैं? इस प्रश्न के जवाब में प्रकाश बताते हैं, “ऐसी परियोजनाओं में निवेश पर रिटर्न नकारात्मक होता है। प्रत्येक की लागत लगभग 3,000-4,000 करोड़ रुपए होती है और निर्माण में कई साल लग जाते हैं। जलविद्युत का हरित ऊर्जा होना भी मिथक है क्योंकि जलविद्युत विकास की प्रक्रिया न केवल स्थानीय पारिस्थितिकी और पर्यावरण को प्रभावित करती है बल्कि स्थानीय संसाधनों और संस्कृति को भी नष्ट करती है। इससे स्थानीय लोग भी विस्थापित होते हैं।”
दूसरी ओर जलविद्युत परियोजनाओं में बिजली उत्पादन भी कम होता है। 2016-17 से 2021-22 तक की छह साल की अवधि में भारत की बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं ने कुल बिजली उत्पादन का लगभग 10 प्रतिशत योगदान दिया है। यह 2017-18 के दौरान सबसे कम 9.68 प्रतिशत था। एसएएनडीआरपी द्वारा किए गए एक विश्लेषण के अनुसार, इन छह वर्षों में से तीन वर्षों में बड़े जलविद्युत परियोजनाओं ने 10 प्रतिशत से भी कम का योगदान दिया और शेष वर्षों में केवल मामूली रूप से सुधार हुआ।