गोविन्द पंत ‘राजू’
भारत की राजनीति में किसान और फौज के जवान इन दोनों को केंद्र में रखकर अनेक नेताओं ने अपने मकसद साधे हैं। किसानों के नाम पर राजनीति करने वाले तो अनेक नेता वर्षों तक राजनीति में अपने हित साधते रहे। जय जवान और जय किसान का नारा देकर भारत में अनेक जातियों, धर्मों और खांचों में बंटे वोट बैंक को अपने पाले में करना देश की केंद्रीय राजनीति में कितना आसान है यह भी हम सब ने देखा है। मौजूदा केंद्र की सरकार भी इस मामले में अपवाद नहीं है मगर व्यावहारिक रूप में देखा जाए तो साफ नजर आता है कि मोदी सरकार अपने कार्यक्रमों और नीतियों के कारण जवान और किसान के मोर्चे पर लगातार आ बैल मुझे मार वाली नीति अपनाती जा रही है। एक ओर किसानों को अन्नदाता कहकर उन्हें खुश करने के लिए नई कृषि नीति लाने की सरकार की नीति बुरी तरह औंधे मुंह गिरी। लंबे समय तक विपक्ष के तीखे विरोध के साथ ही देश के किसानों के एक वर्ग को विरोध प्रदर्शन और आंदोलन का रास्ता अपनाना पड़ा और अंततः उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के ठीक पहले मोदी सरकार ने अपनी नई कृषि नीति को वापस ले ही लिया। अब ठीक इसी तरह सरकार ने सेना में भर्ती के लिए अग्निपथ नाम की नई योजना शुरू कर दी है।
साफ लगता है कि मोदी सरकार ने कृषि नीति के मामले से कोई सबक नहीं सीखा क्योंकि इस अग्निपथ योजना को लागू करते वक्त भी उसने वही सब गलतियां कीं जो वह कृषि नीति के मामले में कर चुकी थी। जिस तरह कृषि नीति के मामले में सरकार ने किसानों के साथ व्यापक संवाद और संसद में पर्याप्त चर्चा किये बगैर ही नई कृषि नीति लादने की कोशिश की ठीक उसी तरह सेना में भर्ती की नई नीति को भी देश के युवाओं से बिना बातचीत किए और संसद के सामने लाने से पहले ही लगभग चौंकाने वाले अंदाज में घोषित कर दिया।
यह नई भर्ती नीति अच्छी है या बुरी इस पर चर्चा करने से पहले यह समझना जरूरी है कि इस योजना की टाइमिंग को लेकर सरकार से कितनी बड़ी चूक हुई है। देश की रक्षा सेनाओं में हर वर्ष लगभग 60,000 सैनिकों की भर्ती होती है पिछले 2 वर्षों से कोविड के चलते यह भर्ती प्रक्रिया रुकी हुई थी और देश भर में कई लाख युवा भर्ती प्रक्रिया शुरू होते ही सेना में भर्ती के लिए अपनी दावेदारी लेकर बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। बहुत सारे युवाओं ने तो फिजिकल और मेडिकल के चरण पार भी कर लिए थे लेकिन सरकार ने अचानक एक नई भर्ती योजना लागू करके उनके सपनों पर पानी फेर दिया। सेना के अनेक रिटायर्ड अधिकारी इस बात को स्वीकार करते हैं कि सरकार को अग्निपथ योजना लागू करने से पहले कोविड के कारण रुकी हुई भर्तियों को पूरा कर लेना चाहिए था। जिन लोगों ने पहले चरण पार कर लिए थे उनको तो पुरानी भर्ती प्रक्रिया के अनुसार ही मौका दिया जाना चाहिए था।
नई योजना में भर्तियों की संख्या भी 2 साल की रिक्तियों को जोड़ कर डेढ़ लाख के आस पास होनी चाहिए थी ताकि दो साल की भर्तियों की भरपाई हो सके। मगर सरकार ने इस बात को पूरी तरह नजरंदाज कर दिया। इस बार अग्निवीर भर्ती के लिए युवाओं के गुस्से के बाद सरकार ने उम्र में दो वर्ष की छूट देकर साबित कर दिया है कि नई कृषि नीति की तरह ही सेना में नई भर्ती योजना की घोषणा के पूर्व सरकार ने पर्याप्त होम वर्क नहीं किया था। इसीलिए अब सरकार क्राइसिस मैनेजमेंट में जुट गई है और चार साल बाद बाहर होने वाले 75 फीसदी अग्निवीरों के लिए रक्षा मंत्रालय और गृह मंत्रालय की भर्तियों में 10-10 फीसदी आरक्षण की घोषणा की गई है। इसी तरह अनेक बीजेपी शासित सरकारों ने भी बाहर होने वाले अग्नि वीरों की नौकरी के लिए अपने-अपने राज्य में तरह-तरह के आरक्षण घोषित करने शुरू कर दिए हैं। देश के बड़े 85 कारपोरेट घरानों से बातचीत करके बाहर होने वाले अग्नि वीरों को नौकरी देने के लिए भी सरकार एक नीति बनाने का प्रयास कर रही है।
बीजेपी के नेता और मंत्री अब इस नीति के खिलाफ देश भर में उठ रहे विरोध के स्वरों और युवाओं के गुस्से को कांग्रेस, आरजेडी और अन्य विपक्षी दलों की चाल बता कर झेंप मिटाने की कोशिश कर रहे हैं, देश भर में प्रोपेगेंडा चलाकर इस योजना को गजवा ए हिंद के खिलाफ एक बड़ी योजना के रूप में प्रचारित करके सांप्रदायिक एजेंडा भी साधने की कोशिश तेज हो गई है। सोशल मीडिया में यह बताया जा रहा है कि अग्निपथ योजना का विरोध करने वाले लोग एक खास संप्रदाय से जुड़े हैं और यह विरोध नूपुर शर्मा के बयान के खिलाफ देशभर में हुए प्रदर्शनों और पथराव की ही अगली कड़ी है। सोशल मीडिया में एक मुहिम इस योजना के समर्थन में ज्यादा से ज्यादा अंगूठे लगाने की भी चलाई जा रही है। अब एक नया शिगूफा यह छोड़ा जा रहा है कि अग्निवीर योजना के विरोध में युवाओं को भड़काने के पीछे देशभर में फौज की भर्ती के लिए कोर्स और कोचिंग चलाने वालों का हाथ है क्योंकि इन लोगों ने मोटी रकम लेकर युवाओं को शर्तिया फौज में भर्ती करवाने की गारंटी ले रखी होती है। लेकिन सरकार के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि अगर उसे इस तथ्य की पहले से जानकारी थी तो उसने सतर्कता क्यों नहीं बरती ?
हम सब जानते हैं कि फौज हमारे देश में खासतौर और ग्रामीण इलाकों के लिए रोजगार का सबसे बड़ा साधन है। पंजाब, राजस्थान, हरियाणा, यूपी और अरुणाचल प्रदेश आदि राज्यों के ग्रामीण युवा बड़ी संख्या में भारतीय सेनाओं में रोजगार पाते रहे हैं। फौज में भर्ती होते वक्त ज्यादातर युवाओं के मन में रोजगार पाने की भावना ही सबसे पहले होती है। देश के लिए मर मिटने का जज्बा तो फौज की ट्रेनिंग के बाद उनके मन में भरता है। ऐसे समय में जबकि खेती लाभकारी नहीं रह गई और महंगाई की मार लगातार बढ़ती जा रही है, युवाओं के हाथ से सेना में भर्ती होकर रोजगार पाने की सबसे बड़ी उम्मीद भी छीन ली जा रही हो तो भला गुस्सा किसे नहीं आएगा ? उत्तराखंड जैसे राज्य के लिए तो यह बहुत ही नकारात्मक फैसला है। आंकड़े बताते हैं कि उत्तराखंड की प्रति दस लाख की आबादी में से फौज में भर्ती होने वालों की संख्या लगभग 281 होती है जबकि उत्तर प्रदेश में प्रति दस लाख यह संख्या सिर्फ 28 ही है। राज्य बनने से पहले भी उत्तराखंड के गांवों में आने वाले मनी आर्डरों में सबसे बड़ी संख्या फौजियों के मनीआर्डरों की ही होती थी। इस नए भर्ती सिस्टम से कुमाऊं रेजीमेंट और गढ़वाल राइफल्स में यूनिट हेडक्वार्टर कोटे के रहते एक्स सर्विसमैन और वीर नारी वाला कोटा भी प्रभावित होने जा रहा है। यानी इस कोटे में कटौती होने से भर्ती होने की संभावनाएं और कम हो जाएंगी।
अब बात करते हैं कि इस योजना पर सवाल क्यों उठ रहे हैं? हालांकि सरकार यह दावा कर रही है कि यह योजना बहुत सोच समझकर लागू की गई है और अगर सी डी एस जनरल बिपिन रावत की दुर्घटना में मृत्यु न हुई होती तो यह योजना उन्हीं के कार्यकाल में लागू हो जाती। यह माना जा रहा है कि भारतीय सेनाओं में सैनिकों की उम्र को लेकर रक्षा विशेषज्ञों को कारगिल युद्ध के दौरान ही चिंताएं होने लगी थीं। कारगिल युद्ध में उनतीस वर्षीय हनीफुद्दीन शहीद होने वाले सबसे बड़ी उम्र के सैनिक थे। शहीद होने वाले या गैलेंट्री अवार्ड पाने वाले ज्यादातर सैनिक कम उम्र वाले थे। सुब्रमण्यम कमेटी की रिपोर्ट में भी इस बात पर जोर दिया गया था कि फौज में भर्ती के लिए उम्र की निचली सीमा कम होनी चाहिए। मगर हमारी अति दूरंदेशी सरकार ने इस सिफारिश की आड़ में पूरी भर्ती प्रक्रिया ही बदल डाली। नई प्रक्रिया से अग्नि वीरों की उम्र बेशक कम हो जायेगी मगर क्या ये कम उम्र सैनिक भारतीय सेनाओं के सामने आने वाली चुनौतियों पर खरे उतर पाएंगे ? अभी एक सैनिक को कम से कम 63 से लेकर 72 हफ्ते की ट्रेनिंग दी जाती है लेकिन अग्नि वीरों को सिर्फ 26 हफ्ते की ही ट्रेनिंग मिलेगी। उस पर भी पूरे चार साल तक अनिश्चित भविष्य की तलवार उन पर लटकी रहेगी। ऐसे में क्या उनका सैन्य स्तर मौजूदा सैनिकों के बराबर हो पाएगा यह सवाल सैन्य विशेषज्ञों को भी सता रहा है।
लेकिन सरकार इस बात को लेकर सीना ठोक रही है कि अग्निपथ योजना के बाद फौज की औसत उम्र 32 वर्ष से घटकर 26 वर्ष हो जाएगी। ट्रेनिंग की अवधि कम होने से सेना के स्तर में किसी भी तरह की कमी नहीं आएगी इसके पक्ष में एक दलील यह है कि दूसरे विश्व युद्ध में अंग्रेजों ने भारत से लगभग 20 लाख रंगरूट भर्ती किए थे और उन्होंने युद्ध में अपने पराक्रम और रण कौशल से बड़ी बड़ी जीत हासिल की थीं हालांकि यह आंकड़ा देने वाले यह नहीं बताते इन नौसिखिए रंगरूटों में से कितनों ने उस युद्ध में अपनी जान गंवाई थी और कितने हमेशा के लिए अपंग बन गए थे। सरकार का दावा है कि नई शिक्षा नीति के लागू होने के बाद अग्निपथ योजना के तहत भर्ती होने वाले युवाओं को सैन्य ट्रेनिंग के साथ-साथ पढ़ाई की सुविधा भी मिलेगी। यानी अग्निवीर अगर हाई स्कूल पास होकर भर्ती हुआ है तो वह चार साल बाद इंटर पास होकर बाहर आएगा। इंटर पास भर्ती हुआ तो डिप्लोमा लेकर बाहर होगा। समझना मुश्किल है कि सरकार देश की सेना को मजबूत करने की योजना बना रही है अथवा कोचिंग संस्थान खोलने की।
चार साल बाद बाहर होने वाले अग्निवीरों को चूंकि कोई पेंशन नहीं देय होगी इसलिए इस योजना को रक्षा बजट में पेंशन के बढ़ते बोझ को कम करने वाले बड़े उपाय के रूप में भी प्रचारित किया जा रहा है। देश की सीमाओं में जिस तरह के खतरे बढ़ते जा रहे हैं उसे देखते हुए सिर्फ बजट संतुलन के लिए फौज को दांव पर लगाना किसी भी भारतीय के गले आसानी से उतर नहीं रहा। चार साल तक देश के लिए जान जोखिम में डालकर बिना पेंशन विदा कर देने वाली सरकार को एक साल बाद ही विधायक और सांसदों को पेंशन योग्य मान लेने में कोई संकोच नहीं मगर इस राष्ट्रवादी सरकार को अग्निवीरों की पेंशन स्वीकार्य नहीं।
सैन्य मामलों पर अनेक किताबें लिखने वाले रिटायर्ड मेजर जनरल ए के चतुर्वेदी इस योजना को रक्षा क्षेत्र में ऑप्टिमाइजेशन एक्सरसाइज के लिए भी एक चुनौती मानते हैं। इसके तहत बड़ी यूनिटों को छोटा करके आधुनिकीकरण को बढ़ावा दिया जाना है। जनरल चतुर्वेदी का मानना है कि अग्निवीर योजना के नतीजे सामने आने तक ऑप्टिमाइजेशन एक्सरसाइज को स्थगित करना चाहिए क्योंकि सीमाओं की स्थिति को देखते हुए भारत एक साथ दो बड़े रक्षा सुधारों का खतरा नहीं उठा सकता। अग्निवीर योजना के अनेक पहलुओं से सहमत होते हुए भी वे इस योजना से चार साल बाद बाहर होने वाले अग्नि वीरों के समायोजन को बहुत बड़ी चुनौती मानते हैं और यह स्वीकार करते हैं कि समायोजित न हो पाने वाले अग्नि वीर हिंसा, आतंकवाद और अपराध की ओर भटक सकते हैं।
अग्नि वीर योजना को भारतीय सेना की पुरानी रेजीमेंट संरचना के लिए भी एक खतरे के रूप में देखा जा रहा है। गढ़वाल, कुमाऊं, सिख, महार, राजपूत और जेक राइफल्स जैसी प्योर रेजीमेंट्स के लिए इस नई भर्ती प्रक्रिया के लागू होने के बाद अपना स्वरूप बनाए रखने में मुश्किल आएंगी। भारतीय सेना के पराक्रम और वीरता के पीछे रेजिमेंटल पहचान का बहुत बड़ा योगदान है। हर भारतीय सैनिक अपनी रेजीमेंट पर जिस तरह का गर्व करता है उसकी दूसरी मिसाल हो नहीं सकती। लेकिन क्या यह नई भर्ती व्यवस्था इस भावना पर कुठाराघात नहीं करेगी यह भी एक बड़ी चुनौती बनने वाली है।
अनेकता में एकता वाले हमारे देश में सेना ही वो सबसे बड़ी कारक है जो हम सब भारतीयों को स्वाभिमान से जीने की ताकत देती है। देश पर खतरे की स्थिति में सेना ही हम सबको जोड़ती है, राजनीतिक दलों की परस्पर विरोधी खेमेबंदी को रोकती है और भारतीयता को मजबूत करती है। लेकिन इसी सेना के निर्माण की पूरी संरचना को ही एक झटके में पलट देने से पहले हमारी लोकतांत्रिक सरकार ने न सेना में भर्ती के इच्छुक युवाओं से कोई संवाद किया न विपक्ष को विश्वास में लिया और न ही संसद को। अग्निवीर योजना का सबसे खेदजनक, सबसे शर्मनाक और संदेह पैदा करने वाला पहलू यही है।