कप्तान सिंह
लोकतंत्र का पहला बुनियादी तत्व है कानून का शासन, कानून का शासन बने रहे इसके लिए जरूरी है कानून की समझ और उसके सम्मान की भावना, देश और देशवासियों में स्वाभाविक रूप से मौजूद रहे। देश के मौजूदा कानूनी प्रावधानों के तहत यदि देश का कोई मौजूदा कानून मूल अधिकार की भावना को चोट पहुंचाने वाला है तो संविधान के अनुच्छेद 13 में इस प्रकार के कानून को उस सीमा तक संशोधित करने के प्रावधान भी हैं। इसलिए संविधान पर भरोसा और कानून की समझ और सम्मान का भाव होना आज समय की आवश्यक है। पिछले कुछ समय से ज्ञानव्यापी मस्जिद विवाद को लेकर उन्माद की स्थिति उत्पन्न हो रही है। ऐसा उन्माद कुल मिलाकर देश के लिए ठीक नहीं है, वह भी तब जबकि इस प्रकार के धर्म स्थल के विवादों को निपटाने के लिए या उन्हें यथास्थिति में बनाए रखने के लिए पहले से ही देश में कोई कानून मौजूद हो।
इस दृष्टि से वर्ष 1991 में पारित पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम 1991 बहुत महत्वपूर्ण कानून है जो धार्मिक विवादों को रोकने में हमारी मदद करता है। यदि इस अधिनियम में कुछ भी गैरकानूनी है तो उसके लिए भी सुप्रीम कोर्ट का रास्ता है। सर्वोच्च न्यायालय में इसके विधिक पक्ष को चुनौती देने वाली एक याचिका भी लंबित है जब तक कोई अंतिम निर्णय ना हो देश के नागरिकों और अदालतों को इस अधिनियम का सम्मान करना ही चाहिए। इस केंद्रीय अधिनियम के अस्तित्व में रहते हुए किस प्रकार एक निचली अदालत द्वारा धार्मिक विवाद के प्रार्थना पत्र को स्वीकार कर प्रक्रिया प्रारंभ की गई यह भी बहुत आश्चर्य का विषय है। फिर इस पर नियुक्त कमीशन की रिपोर्ट विधिवत अदालत को सौंपे जाने से पहले ही महत्वपूर्ण तथ्य सहित सार्वजनिक हो गई। इसके लिए कौन जिम्मेदार है ? इस प्रकार के अवैध प्रसारण की क्या मंशा है ? यह भी महत्वपूर्ण विषय है। इन बातों पर आने वाले दिनों में किस प्रकार के निर्णय होंगे इस पर भी देश में कानून के जानकार नजर रखे हुए हैं।
पूजा स्थल अधिनियम (विशेष प्रावधान) 1991 की धारा 3 के अनुसार धार्मिक स्थलों को उसी रूप में संरक्षित किया जाना चाहिए जिसमें वह 15 अगस्त 1947 को थे। यह भी कहा गया है कि अगर वर्तमान धार्मिक स्थल किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल को नष्ट कर निर्मित किया गया था तब भी उसके वर्तमान स्वरूप को नहीं बदला जा सकता। पूजा स्थलों के विवाद इस देश के विकास, सांप्रदायिक सौहार्द में बाधक न बने इसके लिए जरूरी है कि इस अधिनियम का पालन हो। जहां तक धार्मिक स्थलों के विवाद का विषय है यदि हम खोजने लगे और उस लिहाज से खुदाई करने लगे तो हिंदुस्तान का शायद ही कोई क्षेत्र हो जिसमें धर्म स्थलों को लेकर विवाद ना हो, तब पूरा देश ही खुदने लगेगा। अतीत में राज सत्ता की प्रवृत्ति हमेशा से ही अपने मनोनुकूल धर्म को प्रश्रय देने की रही है। इसलिए समय-समय पर पूर्ववर्तीधर्म स्थानों को तोड़कर अथवा कब्जा कर नए धर्म स्थान बनाए जाने का इतिहास इस देश में ढाई हजार वर्षों से अधिक पुराना है। ईसा पूर्व सबसे पहले सम्राट अशोक के समय जब बुद्ध से भी अधिक समाज में जैन धर्म का प्रचलन था। तब आजीवक संप्रदाय पूर्वी भारत, आसाम, बंगाल में महत्वपूर्ण था तो उन स्थानों पर जैन मंदिरों के स्थान पर बौद्ध मठ और विहार बनाए गए, तब से ही देश में छठी शताब्दी तक लगभग हर राजा ने बौद्ध धर्म को शासकीय धर्म की तरह संरक्षित किया।
छठी से आठवीं शताब्दी के मध्य जब उत्तर भारत में बड़े राजतंत्र कमजोर हुए तब दक्षिण भारत और मध्य भारत के चोल, चालुक्य, पल्लव, राष्ट्रकूट जैसे राजवंश शक्तिशाली हुए तो देश के कई बौद्ध मठ और विहार के ऊपर बड़े हिंदू देवी देवताओं के मंदिर बनाने की घटनाएं प्रकाश में आई। हिंदू धर्म की दृष्टि से देश के चारों भागों में बड़े चार धामों की स्थापना आदि गुरु शंकराचार्य जी ने की और फिर 12 वीं शताब्दी तक देश में सनातन हिंदू धर्म निर्विवाद रूप से राष्ट्रधर्म के रूप में स्थापित रहा। सल्तनत काल में और उसके बाद मुगल काल में कई महत्वपूर्ण मंदिर और धार्मिक स्थानों पर मुस्लिम संप्रदाय की पूजा पद्धति की दृष्टि से मस्जिद और दरगाह बनाए जाने के मामले इतिहास में दर्ज भी हैं। इन ऐतिहासिक तथ्यों/भूलो को लेकर आज का भारतीय समाज जिम्मेदार नहीं है। यह इतिहास की एक स्वाभाविक चाल है। “जिसकी सत्ता, उसका धर्म”। इस दृष्टि से औरंगजेब का समय अधिक विवादित रहा जिसके धार्मिक अत्याचारों का मुकाबला करने, हिंदू धर्म की रक्षा करने के लिए भारत के साधु संतों ने खुद को अखाड़ों के रूप में संगठित किया।
साधु समाज देश की धर्म परंपरा उसके ऊपर आ रहे खतरों से निपटने के लिए चार अलग-अलग हिंदू तीर्थ स्थलों (हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन, नासिक) पर प्रत्येक 6 वर्ष बाद अर्ध कुंभ और कुंभ के बहाने जुटते थे। धर्म की रक्षा और उस पर आ रहे खतरों पर विचार विमर्श किया जाता था। जिससे धर्म की रक्षा के लिए साधु समाज द्वारा मार्गदर्शन भी दिया जाता था। कई बार संगठित साधुओं ने तत्कालीन सत्ता से सीधे संघर्ष भी किया, जिसमें हजारों की संख्या में साधु मारे गए। भारतीय समाज में धर्म और धार्मिक स्थल हमेशा से अत्यधिक महत्वपूर्ण भावनात्मक विषय रहे हैं। जहां तक दो महत्वपूर्ण विवादित धर्मस्थल काशी और मथुरा का विषय है, इसमें उनके मंदिरों के साथ—साथ मिले हुए होने के कारण से साबित है, कि यह मस्जिद मंदिर परिसर में कब्जा कर अथवा उसके कुछ भाग को ध्वंस कर बनाई गई हैं। सिर्फ काशी और मथुरा ही नहीं बल्कि ऐसे दर्जनों पूजा के स्थान हो सकते हैं जो पूर्व में अन्य धर्मावलंबियों की आस्था स्थलों के ऊपर बनाए गए हों लेकिन इतिहास की इन घटनाओं का समाधान कानून की प्रक्रिया से बाहर जाकर तलाशना देश के लिए शुभ नहीं है।
इसके लिए शीघ्र अति शीघ्र केंद्रीय स्तर पर विचार-विमर्श हो और यदि पूजा स्थल अधिनियम 1991 में किसी प्रकार के संशोधन की आवश्यकता है अथवा इसकी संवैधानिकता पर किसी प्रकार का संशय है तो उस पर भी व्यापक विचार विमर्श कर समाधान संसद और कानून के रास्ते ही आना चाहिए। यही विधि सम्मत प्रक्रिया देश और समाज के लिए सुरक्षित और शुभ होगी।