त्रिलोचन भट्ट
यह इत्तेफाक है कि कल जब गृह मंत्री उत्तराखंड के लिए घस्यारी योजना की शुरुआत कर रहे थे, ठीक उसी समय भाई शंकर गोपाल मेरे साथ थे। हम दोनों उस समय भू कानून को लेकर किए जा रहे प्रदर्शन में शामिल थे और घस्यारी योजना पर चर्चा कर रहे थे।
दरअसल, उत्तराखंड में घस्यारी योजना की शुरुआत चेतना आंदोलन के बैनर तले की गई थी। यह विचार भाई स्व. श्री त्रेपन सिंह चौहान का था और उनके प्रमुख सहयोगी भाई शंकर गोपाल थे।
लेकिन ठहरिए… बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। भाई शंकर गोपाल की मानें तो यदि बीजेपी उसी कांसेप्ट पर काम करती तो हमें भी अच्छा लगता, लेकिन चेतना आंदोलन की घस्यारी और बीजेपी सरकार की घस्यारी में बड़ा फर्क है।
चेतना आंदोलन की घस्यारी घास काटने वाली महिलाओं को यह एहसास दिलाती थी कि उनका काम सिर्फ काम नहीं एक आर्ट भी है। इस योजना के तहत घास काटने और पूली (गट्ठर) बांधने की प्रतियोगिता करवाई जाती थी, जीतने वाली महिलाओं को सम्मानित किया जाता था।
अब बीजेपी की घस्यारी योजना पर आते हैं। यह योजना दरअसल घास काटने वाली महिलाओं को सम्मान दिलाने के लिए नहीं, बल्कि उन्हें उपभोक्ता बनाने के लिए शुरू की गई है। जो महिलाएं पहले स्वरोजगार के रूप में पशुपालन करती रही अब मजदूर और उपभोक्ता बनेंगी।
अभी तक मेरी समझ में जो आया है, वह यह है कि घास पर किसी सेठ का अधिकार होगा। महिलाएं अपने ही खेत और अपने ही जंगल में सेठ लिए मजदूरी करेंगी। और फिर अपनी ही काटी हुई घास खरीद कर अपने पशुओं को खिलाएंगी।
दरअसल भू-कानून के बाद घस्यारी योजना इसी कांसेप्ट से जुड़ी हुई है। आम लोगों के पास जल, जंगल, जमीन की जो थोड़े-बहुत अधिकार अब भी हैं, उन्हें सेठों को थमा दो और आम लोगों को मजदूर और उपभोक्ता बना डालो।
छिटपुट लोग विरोध कर रहे हैं तो करते रहें। पहाड़ की एक बड़ी आबादी के मन में लगातार यह डर बिठाने का प्रयास किया जा रहा है कि तुम्हें मुसलमानों से खतरा हो गया है। लोगों को हिंदू मुस्लिम मसले पर उलझा कर पूरे उत्तराखंड को सेठों के हाथों में सौंपने का कुचक्र चल रहा है।
संभल सको तो संभल जाओ, वरना जय श्री राम बोलो।