गोविन्द पंत ‘राजू’
अल्मोड़ा में विश्वविद्यालय परिसर के लिए उतरने वाली पगडंडी के ठीक ऊपर एक छोटा सा बोर्ड लगा होता था। चेतना प्रिटिंग प्रेस। चेतना प्रिटिंग प्रेस एक प्रेस से कहीं अधिक युवाओं के लिए चेतना का अड्डा हुआ करता था। इस अड्डे पर अस्सी के दशक की शुरूआत के दिनों में बड़ी हलचल रहा करती थी। उत्तराखण्ड की युवा चेतना के लिए वह जगह एक तरह का पावर हाऊस होता था और इसी जगह से शमशेर सिंह बिष्ट की दाल रोटी भी चलती होगी, ऐसा समझा जाता था।
पल्टन बाजार में उनके घर में शायद ही कोई दिन ऐसा होता होगा, जब दो-चार युवा लड़ाके, सामाजिक कार्यों से जुड़े लोग और तरह-तरह के रचनात्मक व्यक्तित्व उनके साथ भोजन में हिस्सेदारी न करते हों। भाभी की नौकरी न होती तो शायद फाकों की भी नौबत होती। लेकिन शमशेर दा के लिए जीवन का लक्ष्य दाल-रोटी नहीं था और मक्खन-मलाई तो कतई नहीं। वे तो संघर्षों की मशाल आगे लेकर चलने के लिए बने थे और अपनी संघर्ष यात्रा के लगभग पाँच दशकों तक उन्होंने ऐसा ही किया। पिछले आठ-दस साल से लगातार खराब होती सेहत के बावजूद वे मानसिक रूप से उतने ही सजग और सक्रिय थे, जितने सक्रिय कभी शारीरिक रूप से भी हुआ करते थे।
कहते हैं यात्राएं मनुष्य को बदल देती हैं। 1974 की अस्कोट- आराकोट यात्रा ने उत्तराखण्ड के कुंवर प्रसून, प्रताप शिखर, शेखर पाठक आदि जिन युवाओं की जीवन धारा बदल दी, उनमें शमशेर दा भी एक थे। समाज के अन्तर्विरोधों, उत्तराखण्ड के बुनियादों सवालों से लेकर राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय फलक तक जाती थी उनकी वैचारिक दृष्टि। अल्मोड़ा में छात्रसंघ अध्यक्ष बनने के बाद उन्होने शायद ही कभी अपने बारे में कुछ सोचा हो। सत्ता की राजनीति ने उन्हें अपने प्रलोभन जाल में जकड़ने का प्रयास किया तो उन्होने उस स्वर्ण जाल को अपनी आंतरिक ऊर्जा से छिन्न-भिन्न कर दिया और जनता की राजनीति की कांटों भरी राह को अंगीकार कर लिया।
अल्मोड़ा कालेज उनके घोंसले से उड़ना सीखने वाले युवाओं की खान सा बन गया था। पीसी तिवारी, प्रदीप टम्टा, जगत रौतेला जैसे कितने युवा उनकी प्रेरणा से समाज के लिए लड़ने वाले नायक बन गए। चेतना प्रिटिंग प्रेस और बाद में वहां से निकलने वाला ‘जंगल के दावेदार’ अखबार अपने दौर में जन पक्षधरता की एक सजीव पाठशाला था। विश्वविद्यालय आन्दोलन से लेकर वन आन्दोलन तक की ऊर्जा ने 1977 में उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी को जन्म दिया तो शमशेर दा इसके स्वाभाविक अध्यक्ष थे। एक जनसंगठन को किस तरह लोकतांत्रिक ढंग से सभी को साथ लेकर चलाया जा सकता है शमशेर दा ने इसको करके दिखाया। इंडियन पीपुल्स फ्रंट की शुरूआत के दिनों तक उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी में हर व्यक्ति समान हैसियत वाला होता था और वैचारिक रूप से एक समान परिपक्व भी। शमशेर दा उत्तराखण्ड में समानधर्मी व्यक्तित्वों के बीच एक विराट सेतु की तरह थे जो सबको एक दूसरे से जोड़ देते थे। गिरदा, निर्मल जोशी, चण्डी प्रसाद भट्ट, खड़क सिंह खनी, दीवान धपोला, चन्द्रशेखर भट्ट, राजीव लोचन साह, शेखर पाठक जैसे व्यक्तित्वों से लेकर स्वामी अग्निवेश, शंकर गुहा नियोगी तक जाने कितनी धाराओं को एक दूसरे के करीब लाने में उनका सानी न था। सामान्यतः वे बड़े सीधे और विनम्र ढंग से अपनी बात कहते थे, लेकिन जब दृढ़ता और प्रतिरोध दिखाने का अवसर आता तो उनके व्यक्तित्व का एक अलग ही रूप दिखाई देता।
मेरी उनके साथ पहली अंतरंगता’ ‘नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन’ के दौरान स्थापित हुई थी, जब हम शराब की संस्कृति के खिलाफ लोगों को जागरूक करने गावों में निकले थे। कई दिन हम लोग लगातार साथ रहे। रातों को गांवों में जाकर लोगों को जमा करते, उनसे बातचीत करते। दिन में भी इसी तरह से सम्पर्क अभियान चलता। उन दिनों होली का माहौल था। रात को होली बैठकों में हम पहुँच जाते। ऐसी ही एक बैठक में बिपिन त्रिपाठी के साथ हम लोग द्वाराहाट के एक गाँव में पहुँचे तो बिपिन चच्चा की कठोर शब्दावली ने वहां मौजूद कुछ शराबियों को भड़का दिया। वे लोग मरने-मारने पर उतारू हो गए। ऐसे में शमशेर दा का आक्रोश देखने लायक था। उन्होने बेहद सख्त लहजे में उन उग्र लोगों को इस तरह लताड़ा कि उन्हें अपनी अभद्रता के लिए माफी मांगनी पड़ी थी और बाद में उनमें से कुछ आन्दोलन के सहयोगी भी बन गए थे।
बसभीड़ा में पीसी तिवारी के आंगन से उस आन्दोलन की जो लहर उठी थी, उसने उत्तराखण्ड में अवैध सुरा-शराब के कारोबार को काफी हद तक ध्वस्त कर दिया था। लेकिन यह आन्दोलन महज शराब विरोधी आन्दोलन नहीं था। इस आन्दोलन का प्रमुख नारा था, ’’जो शराब पीता है वह परिवार का दुश्मन है, जो शराब बेचता है वह समाज का दुश्मन है और जो शराब बिकवाता है वह देश का दुश्मन है।’’
अल्मोड़ा में जब शमशेर दा, पीसी, प्रदीप आदि सभी प्रमुख लोग गिरफ्तार हो रहे थे तब उन्हांेने हमें बुलाकर कहा, ‘‘तुम लोग अभी यहाँ से निकलो। आन्दोलन चलता रहे इसके लिए लोगों का बाहर रहना भी जरूरी है।’’ फलतः उनके जेल जाने के बाद मैं, खष्टी, हरीश कार्की, पप्पू आदि लोग आन्दोलन को आगे बढ़ाते रहे। उस दौर में वे बराबर हमें आगाह करते रहते कि आन्दोलन में हिंसा कतई न हो, आगजनी न हो, नहीं तो आन्दोलन अपनी राह से भटक जाएगा।
उनकी संगत का एक बड़ा अवसर मुझे तब मिला जब मैं उनके साथ दल्ली-राजहरा में श्ंाकर गुहा नियोगी के एक शिविर में गया। लगभग दस दिनों तक हम बस्तर के भीतरी इलाकों तक शंकर गुहा नियोगी के काम करने के तरीके को समझते रहे कि किस तरह नियोगी ने दल्ली राजहरा इलाके में लौह अयस्क खोदने में लगे हजारों आदिवासियों को संगठित किया, उनके श्रम का सम्मान बढ़ाया, ठेकेदारों के शोषण से उन्हें बचाया, उनकी शराब की लत खत्म करवाई और उनकी बस्तियों में स्वच्छता की अलख जगाई। वे बस्तर के जंगलों में पैदा होने वाले आंवले को आदिवासियों के लिए बेहतर कमाई का साधन बना रहे थे तो गांव-गांव में सांप के काटने से होने वाली मौतों को रोकने के लिए ग्रामीणों के बीच से ही सांप के काटने और अन्य छोटी-छोटी बीमारियों का इलाज करने वाले लोग भी तैयार कर रहे थे। लेकिन यह सब करते हुए वे आदिवासी समाज को राजनीतिक चेतना से भी लैस कर रहे थे। उस दौरान हमने देखा कि मुख्यमंत्री मोतीलाल बोरा की चुनावी सभा के सामने नियोगी की सभा जब शुरू हुई तो बोरा जी की सभा के सामने श्रोता ही नहीं बचे और उन्हें अपना बोरिया-बिस्तर समेटना पड़ा। वहीं मैंने शमशेर दा का ऐसा ओजस्वी भाषण भी सुना, जिसमें राष्ट्रीय मुद्दों से लेकर आर्थिक असमानता, संसाधनों की लूट से लेकर सांस्कृतिक अपघटन के सवालों पर गम्भीर विश्लेषण भी था।
ऐसा ही एक अवसर मुझे तब मिला था, जब केरल शास्त्र साहित्य परिषद की एक वर्कशाॅप मंे हम पन्द्रह दिन तक एक ही कमरे में रहे थे। वह वर्कशाॅप एक ऐसी जगह में लगी थी जो एक बड़े से परिसर में हरियाली से घिरी हुई इमारत थी। आसपास बहुत दूर तक कोई बस्ती नहीं थी। इसलिए उन पन्द्रह दिनों में हम लोग लगभग हर क्षण एक साथ रहे थे। शमशेर दा के साथ बिताए उन क्षणों को मैं कभी भूल नहीं सकता।
जब देश के अलग-अलग इलाकों में काम कर रहे जनवादी प्रगतिशील संगठनों को जोड़ कर’ ‘इण्डियन पीपुल्स फ्रंट’ नामक संगठन की स्थापना हुई तब उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी का भी एक बड़ा दल उसमें शामिल होने के लिए दिल्ली पहुँचा था। शमशेर दा की उसमें प्रमुख भूमिका रही थी। लेकिन उत्तराखण्ड के लिए फ्रंट का बनना बहुत उत्साहजनक नहीं रहा।
शमशेर दा के लिए भी यह व्यक्तिगत तौर पर दुःखद अनुभवों का दौर रहा था। इस दौर में ‘फ्रंट’ के नाम पर बना संगठन उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी को ही खत्म करने पर तुल गया। ताकत बढ़ने के बजाय बंटने लगी। फिर कुछ व्यक्तिगत, कुछ महत्वाकांक्षाओं के टकराव और कुछ अन्य कारणों से साथियों का बिखराव भी शुरू हो गया और यह सब शमशेर दा को अन्तरिक रूप से बहुत व्यथित कर गया। इसका असर उनके स्वास्थ्य पर भी जरूर पड़ा होगा।
वे एक आन्दोलनकारी भी थे और पर्यावरण के सजग रक्षक भी। उनके लिए पर्यावरण की परिभाषा में आदमी का अस्तित्व सबसे पहले था। अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना और उसे समाधान तक ले जाना उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति थी। जल, जंगल और जमीन जैसे बुनियादी सवालों के इर्द-गिर्द उनकी संघर्ष यात्रा में वन आन्दोलनों, बाँध विरोधी आन्दोलनांे, नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन तथा राज्य आन्दोलन जैसे बड़े सवालों से लेकर क्षेत्र विशेष के मुद्दों पर खड़े किए गए आन्दोलनों तक के बहुत सारे अध्याय हैं। उमेश डोभाल की हत्या के बाद शराब माफिया से आतंक से उपजे सन्नाटे को तोड़ने में उनकी भूमिका कोई कैसे भूल सकता है ? ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आन्दोलन में अल्मोड़ा के सबसे बड़े सुरा व्यापारी ने जब अपने धनबल से खरीदे गए गुर्गों के जरिए शमशेर दा की छवि भंग करने की जब धृष्टता की थी तब उनका प्रतिरोध इतना तीव्र था कि आरोप लगाने वाले खुद ही उसकी आंच में जलने लगे थे। लेकिन अपनी छवि भजन के कृत्य से वे भीतर ही भीतर बेहद क्षुब्ध भी हुए थे।
जिस समाज के बीच रह कर उन्होने संघर्षो की अलख जगाई थी, उस समाज में अपने नायकों को खलनायक बनाने की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति सदा से रही है और यही कारण था कि छवि भंजन के उस कृत्य का पर्दाफाश करने के लिए राजीव लोचन साह और मुझे उस सुरा सम्राट कहे जाने वाले काले कारोबारी के दुर्ग में घुसना पड़ा था। लेकिन शमशेर दा के व्यक्तित्व का यह भी एक शानदार पक्ष था कि सार्वजनिक जीवन में इतने लम्बे दौर में न तो कोई लोक-लालच उन्हे डिगा पाया और न ही कोई प्रलोभन उन्हें खरीद पाया। उन्होंने जन पक्षधरता के चलते अनेक बार बेहतर आर्थिक स्थिति ला सकने वाले सकारात्मक अवसरों को भी इसीलिए ठुकरा दिया। इससे भी बड़ी बात यह कि उनके घोंसले से उड़ान भरने वाले परिन्दे आज जिस विचारधारा में भी रह रहे हों, जिन राजनीतिक परिस्थितियों में रह रहे हों, जन पक्षधरता, मानवीय संवेदनशीलता ओर नैतिकता के मूल्यों से अभी भी डिगे नहीं हैं। यही विरासत शमशेर दा के न रहने के बाद भी हमारे बीच बेहतर समाज की उम्मीदों को जिन्दा रखने की उम्मीद बंधाती है।
उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद छोटे-छोटे आर्थिक हितों ने उत्तराखण्ड की ऊर्जा को जिस तरह विखंडित किया, उसका असर उत्तराखण्ड के आन्दोलनों पर भी पड़ा। राज्य आन्दोलन में वैचारिक रूप से परिपक्व तबका उत्तराखण्ड में राजनीतिक विकल्प देने की स्थिति में कभी नहीं आ सका और इसका असर शमशेर दा के नेतृत्व में बनी उत्तराखण्ड लोक वाहिनी पर भी पड़ना ही था। गिरदा के न रहने, खुद के खराब स्वास्थ्य, सेहत की वजह से सक्रियता में कमी आने जैसे बहुत से ऐसे कारण थे, जिन्होंने शमशेर दा को लगातार व्यथित बनाए रखा। उमेश डोभाल स्मृति समारोह में न आ पाने का मलाल उन्हें बहुत अधिक होता था, क्योंकि वे ट्रस्ट के संरक्षक जैसे थे। एक चिन्तक आन्दोलनकारी, एक संघर्षशील योद्धा के साथ-साथ वे एक सजग पत्रकार भी थे। अल्पजीवी ‘जंगल के दावेदार’ से लेकर ‘नैनीताल समाचार’ और ‘जनसत्ता’ के जरिए उन्होने इस रोल को भी बखूबी निभाया। गिर्दा व शेखर पाठक के साथ भी उन्होने पत्रकार की भूमिका में योगदान दिया।
वे कभी बिके नहीं, कभी झुके नहीं। उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता कभी विचलित नहीं हुई। उनके व्यक्तित्व की दृढ़ता को हमने कभी कमजोर पड़ते नहीं देखा। वे हमारे समय के संरक्षक थे, हमारे सवालों के समाधान की अंतिम कड़ी थे। वे दोस्तांे के लिए दोस्त थे, सहयोगियों के लिए दोस्त थे और इंसानियत के लिए भी दोस्त थे। कई बार मीटिगों में बात सुनते-सुनते उन्हें हल्की झपकी आ जाती थी। अब उनकी देह की इस लम्बी झपकी के बाद भी उनके विचार हम सब की चेतना को जगाए रखेंगे, हमें सचेत और सापेक्ष बनाए रखेंगे। हम तुम्हें कभी भूल नहीं पाएंगे शमशेर दा