देवेश जोशी
बचपन की सबसे सुरीली यादों में से एक का नाम है हीरा सिहं राणा। वो बचपन जिसे कुमाउंनी और गढ़वाली में भेद मालूम न था। और वो बचपन जिसमें खेल-खिलौने, पिक्चर-सर्कस के बीच गीतों के लिए बहुत कम जगह थी। आश्चर्य कि गीतों ने तब भी जगह बनायी। और ये जगह बनाने बाले गीत थे – रंगीली बिंदी, के संध्या झूली रे, आ लिली बाकरी, मेरी मानिला डानी, आजकाल हरे ज्वाना। इसमें भी कोई शक़ नहीं कि गढ़वाल में उस दौर में सुरीले और सुगठित गीतों की न्यूनता थी और कुमाँउनी गीत हाथों-हाथ लिए जाते थे, खूब लोकप्रिय होते थे।
हीरा सिंह राणा जी की हाथों में हुड़का लेकर माइक पर लाइव गायन की तस्वीर भी मन-मस्तिष्क में स्थायी रूप से अंकित है। शायद सांग एण्ड ड्रामा डिविजन द्वारा राणा जी की टीम अनुबंधित होकर पूरे उत्तराखण्ड में सांस्कृतिक प्रस्तुतियां दिया करती थी।
अंग्रेजो, भारत छोड़ो आंदोलन के साल 16 सितम्बर को उत्तराखण्ड में एक हीरा जन्मा था। अल्मोड़े के मानिला गाँव में। रोजी-रोटी के लिए 1958-59 में दिल्ली चले गए। पाँच रुपया महीने पर एक कपड़े की दुकान पर काम करने लगे। अपनी शिक्षा के बारे में राणाजी बताते थे कि लोग यूनिवर्सिटी गए पढ़ने के लिए और मैं समाज के पास गया। मिडिल भी पास हुआ या फेल, नहीं मालूम। सरस्वती की सद्भावना थी उन पर। इसलिए उस दौर में उत्तराखण्ड के गम्भीर सांस्कृतिक अध्येता जैसे नारायण दत्त पालीवाल, गोविंद चातक का सान्निध्य प्राप्त हुआ। और फिर आत्मविश्वास से लबरेज हो समाज से जो कुछ सीखा था उसी समाज को लौटाने को कृतसंकल्प हो गया। गीत-संगीत कला से अपने समाज के लिए जो कुछ भी किया जा सकता था हीरा सिंह राणा ने वो सब निपुणता से सफलतापूर्वक किया। दिल्ली में रहते हुए भी अपने गीत-संगीत पर कोई परदेसी दाग न लगने दिया। 13 जून 2020 को 78 वर्ष की अवस्था में हीरा सिंह राणा ने दिल्ली में ही अंतिम साँस ली।
न्योली से प्राण वाले इस पखेरू की आत्मा तो संगीत में बसती थी, गीत में चहचहाती थी। सो संगीत शिक्षा के लिए देश की सांस्कतिक राजधानी कलकत्ता चले गए। और फिर आजीवन दिल्ली में रहकर अपने मातृ-प्रदेश की गीत-संगीत साधना में रत रहे। संतोष की बात ये कि उनका एक बड़ा सपना उनके जीवनकाल में पूरा हो सका। दिल्ली में गढ़वाली-कुमांउनी-जौनसारी भाषा की अकादमी के गठन का जो पिछले साल ही अस्तित्व में आयी। हीरा सिंह राणा को दिल्ली सरकार द्वारा इस अकादमी का कार्यकारी मुखिया अर्थात उपाध्यक्ष बनाया गया तो पूरे उत्तराखण्ड में हर्ष की लहर फैल गयी थी। ऐसा लगा इन पहाड़ों की न्योली-हिलांस-कफ्फू राजपीठ पर बिठा दी गयी हो। अकादमी का महत्व इसलिए भी अधिक है कि ये उस शहर में स्थापित हुई थी जहाँ दुनिया के तमाम देशों के दूतावास हैं, भारत की सभी भाषाओं के व्यवहारी रहते हैं।
हिरदा के नाम से लोकप्रिय, हीरा सिंह राणा के 50 वर्षों की गीत-संगीत साधना पर प्रख्यात पत्रकार-आंदोलनकारी-अध्येता चारू तिवारी ने संघर्षों का राही नाम से एक पुस्तक भी लिखी है। पुस्तक में हीरा सिंह राणा पर केंद्रित आलेख और संस्मरणों के जरिए उनके व्यक्तित्व को समग्रता में समझा जा सकता है। इसी पुस्तक में राणाजी एक साक्षात्कार में बताते हैं कि दिल्ली में एक कार्यक्रम के दौरान, आ ली ली बाकरी छू छू…….का गायन-मंचन किया गया। तत्कालीन रेलमंत्री भी इस कार्यक्रम में पधारे थे। साथ में गोविंद बलभ पंत जी की पत्नी और पुत्र केसी पंत भी थे। पंत जी की आँखों में इस सुरीले मंचन को देखकर आँसू आ गए थे। अगले दिन उन्होंने गायक राणा को घर पर बुलाकर इनाम-इकराम भी दिया।
हीरा सिंह राणा सशक्त गीतकार भी थे। उनका सर्वाधिक लोकप्रिय गीत रंगीली बिंदी, नायिका के नख-शिख वर्णन के रूप में ग्रहण किया जाता है। जबकि हिरदा बताया करते थे कि कालाढुंगी से नैनीताल जाते हुए ये गीत लिखा गया था। रंगीली बिंदी और कुछ नहीं उदित होता सूर्य है, नौपाट घाघर लहरों की तरह दिखते गदेरे हैं, नीचे भाबर की गहरी हरियाली काली धोती है, रेशमी चैना तराई के खेत हैं, एक हाथ दाथी एक हाथी ऐना अर्थात एक तरफ श्रमशील महिलाएं काम कर रही हैं दूसरी तरफ आईने की तरफ चमचमाता हिमालय। कुल मिलाकर प्रकृति सुन्दरी की प्रशंसा में लिखा गया गीत है। उन्होंने सिर्फ नॉस्टेलजिक और श्रृंगार के गीत ही नहीं लिखे बल्कि जनसरोकारों पर भी सफल गीत लिखे। उत्तराखण्ड आंदोलन के दौर का, लश्का कमर बांदा गीत को उत्तराखण्ड कभी बिसरा नहीं सकता।
पलायन पर भी एक सुन्दर व्यंग्य-गीत लिखा था। उत्तराखण्ड राज्य गठन के बाद दिल्ली से उत्तराखण्ड की साहित्यिक-सांस्कृतिक राजधानी के देहरादून-हल्द्वानी शिफ्ट हो जाने के बाद फिर से दिल्ली में उत्तराखण्ड की साहित्यिक-सांस्कतिक गतिविधियों को राज्याश्रय दिलवाने के लिए हीरा सिंह राणा अर्थात हमारे हिरदा को सदैव याद किया जाएगा।
दिल्ली में रहते हुए भी हिरदा अपनी मानिला डानी को कभी नहीं भूले। तलहटी में समृद्ध रामनगर और शिखर पर सुरम्य गैरसैंण। उसे देवी-सदृश पूजनीय मानते हुए वो उसकी बलाएं अपने सर लेते रहे। उसकी समृद्धि की कामना करते रहे, स्वयं भी समृद्ध करते रहे। उत्तराखण्ड भी अपने इस सुरीले सपूत को नहीं भूल सकता जिसकी आवाज़ डानी-कानी में गूँज पैदा करने के लिए पूरी तरह अनुकूलित थी जो साउण्ड-सिस्टम के बगैर भी किसी भी सभा में श्रोताओं को बाँध कर मंत्रमुग्ध कर सकते थे।
अलविदा हिरदा। रंगीली बिंदी, काली घाघरी पहने, एक हाथ में दाथी और दूसरे में ऐना रखकर उत्तराखण्ड की धरती तुम्हें कृतज्ञ विदा देती है। हे मानीला के मायादार दाज्यू! हो सके तो फिर से यहीं अपनी गूँजती आवाज़ के साथ जन्म लेना।