राजीव लोचन साह
क्या अन्ततः अब ताकुला के दिन बहुरेंगे ? खबर है कि उत्तराखंड कैबिनेट ने 23 अक्टूबर 2019 को कोसी (अल्मोड़ा) में सम्पन्न बैठक में ताकुला में गांधी स्टडी सेंटर बनाने का प्रस्ताव पारित किया है।
वह पचास साल पहले अगस्त का एक बरसाती और बेहद उमस भरा दिन था। मैं संसद भवन के गलियारे में भटक रहा था। मेरी उम्र तब तक सत्रह साल की भी नहीं हुई थी। मेरे साथ थी दुर्दम्य व्यक्तित्व की धनी हमारी ईजा सावित्री देवी, बड़े भाई महेश लाल, जो लखनऊ विश्वविद्यालय से ताजा-ताजा वकालत पढ़ कर निकले थे और इलाहाबाद के मनोहर लाल साह जगाती। ‘बड़े बाबू’ के नाम से विख्यात मनोहर लाल साह जगाती को आज के लोग क्या जानते होंगे ? मगर जिन लोगों का आजादी से पहले से लेकर सत्तर के दशक तक इलाहाबाद से कोई सम्पर्क रहा, वे उन्हें भूल नहीं सकते। साहित्य और राजनीति में सक्रिय रहने वाले तो कतई नहीं। वे इलाहाबाद में ‘जगाती रस्तेराहत’ नाम से सुप्रसिद्ध रेस्तोराँ चलाते थे और इलाके के विख्यात केटरर थे। राजाओं और ताल्लुकेदारों की रियासतों में केटरिंग कर उन्होंने खूब पैसा कमाया। मगर साहित्य और राजनीति में संघर्ष करने वालों को उनके पास हमेशा शरण मिलती थी। भगवती चरण वर्मा ने अपना उपन्यास ‘तीन वर्ष’ उन्हें समर्पित करते हुए लिखा है, ‘‘जगाती को, जिसने चाय पिला-पिला कर यह उपन्यास मुझसे लिखवा लिया।’’ उनके अन्तिम दिनों में, जब वे फालिज़ से अपाहिज होकर बिस्तर पर पड़े थे, केन्द्रीय संचार मंत्री के रूप में हेमवती नन्दन बहुगुणा उनसे मिलने गये।
मिजाजपुर्सी करते हुए उन्होंने पूछा, ‘‘बड़े बाबू आपने हम लोगों के लिये इतना किया। बताइये मैं आपके लिये क्या कर सकता हूँ ?’’ बड़े बाबू ने जवाब दिया, ‘‘यार बहुगुणा, चलने-फिरने से लाचार हो गया हूँ। मेरा फोन मेरे पास शिफ्ट करवा दे। तुम्हारे विभाग वाले सुनते ही नहीं!’’ उस दौर में गंगा स्नान करने पहाड़ से इलाहाबाद गया कोई भी व्यक्ति प्रयाग स्टेशन पर उतरता और रिक्शेवाले से कहता, जगाती बाबू के यहाँ जाना है और रिक्शावाला उसे कर्नलगंज में सही जगह पहुँचा देता। उस तीर्थयात्री के रहने-खाने की व्यवस्था हो जाती। ये मनोहर लाल साह जगाती, यानी बड़े बाबू, मेरे नाना थे। मेरी माँ के रिश्ते के चाचा।
यह सिलसिला इस तरह शुरू हुआ कि 19 मई 1968 के ‘धर्मयुग’ में पी. डी. टंडन का सुमित्रानन्दन पन्त के बारे में एक लेख प्रकाशित हुआ, जिसमें यह जिक्र था कि कविवर पन्त की महात्मा गांधी से भेंट 1931 में ताकुला में हुई थी। हमने होश सम्हालने के बाद से अपनी नानी से लगातार गांधी जी के ताकुला प्रवास के बारे में सुना था। लिखने का शौक जगने ही लगा था। मैंने इस लेख का सन्दर्भ लेकर ताकुला के बारे में जानकारी देते हुए एक पत्र ‘धर्मयुग’ के सम्पादक को भेज दिया। 16 जून 1968 के ‘धर्मयुग’ में ‘आपका पत्र मिला’ स्तम्भ में यह पत्र अविकल रूप से छप गया। ‘धर्मयुग’ उन दिनों की बेहद लोकप्रिय पत्रिका थी। उस पत्र का छपना था कि मेरे पास पत्रों की ऐसी बाढ़ आ गई कि बस! न जाने कितनी गांधीवादी संस्थाओं, गांधी के जिज्ञासुओं और पत्रकारों के पत्र आये होंगे। उन्हीें में यह सुझाव भी था कि अगला वर्ष गांधी शताब्दी वर्ष है, आप ताकुला में गांधी दर्शन का केन्द्र और संग्रहालय बनाने की कोशिश क्यों नहीं करते। मोरार जी भाई घोर गांधीवादी हैं, उनसे सम्पर्क करें। मोरार जी देसाई उस वक्त इन्दिरा गांधी की सरकार में उप प्रधानमंत्री थे। मेरे नाना गोविन्द लाल साह सलमगढ़िया ताकुला, जो तब नाना जी के नाम से गोविन्द नगर कहलाता था, में ऐसा केन्द्र बनाने का प्रयास अपने अन्तिम दिनों में कर चुके थे, मगर सफल नहीं हो पाये।
मैंने मोरारजी भाई को पत्र लिखा और जल्दी ही उनके सचिव कान्ति भाई देसाई का उत्तर आ गया कि आप बुधवार, 7 अगस्त 1968 को संसद भवन के कक्ष संख्या 12 में अपरान्ह 2.30 पर उप प्रधानमंत्री मोरारजी भाई देसाई से भेंट करें। आज के मुकाबले कितनी तत्पर और संवेदनशील रही होंगी तब की सरकारें ?
और इसी भेंट के लिये हम संसद भवन में थे। किसी तहसीलदार को ज्ञापन देने का तो अनुभव नहीं था। हम जा रहे थे भारत के उप प्रधानमंत्री से मिलने। वह तो हमारे एसओएस के जवाब में तत्काल दिल्ली पहुँच गये बड़े बाबू ने ध्यान दिलाया कि उप प्रधानमंत्री को लिखित में भी कुछ दिया जाना चाहिये करके। किसी को याद आया कि मूलतः नया बाजार, नैनीताल के रहने वाले शम्भु प्रसाद शाह भी तो लोकसभा में काम करते हैं। ये शम्भु प्रसाद शाह वही थे, जिन्होंने हिन्दी में पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त की पहली प्रामाणिक जीवनी लिखी है। शम्भु दाज्यू मिल भी गये और उन्होंने मेरे लिखे ज्ञापन को चार-पाँच प्रतियों में टाईप करवा दिया। हिन्दी का टाईपराइटर भी पहली बार उसी दिन देखा।
मोरार जी भाई का दफ्तर बहुत ही सादा था। आज के नेताओं की तड़क भड़क देखता हूँ तो ताज्जुब होता है, उन दिनों की सादगी पर। मगर बातचीत की शुरूआत बहुत अच्छी नहीं रही। ज्यों ही बड़े बाबू ने उन्हें समझाना शुरू किया कि नैनीताल में एक ऐसा भवन है, जिसका न सिर्फ शिलान्यास महात्मा गांधी ने किया था, बल्कि दुबारा आकर उसमें रहे भी थे तो मोरार जी भाई भड़क गये। ‘‘क्या आपने बापू को आजकल का नेता समझा है कि वे यहाँ-वहाँ शिलान्यास और उद्घाटन करते हुए घूमें ?’’ वे दहाड़े। एकबारगी हम सब लोग सन्नाटे में आ गये।
यहाँ पर ईजा ने प्रत्युत्पन्नमति दिखाई और तत्काल नाना जी द्वारा बनाये गये एल्बम का वह पृष्ठ उनके सामने खोल कर रख दिया, जिसमें बापू द्वारा झुक कर शिलान्यास किये जाने का फोटोग्राफ जड़ा था। मोरार जी भाई ने गौर से उस चित्र को देखा और संतुष्ट हो गये। फिर उन्होंने अच्छी तरह से बातें कीं, गांधी जी द्वारा नाना जी को लिखे गये पत्रों को सरसरी निगाह से देखा, हमारा ज्ञापन लिया और उत्तर प्रदेश सरकार को पत्र लिखने का आश्वासन दिया। हम बहुत खुश होकर उप प्रधानमंत्री के कक्ष से बाहर निकले।
उसी शाम को हम के. सी. पन्त से मिले। वे दूसरी बार सांसद बने थे हालाँकि उनके मंत्री बनने में अभी विलंब था। उनकी ठेठ कुमाउनी में बोलने की आदत से मैं बहुत ही प्रभावित हुआ। आजकल तो ऐसे-ऐसे लोग उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बन जा रहे हैं, जिन्हें न कुमाउनी समझ में आती है और न गढ़वाली। ‘‘यू.पी. में तो आजकल राष्ट्रपति शासन है। मगर मैं गवर्नर बी. गोपाला रेड्डी को लिखूँगा।’’ उन्होंने भी हमारा हौसला बढ़ाया।
अगले दिन राजघाट स्थित गांधी स्मारक संग्रहालय समिति जाकर हमने गांधी जी के पाँच पत्र समिति के प्रबंधक आर. तुरखिया जी को सौंपे, ताकि उनकी प्रतिलिपियाँ कर गांधी संग्रहालय में रखी जा सकें।
नैनीताल वापस पहुँच कर मैंने इस विषय पर जोरदार पत्राचार शुरू कर दिया। राज्यपाल, कांग्रेसी नेताओं, गांधीवादी संस्थाओं न जाने किस-किस को पत्र लिखे। सीधा सा जवाब गांधी स्मारक समिति, उ.प्र. के विचित्र नारायण शर्मा, जिनके सम्पर्क में नाना जी 1949 से रहे थे, का ही आया। उन्होंने लिखा था कि इस चरण में तो हम भवनों में सिर्फ लखनऊ, अयोध्या और कौसानी में ही खर्च कर रहे हैं। बाकी स्थानों पर शिलालेख लगेंगे। अगली बार ताकुला के बारे में देखेंगे। वह शिलालेख ताकुला में कभी नहीं लगा।
बहरहाल शुरूआत तो हो गई थी। मगर काम इतना आसान नहीं था। तब किसे मालूम था कि बीच में एक अलंघ्य चट्टान है, जिसे हटाने में आधी शताब्दी बीत जायेगी……..अगर अब भी वह सचमुच में हट गई हो तो!
(जारी रहेगा)
राजीव लोचन साह 15 अगस्त 1977 को हरीश पन्त और पवन राकेश के साथ ‘नैनीताल समाचार’ का प्रकाशन शुरू करने के बाद 42 साल से अनवरत् उसका सम्पादन कर रहे हैं। इतने ही लम्बे समय से उत्तराखंड के जनान्दोलनों में भी सक्रिय हैं।