प्रमोद साह
यह उत्साहित करते चित्र आगराखाल, टिहरी गढवाल बाजार के हैं . जहां इन दिनों उत्साह का माहौल है. डेढ़ से दो ट्रक रोज अदरक की आमद आगरा खाल बाजार में हो रही है.. जहां से यह अदरक ऋषिकेश सहारनपुर दिल्ली तक भेजी जा रही है इस वर्ष अदरक का मूल्य 100 किलो से ऊपर है . जानकारी करने पर मालूम हुआ आगराखाल , धमानस्यू पट्टी, कुंजणी पट्टी और थोडा़ गजा पट्टी की परम्परागत मंडी है यहां लगभग 40 दिन का अदरक का कारोबार होता है और दीपावली के आसपास से मटर की आमद होती है यह सीजन भी लगभग 40 दिन चलता है इसी दौरान पर्वतीय दालों की आमद होती है . क्षेत्र में गाय भैंस पालने का चलन अभी बाकी है. जिनके दूध से यहां स्थानीय स्तर पर मावा तैयार होता है जिससे यहां की रबड़ी और सिंगोड़ी मिठाई साल भर खूब बिकती है जिससे इसकी प्रसिद्धि भी है . इस प्रकार आगरा खाल परंपरागत पर्वतीय कृषि मंडी और बाजार का आदर्श प्रतिनिधित्व करता है।
अदरक की आमद जहां पहली नजर में उत्साहित करती है वही इसकी घटती हुई उत्पादकता अथवा किसानों की अरुचि एक बड़ी चिंता का कारण है . 80 और 90 के दशक में आगरा खाल बाजार से 4 से 5 ट्रक अदरक प्रतिदिन बाजार में आती थी । इस प्रकार पूरे सीजन में लगभग 200 ट्रक अदरक बाजार में उतरती थी ।लेकिन अब यह मात्रा घट कर 60 से 80 ट्रक के बीच रह गई है. इसी प्रकार की कमी मटर के सीजन में भी देखी जा रही है .
आगरा खाल, सिकुड़ते हुए पर्वतीय मंडी और बाजार का एक नमूना भर है । उत्तराखंड के सभी पर्वतीय जिलों में इस प्रकार के छोटे छोटे कस्बे स्थानीय फल और सब्जी के उत्पाद को सहारा देने के लिए प्रसिद्ध रहे हैं । जहां से अतीत में बहुत बड़ी मात्रा में स्थानीय फल और सब्जी का उत्पाद बाजार में आता था. इस प्रकार यह छोटी पर्वतीय मंडियां 20 किलोमीटर के दायरे में स्वरोजगार और अर्थव्यवस्था का आधार बनती थी ।जिस कारण पूरे इलाके में आर्थिक गतिविधियां बनी रहती थी । पर्वतीय समाज और संस्कृति को जिंदा रखने में इन मंडियों का बहुत बड़ा योगदान था । कमोबेश यह परंपरागत मंडियां हर पर्वतीय जनपद में मौजूद हैं जो अब सिकुड़ रही हैं, इसी कारण मौजूदा समय में इन मंडियों को सरकार के संरक्षण की आवश्यकता है।
अतीत में इन मंडियों ने पूरे क्षेत्र की खुशहाली की कहानी लिखी है , लेकिन आज पलायन के संकट ने और नई पीढ़ी की अरूचि तथा सब्जी और बागवानी में अधिक मेहनत और कम मुनाफा होने के कारण इन मंडियों का अस्तित्व संकट में है .
यह पर्वतीय मंडियां बहुत थोड़े सरकारी संरक्षण से पुनर्जीवित हो सकती हैं उत्तराखंड के 95 ब्लॉक से लगभग 76 ब्लॉक पर्वतीय क्षेत्र में पड़ते हैं प्रत्येक ब्लॉक में सहायक कृषि रक्षा अधिकारी की तैनाती है और उनके साथ 2 सहायक भी हैं वर्तमान में जिनका उपयोग परंपरागत कृषि के संरक्षण में नहीं के बराबर है. अगर प्रत्येक ब्लॉक में फल एवं सब्जी अनुसंधान परिषद की स्थापना हो और सहायक कृषि अधिकारी को सब्जी और फल पट्टियों से खुद को जोड़ कर एक निश्चित खसरे में किसानो की मदद से सब्जी उत्पादन का दायित्व दिया जाए, जहां वह आधुनिक बीज, खाद और परामर्श उपलब्ध कराएं तो पर्वतीय मंडियों की तस्वीर आज भीआसानी से बदल सकती है जो काफी हद तक रोजगार एवं पलायन की समस्या का भी समाधान प्रस्तुत करती हैं । उत्तराखंड की प्रमुख पर्वतीय मंडियां जो फल और सब्जी पट्टी के रुप में प्रसिद्ध हैं कमोबेश हर पर्वतीय जनपद में हैं. जैसे हेलंग से तपोवन तक का जोशीमठ का क्षेत्र, खेती दीवाली खाल चमोली, दुदौली दूनागिरी द्वाराहाट भिक्यासैण भतरोजखान, जेनौली, पिल्खोली जनपद अल्मोड़ा कोटाबाग रामगढ़, नथुआ खान मुक्तेश्वर क्षेत्र नैनीताल जनपद, नौगांव पुरोला बड़कोट पूरी यमुना घाटी जनपद उत्तरकाशी, नैनबाग पंतवाड़ी जौनपुर क्षेत्रटिहरी, खेती खान, सूखीढांग जनपद चंपावत चांडाक, बेरीनाग पिथौरागढ़,कांडा नाकुरी बागेश्वर आदि आदि वह परम्परागत पर्वतीय मंडिया है, जो बहुत थोड़ी योजनाबद्ध मेहनत से फिर खुशहाल हो सकती हैं और दरकते पर्वतीय समाज को आधार भी दे सकती हैं, पर्वतीय फल एवं सब्जी के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए हार्क के डॉक्टर महेंद्र कुंवर पुरोला के युद्धवीर सिंह नैनीताल धानाचुली मुक्तेश्वर क्षेत्र के किसान जो कि पोली हाउस फार्मिंग से सफलता का नया इतिहास लिख रहे हैं के अनुभव का लाभ उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों की फल एवं सब्जी पट्टियों के विकास एंव विस्तार के लिए लिया जा सकता है यहीं से उत्तराखंड की खुशहाली का रास्ता भी निकलता है ।