प्रोफेसर राजकुमार जैन
सैकड़ों साल की गुलामी के खिलाफ़ कांग्रेस पार्टी के झण्डे के नीचे महात्मा गाँधी की रहनुमाई में अंग्रेज़ी सल्तनत के विरुद्ध जो संघर्ष चल रहा था, उसमें आखिर वो दिन भी आ गया जिस दिन का इंतज़ार कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी दूसरे विश्वयुद्ध के आरंभ से कर रही थी कि गाँधीजी को जन-आंदोलन शुरू कर देना चाहिए। सोशलिस्ट लगातार गाँधीजी तथा कांग्रेस पर दबाव बना रहे थे। जयप्रकाश नारायण ने 9 अक्टूबर 1939 को ए.आई.सी.सी. की बैठक में जवाहरलाल नेहरू के प्रस्ताव के सामने एक संशोधन पेश करते हुए माँग की थी कि हमें तत्काल जन आंदोलन छेड़ देना चाहिए, परंतु कार्यसमिति ने उनके संशोधन को प्रचंड बहुमत से खारिज कर दिया।
डॉ. लोहिया चाहते थे कि गाँधीजी सत्याग्रह का एलान करें। उन्होंने गाँधीजी को पत्र लिखकर आग्रह किया, परंतु गाँधीजी सत्याग्रह शुरू करने को तैयार नहीं हुए। उन्होंने इसके दो कारण भी बताए। एक तो यह कि अभी समूचे देश ने अहिंसा को निष्ठापूर्वक स्वीकार नहीं किया है और दूसरा यह कि अभी देश में इसके लिए आवश्यक अनुशासन भावना नहीं आयी है।
लोहिया ने गाँधीजी से आग्रह किया कि भारत की आज़ादी के लिए अब और इंतज़ार नहीं करना चाहिए। सत्याग्रह हर हालत में अब शुरू हो जाना चाहिए। गाँधीजी न तो लोहिया की सलाह से सहमत थे और न ही कांग्रेस की राय से, उन्होंने सत्याग्रह के संबंध में लोहिया से कहा- ‘अभी नहीं’।
7,8, 9 अगस्त 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस का एक विशेष अधिवेशन बम्बई के गवालिया टैंक मैदान में बनाए गए पंडाल में आयोजित किया गया। उस समय बम्बई के मेयर सोशलिस्ट नेता यूसुफ मेहर अली थे। कांग्रेस के सम्मेलन से पहले यूसुफ मेहर अली ने 1 अगस्त 1942 को बम्बई के चौपाटी मैदान पर तिलक जयन्ती समारोह में जनता का आह्वान करते हुए खुले शब्दों में कहा कि बम्बईवासियों को आज़ादी की लड़ाई के अंतिम दौर के लिए तैयार होना है, जो न केवल जेल होगी, बल्कि अंग्रेज़ी राज को भारत से खत्म करने के लिए खुला विद्रोह होगा। कांग्रेस पार्टी का सम्मेलन होने से पहले सोशलिस्ट कार्यकर्ताओं की कई बैठकें हुईं, उन्होंने कहा कि अगर महात्मा गाँधी तथा अन्य राष्ट्रीय नेताओं की गिरफ्तारियाँ हों तो हमें भूमिगत रहकर कैसे काम करना है। मेहर अली ने महात्मा गाँधी के आशीर्वाद से पद्मा पब्लिकेशन नाम पर एक पुस्तिका ‘Quit India’ प्रकाशित की, जिसकी हजारों प्रतियाँ हाथों हाथ बिक गईं।
महात्मा गाँधी के बम्बई आगमन पर यूसुफ मेहर अली ने ही मेयर की हैसियत से उनका स्वागत किया। सम्मेलन में भाग लेनेवाले प्रतिनिधियों के लिए यूसुफ ने एक बिल्ला बनवाया था, जिसमें भारत का मानचित्र बना हुआ था तथा उसके ऊपर क्यू. अर्थात् क्विट इण्डिया (भारत छोड़ो) लिखा हुआ था जो कि चाँदी के समान धातु का बना हुआ था, गाँधीजी को दिखाया। परंतु गाँधीजी ने कहा कि हिंदुस्तान की गरीब जनता चाँदी की खरीदारी नहीं करती, इसलिए इसकी जगह ताँबे की परत का बिल्ला बनवाओ। मेहर अली ने रातोरात बिल्ले को तैयार करवाया, जिसे गाँधीजी ने पसंद किया। सम्मेलन के लिए एक वालंटियर कोर भी बनाई गई जिसके इंजार्च सोशलिस्ट नेता अशोक मेहता थे। यूसुफ मेहर अली पहले नेता थे जिसने ‘साइमन कमीशन वापिस जाओ’ तथा ‘भारत छोड़ो’ नारा दिया था।
सम्मेलन की अध्यक्षता मौलाना अबुल कलाम आज़ाद कर रहे थे। जवाहरलाल नेहरू ने ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव पेश किया। सरदार पटेल ने इसका अनुमोदन किया। अन्य नेताओं के अतिरिक्त सोशलिस्ट नेता आचार्य नरेन्द्रदेव, अच्युत पटवर्धन तथा डॉ लोहिया ने प्रस्ताव का जोरदार समर्थन किया। डॉ. लोहिया ने प्रस्ताव पर बोलते हुए कहा कि “पिछले कुछ महीनों से बरतानिया हुकूमत के प्रति कांग्रेस में एक क्रांतिकारी परिवर्तन आया है। भारत के लोगों को यह विश्वास हो गया है कि अंग्रेज़ी हुकूमत कोई अपराजेय नहीं है, जैसा कि पहले जनता को लगता था, अब जनता के दिलों में भय समाप्त हो गया है। सम्मेलन में कम्युनिस्टों द्वारा प्रस्ताव के विरोध में कई संशोधन पेश किये गये थे इसका विरोध करते हुए आचार्य नरेन्द्रदेव ने कहा, “यह अफसोस की बात है कि अभी भी ऐसे लोग हैं जो संघर्ष के आखिरी दौर में भी कुर्बानी देने के लिए तैयार नहीं हैं। वे पहले भी नहीं थे, अब भी नहीं हैं। अच्युत पटवर्धन ने पाकिस्तान की माँग पर कम्युनिस्टों के रुख का विरोध करते हुए कहा कि कम्युनिस्टों का यह कहना है कि करोड़ों मुसलमान पाकिस्तान के पक्ष में हैं, वो यह क्यों नहीं कहते कि कई करोड़ इसके खिलाफ़ भी हैं। कम्युनिस्ट कांग्रेस से तो यह अपील कर रहे हैं परंतु वे मुस्लिम लीग से क्यों नहीं करते।”
8 अगस्त की रात में महात्मा गाँधी ने कांग्रेस प्रस्ताव पर बोलते हुए भारतवासियों का आह्वान करते हुए तीन बातें कहीं –
1. करो या मरो
2. अंग्रेजो भारत छोड़ो
3. आज से हर भारतवासी अपने को स्वतंत्र समझे। भारत को आज़ाद कराने के लिए अब वे अपने नेता स्वयं हैं।
मैदान में मूसलाधार बारिश हो रही थी। 50 हजार से ज़्यादा लोगों ने महात्मा गाँधी के संदेश को सुना। गाँधीजी के भाषण से मैदान में मानो भूचाल सा आ गया।
9 अगस्त की सुबह गाँधीजी सहित सभी प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया। एक तरफ नेताओं की धरपकड़ चल रही थी, वहीं तय कार्यक्रम के अनुसार 9 अगस्त की सुबह सोशलिस्ट नेता अरुण आसफ अली ने बेखौफ होकर कीचड़ से भरे सभास्थल पर जाकर सम्मेलन की अध्यक्षता की घोषणा करके राष्ट्रीय झण्डा फहरा दिया।
गिरफ्तारियों के विरोध में पूरे देश में व्यापक प्रतिक्रिया हुई। जगह-जगह रेल पटरियाँ उखाड़ी गयीं, डाकखाने जलाए गए, आवागमन की व्यवस्था भंग कर दी गयी, थानों और कचहरियों पर हमले किये गये। बलिया (पूर्वी उत्तर प्रदेश) मिदनापुर (बंगाल) तथा सतारा (महाराष्ट्र) स्वतंत्र घोषित कर दिये गये जहाँ पर समानांतर सरकारें स्थापित कर दीं।
बड़े शहरों में विशाल प्रदर्शन हुए, सैकड़ों गाँवों में लोगों ने पुलिस के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। विद्रोह को दबाने-कुचलने के लिए सरकार ने सेना की सहायता भी ली। यहाँ तक कि कुछ स्थानों में बमबारी भी की गई। बर्बरता तथा दमन के तहत लाखों भारतीयों को जेलों में ठूँस दिया गया तथा लगभग 25000 लोगों की जान गई।
बम्बई के कांग्रेस अधिवेशन के दौरान कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक चल रही थी उसमें विचार का प्रमुख विषय था कि आगामी संघर्ष का रूप क्या हो। जो लोग 9 अगस्त की गिरफ्तारी से बच गए थे, उन्होंने भूमिगत होकर दृढ़संकल्प के साथ आंदोलन को चलाने की योजना को अंतिम रूप दिया। सोशलिस्ट नेता डॉ राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, रामनंदन मिश्र, पुरुषोत्तम विक्रमदास, एस.एम. जोशी तथा उषा मेहता, अरुण आसफ अली तथा जयप्रकाश नारायण, जो कि हज़ारीबाग जेल की ऊँची दीवार फाँदकर बाहर आ गए थे, ने भूमिगत आंदोलन को संचालित किया। वस्तुत: भूमिगत आंदोलन कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने ही चलाया। इनकी नीति थी ‘न हत्या न चोट’। जयप्रकाश नारायण सशस्त्र संघर्ष की तैयारी में जुटे थे परंतु व्यक्तिगत आतंकी कार्रवाई से बचा जा रहा था। पुरानी क्रांतिकारी गुप्त नीतियों को पुन: अमल में लाया जा रहा था तथा सरकारी संचार माध्यमों को बड़े स्तर पर बाधित किया गया। डॉ. लोहिया का कहना था कि थाना-पुलिस स्टेशन ब्रिटिश राज की धमनियाँ हैं, क्रांतिकारी जनता को इन केंद्रों को ध्वस्त कर देना चाहिए।
गिरफ्तारियों के साथ ही अंग्रेज़ी हुकूमत ने समाचारपत्रों की आज़ादी का गला घोंट दिया था तथा संघर्ष से जुड़े समाचारों पर प्रतिबंध लगा दिया। इसका मुकाबला करने के लिए सोशलिस्ट क्रांतिकारियों ने स्वतंत्रता संग्राम के समाचार देने के लिए ‘रेडियो केंद्र’ स्थापित किया जिसका संचालन उषा मेहता, डॉ. राममनोहर लोहिया, विट्ठलदास खोकर, विट्ठल जवेरी, चंद्रकांत आदि कर रहे थे।
जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया आंदोलन की तैयारी के लिए भेष बदलकर नेपाल की सीमा में चले गए। वहाँ पर इन्होंने ‘आज़ाद दस्ते’ का निर्माण किया, परंतु अंग्रेज़ सरकार को इसकी भनक लग गई थी, उसने नेपाली शासकों से कहकर नेपाली पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया। परंतु आज़ाद दस्ते ने हथियारों के बल पर इनको आज़ाद करवा लिया। हालाँकि इस बीच गोली चलने से इन दोनों नेताओं की जान जाने से बची।
दिल्ली में अगस्त क्रांति आंदोलन
9 अगस्त की क्रांति की लपटें पूरे हिंदुस्तान में उठी थीं। दिल्ली में भी 9अगस्त को जबरदस्त संघर्ष हुआ। दिल्ली के पुराने सोशलिस्ट नेता मरहूम रूपनारायण जी, जो कि जयप्रकाश नारायण के दिल्ली में सबसे प्रमुख साथियों में थे, उन्होंने बम्बई के गवालिया टैंक मैदान की सभा में दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव तथा एक प्रतिनिधि की हैसियत से हिस्सा लिया था। आज़ादी के आंदोलन में चार बार लंबी-लंबी अंग्रेजों की जेल भोगी थी। इसके साथ ही इनकी माताजी श्रीमती शर्बती देवी तथा बड़ी बहन श्रीमती गुणवती देवी एवं छोटी बहन श्रीमती शांति देवी वैश्व भी सत्याग्रह करते हुए जेल गई थीं। वे 9 अगस्त 1942 के बाद दिल्ली में हुए जन आंदोलन का हाल बताते थे कि दिल्ली भी इन हलचलों से प्रभावित हुई। 9 अगस्त की सुबह दिल्ली के सभी कांग्रेसी नेता लाला देशबंधु गुप्ता, मौलाना नुरुद्दीन बिहारी, सोशलिस्ट नेता मीर मुश्ताक अहमद, इमदाद साबरी (सोशलिस्ट), श्रीमती मेमोबाई लाला हनुमंत सहाय, डॉ. युद्धवीर सिंह, बैरिस्टर फरीद-उल हक अन्सारी (सोशलिस्ट) आदि गिरफतार कर लिये गए।
कांग्रेसी कार्यकर्ता टोलियाँ बनाकर शहर में घूमते रहे दिल्ली में पूरी हड़ताल रही। सब कारोबार बंद हो गए। मिल मज़दूरों ने भी हड़ताल कर दी। दिल्ली कांग्रेस कमेटी के दफ्तर पर पुलिस ने कब्जा कर लिया, वहाँ ताले लगा दिये गये। 10 अगस्त को एक बहुत बड़े जुलूस का आयोजन हुआ। इस जुलूस को तितर बितर करने के लिए पुलिस ने लाठी-चार्ज किया जिसमें अनेक लोग घायल हो गए। कांग्रेस के भूमिगत नेताओं ने निर्णय किया कि 11 अगस्त की सुबह 9 बजे चाँदनी चौक घंटाघर के नीचे प्रदेश कांग्रेस कमेटी के उपाध्यक्ष हकीम खलील-उर-रहमान राष्ट्रीय झण्डा फहराएंगे। यह खबर पूरे शहर में आग की तरह फैल गई। निर्धारित समय पर पुलिस ने चारों ओर से घंटाघर को घेर लिया ताकि हकीम साहब वहाँ न पहुँच सकें। इसके बावजूद सैकड़ों की संख्या में कांग्रेस कार्यकर्ता घंटाघर के आसपास जमा हो गए, हकीम साहिब के आने का इंतज़ार करने लगे। समय आहिस्ता-आहिस्ता बीत रहा था। 9 बजनेवाले थे लेकिन निर्धारित कार्यक्रम के अनुार राष्ट्रीय झण्डा फहराने के लिए हकीम साहब उपस्थित नहीं थे। प्रतीक्षा करते कांग्रेसी कार्यकर्ताओं और आम लोगों में घबराहट फैलने लगी। सबके सामने प्रश्न यह था कि इतनी बड़ी संख्या में पुलिस की मौजूदगी में हकीम साहब घंटाघर तक पहुँचेंगे कैसे?
उन दिनों परदानशीं औरतों या मरीजों के लिए डोलियों का प्रबंध रहता था। उपस्थित लोगों ने देखा कि ऐसी ही एक डोली फव्वारे की ओर से चली आ रही है। पुलिस और उपस्थित लोगों ने यह समझा कि इस डोली में कोई परदानशीं औरत आ रही है, इसलिए पुलिस ने इस डोली को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया। घंटाघर के ठीक नीचे वह डोली रुक गई। उसमें से परदा हटाकर हकीम साहब बाहर निकल आये। उनके हाथ में राष्ट्रीय झण्डा था। हकीम साहब ने पहले ही सब कुछ समझ लिया था कि घंटाघर पहुँचकर उन्हें क्या करना है, हकीम साहब को देखकर चारों ओर के कांग्रेसी कार्यकर्ता और आम लोग उन्हें घेकर खड़े हो गए। पुलिस भौचक्का हो यह सब देखती रही।
हकीम साहब ने एक मेज पर खड़े होकर ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन की सार्थकता पर एक अत्यंत ही जोशीला भाषण दिया। उस भाषण के बाद लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ़ नारे बुलंद कर दिये। कुछ क्षण पश्चात् हकीम साहब झण्डा लिये हुए फतेहपुरी मस्जिद की ओर बढ़े तो उनके पीछे हजारों लोगों की भीड़ भी चली। मस्जिद के बाहर बहुत बड़ी संख्या में मौजूद पुलिस ने हकीम साहब को गिरफ्तार करने की कोशिश की, लेकिन भीड़ ने उन्हें गिरफ्तार नहीं होने दिया। पुलिस ने लोगों पर जबर्दस्त लाठीचार्ज किया तो लोगों ने जवाब में पत्थर फेंकने शुरू कर दिये। अंत में पुलिस ने हकीम साहब को गिरफ्तार कर उन्हें कोतवाली पहुँचा दिया। हजारों उपस्थित लोगों की भीड़़ पुलिस की लाठियों से बचने के लिए घंटाघर की ओर वापिस लौटने लगी। घंटाघर पर पुलिस ने इन लोगों पर लाठियाँ चलायीं। घंटाघर के सामने स्थित दिल्ली म्यूनिसिपल कमेटी के कार्यालय में आग लगा दी, भीड़ ने क्रुद्ध होकर वहाँ खड़ी दो ट्रामों में भी आग लगा दी, चाँदनी चौक के डाकघर पर भी हमला बोला गया। भीड़ को तितर-बितर करने के लिए घुड़सवार सिपाहियों का उपयोग किया गया।
सब तरफ सरकारी संपत्ति को नष्ट किया गया जा रहा था। लोगों की भीड़ पर पुलिस ने गोलियाँ चलाईं, जिसमें अनेक लोग मारे गए और बहुत से लोग जख्मी हुए। रेलवे स्टेशन के सामने एक पेट्रोल पंप में भी आग लगा दी गई। उस समय की दिल्ली में एकमात्र आठ मंजिली ऊंची इमारत जिसे ‘पीली कोठी’ के नाम से जाना जाता है, उसमें रेलवे का दफ्तर था, में भी भीड़ ने आग लगा दी। पीली कोठी जलानेवाली भीड़ में सोशलिस्ट बाल किशन ‘मुजतर’ भी थे, जिनके साथ कालीचरण किशोर और पंजाब के मशहूर सोशलिस्ट नेता रनजीत सिंह मस्ताना भी थे। इस जगह पर पुलिस ने भीड़ पर गोली चलाई, जिसमें दो व्यक्ति मारे गए। जिस अफसर ने गोली चलाई थी, उसको लोगों ने घेरकर पत्थरों से वहीं मार डाला। शाम 7 बजे के पश्चात् दिल्ली नगर को अंग्रेज़ फौज के सुपुर्द कर दिया गया। 11, 12, 13 अगस्त को फौज ने लगभग 50 स्थानों पर गोलियां चलाईं। 150 से अधिक लोग मारे गए और 300 से अधिक व्यक्ति जख्मी हुए।
सोशलिस्ट नेता ब्रजमोहन तूफान बताते थे कि हमने अपने कालिज- हिंदू कालिज- से एक जुलूस निकाला जो कश्मीरी गेट से शुरू होकर चाँदनी चौक पहुँचा। जुलूस ज्यों ही पुरानी दिल्ली स्टेशन पहुँचा चारों तरफ सरकारी इमारतों में आग लगी हुई थी, धुआँ ही धुआँ निकल रहा था। नई सड़क के पास हमारे जुलूस के सामने गुरखा बटालियन का एक जत्था पहुँच गया। चारों ओर महात्मा गाँधी जिंदाबाद के नारे लग रहे थे। इतनी देर में पुलिस द्वारा बर्बरतापूर्ण लाठीचार्ज शुरू कर दिया गया, जिसके कारण बहुत सारे लोगों के सिर फट गए, हडिड्याँ टूट गईं। घरों की छतों से लोग पत्थर फेंक रहे थे, कुछ ही क्षणों के बाद सशस्त्र पुलिस दल भी वहाँ पहुँच गया, हम किसी तरह सिर पर हाथ रखकर वहाँ से निकले।
एक तरफ पुरानी दिल्ली में आंदोलनकारी और पुलिस फौज में संघर्ष हो रहा था वहीं नई दिल्ली के कनाट प्लेस में महात्मा गाँधी जिंदाबाद के नारे लग रहे थे।
10 अगस्त 1942 को रॉबर्ट टोर रसेल के डिज़ाइन किये कनाट प्लेस में भी अंग्रेजों के स्वामित्व वाली दुकानों को आग के हवाले कर दिया गया था। सुबह से ही सभी उम्र के दिल्ली वाले कनाट प्लेस में इकट्ठा होने शुरू हो गए, इनमें से ज्यादातर खादी का कुर्ता-पायजामा पहने हुए थे। उन दिनों कनाट प्लेस में गोरों और आयरिश लोगों की अनेक दुकानें थीं, तब कनाट प्लेस गोरों का गढ़ था। भीड़ ने सबसे पहले ‘रैकलिंग एण्ड कंपनी’, ‘आर्मी एण्ड नैवी’, ‘फिलिप्स एण्ड कम्पनी’ और ‘लॉरेंस एण्ड म्यों’ नामक शो रूमों को फूँका। ‘रैकलिंग एण्ड कम्पनी’ जो कि एक हिन्दुस्तानी की थी, अंग्रेज़ी नाम होने के कारण आंशिक रूप से जल गई। हैरानी की बात है कि आंदोलकारियों ने कनाट प्लेस में चीनी मूल के तीन शोरूम डी. मिनसन एण्ड कम्पनी, चाइनीस, आर्ट सेंटर और जॉन ब्रदर्स को किसी प्रकार का नुकसान नहीं पहुंचाया। दिल्ली में आंदोलन का नेतृत्व स्वामी श्रद्धानंद, हकीम अजमल खां, डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी, बैरिस्टर आसिफ अली, लाला शंकरलाल, बहन सत्यवती (सोशलिस्ट), कृष्ण नायर (सोशलिस्ट), अरुण आसफ अली (सोशलिस्ट) कर रहे थे।
9 अगस्त को शुरू हुए आंदोलन में देश भर में हजारों लोगों ने अपनी जानें गँवाईं। सालों जेल की यातनाएं सहीं, अपना घर-बार सब कुछ लुटा दिया। उसके बाद हमको आज़ादी प्राप्त हुई।
क्योंकि अगस्त आंदोलन प्रमुखत: सोशलिस्टों द्वारा लड़ा गया था। इसलिए 9अगस्त 1942 से लेकर आज तक हिंदुस्तान में जगह-जगह इस दिवस की याद में सोशलिस्ट यादगार दिवस के रूप में मनाते रहे हैं। सोशलिस्टों के लिए 9 अगस्त का बहुत महत्त्व है।
डॉ. राममनोहर लोहिया ने 9 अगस्त, 15 अगस्त तथा 26 जनवरी के इन दिवसों की ऐतिहासिक अहमियत पर रोशनी डालते हुए अगस्त 1967 के अपने एक लेख में 9 अगस्त 1942 की पच्चीसवीं वर्षगाँठ पर लिखा था, कि इसे अच्छे तरीके से मनाया जाना चाहिए। इसकी पचासवीं वर्षगाँठ इस प्रकार मनाई जाएगी कि 15 अगस्त भूल जाए, बल्कि 26 जनवरी भी पृष्ठभूमि में चली जाए या उसकी समानता में आ जाए। 26 जनवरी और 9 अगस्त एक ही श्रेणी की घटनाएँ हैं। एक में आज़ादी की इच्छा की अभिव्यक्ति थी और दूसरी ने आज़ादी के लिए लड़ने का संकल्प करवाया।