जो टेक्नोलॉजी इंसानों को बे-काम बनाती है, संभव है वही न्यूनतम आय की किसी वैश्विक योजना के तहत उन्हें खिलाने और जिंदा रखने में काम आ जाए। मगर उसके बाद असल समस्या ऐसे लोगों को व्यस्त और संतुष्ट रखने की होगी। लोगों को उद्देश्यपूण गतिविधियों में लगाए रखना पड़ता है। वर्ना खाली दिमाग तो शैतान का घर समिझए। बेकाम लोगों का समूचा वर्ग दिन-भर करेगा क्या ?
आज दिखाई पड़ने वाली ज्यादातर नौकरियाँ अगले दो-तीन दशकों में नहीं रहेंगी। कृत्रिम बुिद्धमत्ता (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) तमाम किस्म के कामों में जिस तरह इंसान को पीछे छोड़ रही है, उसे देखते हुए लगता है कि अधिकांश पेशों में यह उन्हें बेदखल कर डालेगी। संभव है कि इस बीच कुछ नए पेशे उभर कर आ जाएँ- जैसे आभासी दुिनया के डिजाइनर। लेिकन इस तरह के पेशे के लिए बहुत ऊँचे स्तर की रचनात्मकता व बौद्धिक लचीलेपन की जरूरत होगी। यह अभी साफ नहीं है कि जो टैक्सी ड्राइवर या बीमा एजेंट 40 साल की उम्र में बेरोजगार हुआ है, वह क्या अपने आप को इस किस्म के पेशे के लिए तैयार कर पाएगा ? (किसी बीमा एजेंट द्वारा डिजाइन किए गए आभासी संसार की कल्पना कीजिए।) मान लीजिए एक पूर्व बीमा एजेंट किसी तरह खुद को आभासी दुिनया के डिजाइनर के रूप में ढाल लेता है। मगर टैक्नाॅलाॅजी में प्रगति की रफ्तार इतनी तेज होगी कि एक दशक के भीतर उसके सामने फिर अपने आप को किसी नयी भूमिका के लिए तैयार करने की चुनौती खड़ी हो जाएगी।
मूल समस्या नई नौकरियाँ पैदा करने की नहीं है। मूल समस्या ऐसी नौकरियों के सृजन की है, जिनमें इंसान मशीनी अल्गोरिदम पर भारी पड़ते हैं। परिणामस्वरूप, सन 2050 तक ऐसे लोगों का एक नया वर्ग पैदा हो जाएगा, जो बेकाम (अनुपयोगी) होंगे। ऐसे लोग जो न केवल बेरोजगार होंगे, बल्कि किसी रोजगार के लायक भी नहीं होंगे।
जो टेक्नोलॉजी इंसानों को बे-काम बनाती है, संभव है वही न्यूनतम आय की किसी वैश्विक योजना के तहत उन्हें खिलाने और जिंदा रखने में काम आ जाए। मगर उसके बाद असल समस्या ऐसे लोगों को व्यस्त और संतुष्ट रखने की होगी। लोगों को उद्देश्यपूण गतिविधियों में लगाए रखना पड़ता है। वर्ना खाली दिमाग तो शैतान का घर समिझए। बेकाम लोगों का समूचा वर्ग दिन-भर करेगा क्या ?
इस सवाल का एक जवाब हो सकता है कम्यूटर गेम्स। आर्थिक तौर पर अनुपयोगी हो चुके लोग ज्यादातर समय 3-डी वर्चुअल रियलिटी गेम्स खेलते हुए बिता सकते हैं। इसमें उन्हें बाहर की वास्तविक दुनिया के मुकाबले ज्यादा रोमांच व भावनात्मक संतुिष्ट मिलेगी। सच कहें तो यह एक बहुत पुरानी आजमायी हुई तरकीब है। पहले भी हम ऐसे वर्चुअल रियलिटी गेम्स की खोज कर चुके हैं। मगर इन्हें वक्त काटने के खेल के रूप में नहीं, बल्कि मजहब या धर्म के नाम से जाना जाता है।
मजहब अगर करोड़ों लोगों द्वारा एक साथ खेला जाने वाले बहुत बड़ा वर्चुअल रियलिटी गेम नहीं है तो फिर क्या है ? इस्लाम और इसाईयत जैसे मजहबों ने काल्पनिक नियम बनाए- जैसे सूअर का मांस मत खाओ, हर दिन एक खास बार एक ही प्रार्थना दोहराओ, अपने ही लिंग के किसी सदस्य के साथ संबंध मत बनाओ आदि-इत्यािद। सिर्फ इंसानी कल्पनाओं में ही इस तरह के नियमों का अस्तित्व है। प्राकृतिक व्यवस्थाओं में कहीं भी किसी जादुई फार्मूले को दोहराने की जरूरत नहीं पड़ती। किसी भी प्राकृतिक नियम के तहत समलैंगिकता या सूअर का मांस खाने पर प्रतिबंध नहीं है। मुसलमान और ईसाई जिन्दगी भर अपने मनपसंद वर्चुअल रियलिटी गेम में पॉइंट कमाने का जतन करते रहते हैं। अगर आप दिन भर प्रार्थना करते हैं तो आपको पॉइंट मिलेंगे। अगर आप प्रार्थना करना भूल गए तो आप पॉइंट खोएँगे। अगर जीवन के अंत तक आप अच्छे पॉइंट बना ले जाते हैं तो मरने के बाद आप खेल के अगले लेवल (यानी जन्नत) तक पहुँच जाएँगे। जैसा कि तमाम मजहब हमें बताते हैं, वर्चुअल रियलटी को किसी अलग-थलग बक्से में बंद नहीं किया जा सकता। बल्कि भौतिक वास्तविकता के ऊपर इसका मुलम्मा चढ़ाया जा सकता है। अतीत में भी इंसानी कल्पनाओं व पवित्र पुस्तकों के जरिए ऐसा किया जा चुका है। कुछ समय पहले मैं अपने छः वर्षीय भतीजे मतान के साथ पोकेमोन के शिकार पर निकला। हम सड़क पर नीचे उतर रहे थे। मतान अपने स्मार्टफोन पर नजरें गड़ाए हुए था, जिस कारण वह हमारे आसपास मौजूद पोकेमोनों को देख पा रहा था। मुझे कहीं कोई पोकेमोन नजर नहीं आया, क्योंकि मेरे पास स्मार्टफोन नहीं था। तभी हमें सड़क पर दो और बच्चे दिखाई दिए। वे दोनों भी उसी पोकेमोन के पीछे पड़े थे और हम उनसे लगभग उलझ पड़े। इस बात ने मुझे अहसास कराया कि ठीक ऐसी ही परिस्थितियों में यहूदी और मुसलमान पवित्र शहर येरुसलम के लिए आपस में लड़ते हैं। जब आप येरुसलम की वस्तुगत सच्चाई पर गौर करते हैं, तो आपको सिर्फ पत्थर और इमारतें ही नजर आती हैं। पवित्रता का कहीं कोई निशान नहीं है। लेकिन जैसे ही आप इस शहर को स्मार्टबुक्स (जैसे बाइबल और कुरआन) के नजरिए से देखते हैं तो आपको हर जगह पवित्र स्थान और देवदूत ही देवदूत नजर आने लगते हैं। वर्चुअल रियलिटी गेम्स खेलते हुए जीवन में अर्थ की तलाश का मामला सिर्फ मजहब तक सीमित नहीं है। यह तलब धर्मनिरपेक्ष विचारधाराओ ंऔर जीवन शैलियों में भी देखी जा सकती है। उपभोक्तावाद भी एक वर्चुअल रियिलटी गेम है। आप नई कार, महंगे ब्रांड्स खरीदकर और विदेशों में छुिट्टयां बिताकर पॉइंट कमा सकते हैं। और अगर आपके बाकी लोगों से ज्यादा पॉइंट्स हैं तो आप कह सकते हैं कि आप गेम जीत गए हैं।
आप ऐतराज कर सकते हैं कि लोग तो वास्तव में अपनी कार या छुिट्टयों का आनंद लेते हैं। यह वास्तव में सच है। लेकिन धार्मिक लोगों को भी पूजा व कमर्कांड करने में सचमुच आनंद आता है और मेरा भतीजा भी पोकेमोन के शिकार में खूब आनंदित होता है। अंततः असली कारर्वाही हमेशा इंसानी दिमाग के भीतर ही होती है। क्या इस बात से कोई फर्क पड़ता है कि तंत्रिकाएँ कंप्यूटर स्क्रीन पर आने वाले चित्रों को देखकर उत्तेजित होती हैं, किसी कैरेबियाई रिजोर्ट की खिड़की से बाहर झाँकने पर या फिर मन की आँखों से दिखने वाले वर्ग को देखकर ?
सभी मामलों के मद्देनजर जीवन का जो भी अर्थ हम निकालते हैं, वह हमारे दिमाग का पैदा किया हुआ होता है। वास्तव में वहाँ बाहर कुछ नहीं होता। अब तक की ताजातरीन वैज्ञािनक जानकारी के मुताबिक इंसानी जीवन का कोई मकसद नहीं है। जीवन के बताए गए तमाम मकसद इंसानों द्वारा गढ़ी गई कोरी कल्पना मात्र है।
अपने अभूतपूर्व निबंध- ‘डीप प्ले: बालीनीज कॉकफाइट’ (1973) में मानवशास्त्री क्लिप्फोर्ड गीत्र्ज बताते हैं कि किस तरह बाली द्वीप के लोग अपना ज्यादातर वक्त और पैसा कॉकफाईट यानी मुर्गों की लड़ाइयों पर दाँव लगाने में खर्च कर डालते हैं। दाँव और लड़ाइयों का आयोजन भरपूर कर्मकांडों के साथ होता है। इनके नतीजों का भारी असर खेलने वालों व दर्शकों, दोनों की सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक हैसियत पर पड़ता है। कॉकफाईट बालीवासियों के लिए इतनी अहम है कि इंडोनेशिया की सरकार ने जब इस परम्परा को अवैध घोषित किया तो लोगों ने कानून को ठेंगा दिखाते हुए इसे खेला और बदले में गिरफ्तारी व भारी जुर्माना देना मंजूर किया। बालीवासियों के लिए कॉकफाइट्स ‘डीप प्ले’ थीं- रचा गया एक ऐसा खेल, जिसे इतने अर्थ प्रदान किए गए कि वह वास्तविकता में बदल गया। बाली का कोई मानवशास्त्री इसी तरह के तर्काें के साथ अर्जंेटीना के फुटबॉल या इजराइल के यहूदी धर्म के बारे में भी ऐसा ही निबंध लिख सकता है।
बेशक, इजरायली समाज का एक खास दिलचस्प हिस्सा यह दिखाता है कि कार्यविहीन दुनियां में संतोष के साथ कैसे रहा जाये। इजरायल में अति रूढ़िवादी यहूदी पुरुष कभी काम नहीं करते। वे अपना पूरा जीवन पवित्र पुस्तकों को पढ़ने और धार्मिक कर्मकांडों में बिता देते हैं। वे और उनके परिवार कभी भूखे नहीं मरते हैं, क्योंकि उनकी पत्नियाँ अक्सर घर चलाने के लिए काम करती हैं। इसके अलावा सरकार से भी उन्हें थोड़ी-बहुत इमदाद मिल जाती है। हालाँकि उनका जीवन अमूमन गुरबत में ही बीतता है, मगर सरकारी मदद मिल जाने से जीवन की बुनियादी जरूरतें तो पूरी हो ही जाती हैं।
इसे आप कामकाजी वैश्विक बुिनयादी आय कह सकते हैं। हालाँकि वे गरीब हैं और कभी काम नहीं करते, लेकिन तमाम सर्वेक्षणों में ये अति रुढ़िवादी यहूदी पुरुष अपने जीवन में इजरायली समाज के अन्य हिस्सों की तुलना में ज्यादा संतुष्ट होने का दावा करते हैं। जीवन संतुिष्ट के वैश्विक सर्वेक्षणों में इजरायल यदि शीर्ष देशों में गिना जाता है, तो इसके लिए इन बेरोजगार ‘डीप प्लेयरों’ के योगदान को धन्यवाद कहना होगा।
कार्यविहीन दुिनया का नक्शा कैसा होगा, इसे जानने के लिए आपको इजरायल जाने की कतई जरूरत नहीं। अगर आपके घर में कोई किशोर वय का बेटा है, जिसे कंप्यूटर गेम्स का चस्का है तो आप खुद ही अपना प्रयोग कर सकते हैं। उसे कोक व पिज्जा का उसका न्यूनतम कोटा मुहैया करा दें और काम करने व पितृवत देख-रेख से जुड़े अपने तमाम आदेशों को स्थगित कर दें। आप देखेंगे कि वह कई-कई दिनों तक अपने कमरे से बाहर नहीं निकलेगा और कंप्यूटर स्क्रीन से चिपका रहेगा। न तो वह स्कूल का होमवर्क करेगा और न ही घर का काम। स्कूल से बंक मारेगा, लंच-डिनर नहीं करेगा और हो सकता है नहाना और सोना भी छोड़ दे। इसके बावजूद वह बोर नहीं होगा और न ही उसके लिये जीवन बेमतलब लगेगा। कम से कम कुछ समय के लिए तो आप यह मान ही सकते हैं।
इसलिए कार्यविहीन दुनिया के बेकाम हो चुके वर्ग को जीवन के मकसद का अहसास कराने में वर्चुअल रियलिटी एक महत्वपूर्ण उपकरण बनने जा रही है। संभव है ये वर्चुअल रियलिटी कम्प्यूटर के भीतर पैदा हो। यह भी हो सकता है कि यह किसी नए धर्म और विचारधारा की शक्ल में कंप्यूटर के बाहर पैदा हो। यह भी संभव है कि इन दोनों के संगम से कोई चीज तैयार हो। संभावनाएँ असीमित हैं और पक्के तौर पर कोई नहीं जानता कि 2050 में हमें ये किस किस्म के डीप प्ले व्यस्त रखेंगे।
किसी भी हाल में, कार्य की समाप्ति का यह कतई मतलब नहीं कि मकसद का भी अंत हो जाएगा। क्योंकि मकसद काम से नहीं बल्कि कल्पनाओं से पैदा होता है। काम मकसद के लिए जरूरी है, यह सिर्फ कुछ विचारधाराओं और जीवन शैलियों का ही दावा है। अठारहवीं सदी के ग्रामीण अंग्रेज जमींदार, आज के अति रुढ़िवादी यहूदी और सभी युगों व संस्कृतियों के बच्चे बिना काम किये जीवन में ढेर सारा मकसद और मजा पाते रहे हैं। 2050 के लोग शायद ज्यादा गहरे ‘डीप गेम्स’ खेलने और इतिहास के किसी भी दौर से ज्यादा जटिल आभासी दुनिया को गढ़ पाने में कामयाब होंगे।
लेकिन सत्य का क्या होगा ? वास्तविकता का क्या होगा ? क्या हम ऐसी दुिनया में रहना चाहेंगे जहाँ अरबों लोग कल्पना लोक में डूबे हैं, खुद के गढ़े उद्देश्यों में विश्वास रखते हैं और काल्पनिक नियम-कानूनों का पालन करते हैं ? आप इसे पसंद करें या न करें, हम हजारों सालों से ऐसी ही दुनिया में रहते आ रहे हैं।
(युवाल नोह हरारी यरूसलम स्थित हिब्रू यूनिविसर्टी में पढ़ाते हैं। उनकी दो किताबें- ‘सेपियंस: अ ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ ह्मूमनकाइंड’ और ‘होमो डयूस: अ ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टुमारो’ काफी चर्चित रही हैं। अनुवाद: आशुतोष उपाध्याय)