प्रकाश चन्द्र पुनेठा
पिथौरागढ़ से पूर्व में लगभग 35 किलोमीटर दूर नेपाल सीमा व काली नदी के निकट क्वीतड़ गाँव के तोक चौड़ा में 01 जनवरी सन् 1944 के दिन एक किसान करम सिंह सौन व उनकी पत्नी ग्वाली देवी के परिवार में एक शिशु का जन्म हुआ जिसका नाम त्रिलोक सिंह सौन रखा गया।
त्रिलोक सिंह सौन ने गाँव के राई सिंह बिष्ट जूनियर हाई सें कक्षा 10 तक की शिक्षा प्राप्त की। शिक्षा के लिये उन्हें रोज पैदल जाना पढ़ता था इसलिये वो आगे की शिक्षा नही ले पाए तथा अपने माता-पिता के साथ कृषि कार्य करने लगे। युवा अवस्था में आते ही त्रिलोक सिंह 11 जनवरी सन् 1962 को सेना में भर्ती हो गए। वह कुमाऊँ रेजिमेन्ट में भर्ती हो गए थे। भर्ती होते ही उनको व अन्य साथ के रंगरुटों को कालाढुंगी के निकट कमोला फार्म में खेती के कार्यो के लिए रानीखेत से पैदल ही भेजा गया।
कसम परेड होते ही त्रिलोक सिंह को 6 कुमाऊँ रेजिमेन्ट में स्थानांतरण कर दिया। जो उस समय नार्थ ईष्ट (उस नार्थ ईष्ट को नेफा कहा जाता था) अरुणाचंल प्रदेश में चीन के साथ लगी सीमा में स्थित था।
त्रिलोक सिंह को रेजिमेन्ट में पहुँचे हुए अल्प समय हुआ था, कि शातिर पड़ोसी देश चीन ने हमारे देश के ऊपर 20 अक्टूबर सन् 1962 को अचानक आक्रमण कर दिया। उस समय हमारा देश किसी भी प्रकार के आक्रमण का सामना करने को तैयार नहीं था। हमारे देश की सेना के पास उन्नत प्रकार के हथियार व पूर्ण मात्रा में गोला बारुद भी उपलब्ध नहीं था। चीन के इरादों की हमारे देश को भनक तक नहीं लगी। कुमाऊँ रेजिमेन्ट सेन्टर रानीखेत से 6 कुमाऊँ रेजिमेन्ट में गए त्रिलोक सिंह व उसके साथियों को कंम्पनियों में विभाजित भी नहीं किया था, कि उनको युद्ध में कूदना पड़ा।
सैनिक त्रिलोक सिंह अपनी पल्टन के साथ चीन से युद्ध के लिए वायुयान के द्वारा तेजू से ओलांग (चीन की सीमा के निकट) भेजे गए। नौजवान सैनिक त्रिलोक सिंह बिना घबराहट, साहस व शौर्य के साथ सीमा में चीन के विरुद्ध, युद्ध में सम्मिलित हुए। उस समय उनको ‘लामाबस्ती’ नामक क्षेत्र में गोला-बारूद भंडार की सुरक्षा के लिए तैनात किया गया। 14 नवंबर को चीनी सेना लामाबस्ती में पहुँच गयी। चीन की सेना के अचानक आक्रमण करने के कारण हमारी सेना ने अपने गोला-बारूद, डीजल-पैट्रोल व अन्य उपयोगी वस्तुओं के भंडार को स्वयं अग्नि के हवाले कर दिया। अगर शत्रु के हाथ गोला-बारूद का भंडार लग जाता तो वह हमारे देश के विरुद्ध उपयोग करता। जिससे हमारे देश में जान-माल का बहुत बड़ा नुकसान हो जाता।
उस समय भारतीय सेना के जवानों के पास मात्र राईफल के अतिरिक्त पाँच-पाँच की संख्या में राउंड थे, जो चीन की सेना का सामना करने के लिए पर्याप्त नहीं थे। चीन की सेना आधुनिक हथियारों से सुसज्जित थी और संख्या बल में, हमारी सैन्य टुकड़ियों की तुलना में बहुत अधिक थी। चीन की सेना ने वहाँ स्थित हमारी सेना की टुकड़ियों को घेर लिया था। चीन की सेना का 6 कुमाऊँ रेजिमेन्ट के जवानों ने कम संख्या बल में होते हुए भी डटकर सामना किया। चीनी सेना ने पल्टन के अनेकों जवानों व दो अधिकारियों को अपनी गिरफ्त में ले लिया था। 6 कुमाऊँ रेजिमेन्ट के शेष सैनिक चीनी सेना की गिरफ्त से बचते हुए, पर्वतीय क्षेत्र व बीहड़ जंगल में, रात के समय, तितर-बितर हो गए थे।
जंगल में जवान कई दिन तक कंदमूलों को खाकर जीवित रहे। चीनी सेना की गिरफ्त से बचे अनेक जवान गहरी लोहित नदी में समा गए। उन जवानों को लापता घोषित किया गया। बहुत समय पश्चात उन लापता सैनिकों को शहीद घोषित किया।
20 अक्टूबर सन् 1962 को जब चीन ने हमारे ऊपर आक्रमण किया तो यह चीन का सुनियोजित आक्रमण था। चीन ने अपनी सेना के गुप्तचरों को अरुणाचंल प्रदेश के अनेक स्थानों में, सूअर व मुर्गी पालक के तौर पर, कहीं सफाई कर्मचारी के वेश में तो कहीं साधारण ग्रामीण परिवेश वाला आदमी बनाकर हमारे देश की सेना की गतिविधियों की जानकारी एकत्रित की थी। जब चीनी सेना को उपयुक्त अवसर मिला, उसने अचानक हमारे बहुत बड़े भूभाग पर अधिकार जमा लिया था। लगभग एक माह तक यह युद्ध चलता रहा फिर 14 नवंबर सन् 1962 के के दिन चीन ने एक तरफा युद्ध विराम की घोषणा कर दी।
सिपाही त्रिलोक सिंह सौन सन् 1962 के चीन से हुए युद्ध में सैभाग्य से जीवित सैनिकों में से एक थे। युद्ध विराम होने के पश्चात् 6 कुमाऊँ रेजिमेन्ट के शेष जीवित जवानों को जो जंगलों में भटक रहे थे। उनके खाने के लिए हवाई जहाज से भोजन के पैकेट गिराए गए फिर उन सब जवानों को एक स्थान में एकत्रित कर ओलांग कैम्प में भेजा गया। ओलांग से तेजू तक पैदल भेजा गया। रेजिमेन्ट की सभी कम्पनियों को आसाम के छबुआ में एकत्रित कर पुनः रेजिमेन्ट को स्थापित किया गया। तब 6 कुमाऊँ रेजिमेन्ट छबुआ से लेखापानी में आयी, लेखापानी में त्रिलोक सिंह व साथ के अन्य जवानों को कम्पनियों में बाँटा गया गया। त्रिलोक सिंह सौन एक आज्ञाकारी और अनुशासित सैनिक होने के साथ ही ईमानदारी के साथ अपने कार्यों को करते थे। अल्प समय में त्रिलोक सिंह अपनी कम्पनी में एक आदर्श सैनिक के रुप में स्थापित हो गए।
त्रिलोक सिंह ने 26 जनवरी सन् 1965 की गणतंत्र दिवस की परेड में 6 कुमाऊँ रेजिमेन्ट का शानदार प्रतिनिधित्व किया। फरवरी सन् 1965 में त्रिलोक सिंह ने जीवन में कुछ श्रेष्ठ कर दिखाने के उद्देश्य से, स्वेच्छा से 6 कुमाऊँ रेजिमेन्ट से पैराट्रूपर बनने के लिए, पैराशूट रेजिमेन्ट सेन्टर आगरा चले गए। पैराशूट रेजिमेन्ट के लिए साहसी, सक्षम और बलिष्ठ शारीरिक गठन का सैनिक होना अति आवश्यक है। दृढ़ निश्चय वाले, दृढ़ संकल्प के धनी त्रिलोक सिंह ने पैरा रेजिमेन्ट का पैराट्रूपर बनना अपना सौभाग्य समझा। त्रिलोक सिंह शीघ्र ही पैरा रेजिमेन्ट के कुशल पैराट्रूपर बन गए।
हमारे देश के राज्य गुजरात के ‘कच्छ का रन’, भारत और पाकिस्तान के मध्य बटवारे के समय से ही विवाद में था। पाकिस्तान हमारे गुजरात राज्य के कच्छ का रन में लगभग 3500 वर्ग किलोमीटर तक अपना दावा करता था। मार्च-अप्रैल सन् 1965 में पड़ोसी शत्रु देश पाकिस्तान अपनी कुटिल चाल से सीमा पार कर अन्दर घुस आया था। धोखे से उसने हमारे देश की सेना की एक पैट्रोलिंग पार्टी को कैद कर लिया था। पूर्व में दोनों देशों के सुरक्षा बलों के मध्य झड़प हुई थी। जब सुरक्षा बलों की झड़प लंबी खिंच गयी, तत्पश्चात् दोनों देशों की सेनायें भी इस युद्ध में सम्मिलित हो गयी थी। त्रिलोक सिंह बटालियन के साथ उस समय युद्धाभ्यास के लिए गए हुए थे। आदेश मिलते ही उनकी बटालियन युद्धभ्यास क्षेत्र से आगरा आ गयी थी। आगरा में युद्ध की तैयारी कर शीघ्र अहमदाबाद, अहमदाबाद से युद्ध क्षेत्र में आ गए थे। त्रिलोक सिंह ने युद्ध क्षेत्र में अपनी बटालियन के साथ कंधे से कंधा मिलाकर शत्रु का मुकाबला किया। दुनिया के अन्य देशों ने इस युद्ध का कोई समाधान न देख, अंतरराष्ट्रीय मंच से दोनों युद्धरत देशों को युद्धविराम हेतु अपील की। पाकिस्तान की सेना पीछे हट गई, और हमारी सेना की कैद की गई पैट्रोलिंग पार्टी को, जुलाई सन् 1965 को पाकिस्तान ने अपनी कैद से मुक्त कर दिया। यूरोपीय देश ब्रिटेन की मध्यस्थता से युद्ध कुछ समय के लिए धीमा रहा। तीसरे देश की मध्यस्थता से कच्छ का रन की 900 वर्ग किलोमीटर भूमि पाकिस्तान को दे दी।
कच्छ के रन की 900 किलोमीटर भूमि मिलने की उपलब्धी में, पाकिस्तान अति उत्साहित हो गया था। इस प्रकार अति उत्साहित होने के कारण पाकिस्तान ने सितंबर, सन् 1965 को, हमारे देश के जम्मू-कश्मीर के अखनूर तथा छम-जौड़िया में अचानक आक्रमण कर दिया। इसके पश्चात् हमारे देश की पाकिस्तान के साथ लगती हुई पूरी पश्चिमी सीमा में गुजरात, राजस्थान व पंजाब सभी क्षेत्रों में युद्ध आरंभ हो गया। त्रिलोक सिंह सौन वाली पैरा बटालियन विभिन्न क्षेत्रों में फैली हुई थी। अतः शीघ्र ही अमृतसर के अटारी में बटालियन एकत्र हुई। पाकिस्तानी आक्रमण का मुँहतोड़ उŸार देते हुए पैरा बटालियन आगे बढ़ते रही और भारतीय सेना ने पाकिस्तान के लाहौर के निकट ईच्छोगिल नहर के समीप डोगराई तक क्षेत्र को अपने अधिकार में ले लिया था। त्रिलोक सिंह ने इस युद्ध में अपनी सक्रिय भूमिका निभाई थी। हमारे देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री स्वयं युद्ध के मोर्चों में जाकर जवानों से मिले थे और जवानों का उत्साह बढ़ाया था। लगभग पाँच माह के पश्चात् भारत तथा पाकिस्तान के मध्य यह भीषण रक्तपात वाला युद्ध समाप्त हुआ। हमारे देश की सेना ने पाकिस्तान की सेना को परास्त कर उसके इरादों को नेस्तानाबूद कर दिया था।
पाकिस्तान अपने निर्माण के दिन से ही, हमारे देश के विरुद्ध आक्रमणकारी, आतंकवादी कृत्य करते रहा है। अक्टूबर, सन् 1947 में हमारे देश के शीर्ष राज्य कश्मीर में कबाइली आक्रमण, सन् 1965 में कच्छ का रन में अचानक आक्रमण करना फिर कश्मीर में कब्जा करने के उद्देश्य से अखनूर में अचानक आक्रमण कर युद्ध आरंभ करना और फिर सन् 1971 में युद्ध आरंभ करना। इन सब युद्धों में पाकिस्तान ने हार का सामना किया है।
सन् 1971 में जब पाकिस्तान के साथ युद्ध आरंभ हुआ, उस समय त्रिलोक सिंह लांस हवलदार थे, वह एक सैक्सन कमांडर के तौर पर अपना कर्तव्य निभा रहे थे। उस समय उनकी बटालियन अंबाला में स्थित थी। पाकिस्तान के साथ युद्ध आरंभ होते ही बटालियन गंगानगर के निकट सीमा में आ गयी थी। सीमा की रक्षा करते हुए पैरा बटालियन के जवानों ने अदम्य साहस का परिचय दिया। त्रिलोक सिंह ने वीरता के साथ इस युद्ध में भी अपने दायित्व का निर्वाह किया। इस युद्ध में हमारे देश की सेना का पाकिस्तान के साथ मुख्य मुकाबला पूर्वी मोर्चे में था। जहाँ पाकिस्तान की 90,000 सेना द्वारा हमारे देश की सेना के समक्ष आत्मसमर्पण किया और एक नए देश बांग्लादेश का जन्म हुआ। लगभग 13 दिन में ही पाकिस्तान की सेना ने भारतीय सेना के समक्ष घुटने टेक दिए थे।
युद्ध समाप्त होने के पश्चात् त्रिलोक सिंह की पैरा बटालियन पुनः गंगानगर में स्थापित होने के पश्चात् शीघ्र ही हिमाचल प्रदेश के सोलन में आ गयी। त्रिलोक सिंह अपनी बटालियन में सैनिक कर्म करते हुए उन्नति की ओर अग्रसर हो गए। उस समय उनके कमान अधिकारी चाहते थे कि कुशल, योग्य व आज्ञाकारी सूबेदार त्रिलोक सिंह भारतीय सेना में कमीशन प्राप्त अधिकारी बनें क्यांकि त्रिलोक सिंह के अन्दर एक योग्य अधिकारी बनने की योग्यता थी। अतः कमान अधिकारी ने त्रिलोक सिंह को आर.सी.ओ. कमीशन के लिए भेज दिया और त्रिलोक सिंह प्रथम अवसर में ही सर्विस सलेक्शन बोर्ड भोपाल में उर्तीण हो गए थे और भारतीय सेना के कमीशन प्राप्त अधिकारी लेफ्टीनेन्ट बन गए थे।
लगभग सात वर्ष तक त्रिलोक सिंह सौन अधिकारी के पद पर सेना में कार्यरत रहे और घर पेंशन आने के पश्चात् पैराशूट रेजिमेन्ट के कर्नल ऑफ रेजिमेन्ट ने कैप्टन त्रिलोक िंसंह सौन की कर्मठता, योग्यता और युद्ध कौशल का अवलोकन करते हुए उनको मेजर का पद प्रदान किया। एक गाँव-देहात का युवा त्रिलोक सिंह सौन, भारतीय सेना में रहते हुए देश के शत्रु देशों के विरुद्ध तीन युद्धों में योद्धा रहे और एक सिपाही के पद से अपने कर्मठ परिश्रम, ईमानदारी और आज्ञाकारिता के बल से सैन्य अधिकारी मेजर के पद तक पहुँचे और पहाड़ के युवाओं के समक्ष एक प्रेरणात्मक आदर्श स्थापित किया।
सेना से रिटायर्ड होने के पश्चात् मेजर त्रिलोक सिंह सौन जन सेवा में लगे रहे। पूर्व सैनिकों के हितों के लिए वह पिथौरागढ़ में ब्रिगेडियर चक्रवर्ति की कमान में सन् 2005 से सन् 2012 तक ई.सी.एच.एस. में ऑफिसर-इन-चार्ज रहे। मेजर त्रिलोक सिंह सौन ने अनेक सैनिकां की विधवाओं की, जो पैंशन सबंधी समस्याओं से जूझ रही थी, उनकी न्याय संगत पेंशन लगवाई। अगर कोई पूर्व सैनिक उनके पास कुछ समस्या लेकर पहुँचता तो वह तुरंत उस पूर्व सैनिक की समस्या का समाधान करने के प्रयास में लग जाते, और समस्या का समाधान ऐन-केन-प्रकारेण पूर्ण करते। मेजर त्रिलोक सिंह सौन का ई.सी.एच.एस में कार्यकाल अति उत्तम रहा था।