कालिका प्रसाद काला
15,16, और 17 जून 2013 को केदारनाथ-बद्रीनाथ घाटी में और पूरे उत्तराखंड में भीषण आपदा आई थी जिसमे 20 या 25 हजार लोग मारे गये थे। इनमें अधिकांश तीर्थ यात्री थे लेकिन 600, 700 लोग स्थानीय मूल निवासी भी थे जो यात्रा सीजन में अपना छोटा मोटा कारोबार या मेहनत – मजदूरी करने 6 महीने इन यात्रा लाइन मे और तीर्थों मे रहते थे और सालभर के खर्च के लिए थोड़ा बहुत अपने लिए पैसा कमा लेते थे।
लेकिन जब वे 6 सौ या 7 सौ मूलनिवासी आपदा में मारे गये तो उत्तराखंड की बाकी 1 करोड़ जनता ने उन मृतकों के परिजनों की कोई भी सुध नहीं ली। उत्तराखंड के 1 करोड लोगों में से 2 या 4 हजार परिवार तो इतने पैसे वाले सामर्थ्यवान और सक्षम जरूर ही होंगे कि प्रत्येक परिवार किसी एक मृतक पर आश्रित केवल एक बच्चे की शिक्षा का खर्च उठा सके। सालभर में केवल एक ही बच्चे को केवल 4, 5, या 6 हजार रूपये की (one time yearly help ) शैक्षिक सहायता उसे उसके घर पर ही भेज देते तो हर मृतक का बच्चा अच्छी तरह शिक्षित हो जाता। 5 या 6 हजार रूपए वार्षिक, साल में केवल एक बार। इससे कोई बहुत बड़ा आर्थिक बोझ भी नहीं होता।
इस तरह की जनसेवा या बाल सेवा का भाव हमारे अन्दर होना चाहिए । ये हमारी संस्कृति का हिस्सा होना चाहिए पर आज ये है नहीं।
मैं आग्रह पूर्वक कहना चाहता हूं कि आपदाओं की ऐसी भयंकर स्थिति में हर सामर्थ्यवान और सक्षम व्यक्ति को चाहिए कि वह (किसी कारण से भी मृत्यु को प्राप्त ) मृत व्यक्ति पर आश्रित एक बच्चे की शैक्षिक मदद का जिम्मा तो उठाये। इसे हमें अपनी जीवन्त संस्कृति का हिस्सा बनाना चाहिए।
हर शहर के उत्तराखंडी लोक-संस्कृति के मंचों को पहाड़ की ठोस सार्थक सेवा करने का प्रयास भी करना चाहिए। ऐसी भीषण आपदाओं की स्थिति में पीड़ितों को अपनी मदद पहुंचाने का ठोस काम भी करना चाहिए। खाली ढोल-दमाऊं, ढौंर-थकली, बंसुली-हुड़की बजाने से और गीत-गाने और नृत्य करने से, संस्कृति ज्यादा समृद्ध नहीं होगी। लोक संस्कृति का एक सहज मानवीय पक्ष भी परिलक्षित होना ही चाहिए।
6, 7 सौ मूल निवासी लोग मारे गये इस आपदा में। लेकिन किसी उत्तराखंडी संस्था ने मतृकआश्रित अनाथ बच्चों की ठोस शैक्षिक मदद करने की पहल नहीं की। जिन जिन संस्थाओं ने या लोगों ने आगे बढ़कर इन बच्चों की शिक्षा का जिम्मा उठाया वे उत्तराखंड के मूल निवासी नहीं थे।
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साध्वी ऋतंभरा (मथुरा अलीगढ) के वात्सल्य धाम ने गुप्तकाशी और ऊखीमठ दो जगहों पर आवासीय स्कूल, शैल्टरहोम बनाये। स्वामी रामदेव (हरियाणा मूल के) की पतंजली, ने गुप्तकाशी के ह्यूण गांव मे आवासीय स्कूल बनाया और श्रीनगर-ऋषीकेश मोटर मार्ग पर मुल्या गांव में भी भवन बनाकर बच्चों को शिक्षा के लिए वहां ले गये। स्वामी विवेकानंद संस्था (कोलकता) ने गुप्तकाशी के कालीमठ देवी मां मंदिर के पास कोठगी गांव में आवासीय स्कूल बनकर इन आपदा प्रभावित बच्चों की मदद की।
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पर उत्तराखंडी कोई संस्था इन बच्चों की मदद के लिए बिल्कुल भी आगे नहीं आई। और ना ही सक्षम सामर्थ्यवान लोग आगे आये। यहां तक कि उत्तराखंड की राज्य सरकार भी आपदा में अनाथ हुए बच्चों की मदद के लिए आगे नहीं आई। तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने भी इन अनाथ हुए बच्चों की मदद करने की कोई कोशिश बिलकुल नहीं की और उनके बाद आये मुख्यमंत्री श्रीमानजी हरीश रावत की समझ में भी ये बात बिल्कुल नहीं आई। संविधान के मूलभूत तत्वों के अनुसार हमारी राजव्यवस्था Welfare state वाली है। अब कोई मुझे समझाये कि आपदा में अपने माता या पिता या दोनों को खो चुके इन छोटे—छोटे नाबालिग अनाथ बच्चों से ज्यादा urgent welfare योजना की जरूरत किस वर्ग को थी भला? पर हमारे नेताओं की आंखें अंधी हो गयीं थीं। वैसे भी पिछले 24 साल का अनुभव हमें यही बताता है कि हमारे इस छोटे से राज्य के नेताओं को जन सामान्य के Welfare, convenience, comforts या खुशहाली अथवा समृद्धि से ज्यादा कोई लेना-देना नहीं रहता है। ये नेता लोग अपनी सुख सुविधाओं में ही मस्त हैं। आत्मप्रशंसा या अपनी विरूदावली खुद ही पढ़ते रहते हैं अथवा उनके चमचे उनकी विरूदावली गाहे-बगाहे पढ़ते रहते हैं। अभी तक की governance में ऐसा सुखद कालखंड कभी दिखा नहीं कि सारी जनता खुश रही हो या खुश हो गयी हो।
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2013 की आपदा से ये सबक हमें सीखना ही चाहिए कि आपदाओं के समय हमें हमारे आपदा प्रभावित लोगों की और बच्चों की मदद करने की संस्कृति भी विकसित करनी ही होगी। खाली ढोल-दमाऊं, ढौंर-थकली, बंसुली-हुकडी बजाने से या लोक गीत- नृत्य करने से काम नहीं चलेगा। उत्तराखंड की हमारी इस पीढ़ी को जनसेवा और बाल सेवा के नये ठोस आयाम भी अपनी लोक-संस्कृति में जोड़ने चाहिए। समाज की भी अपनी एक अन्द्रूनी शक्ति या सामर्थ्य होता है। समाज को भी कुछ समस्याओं के समाधान खुद ही निकालने ही चाहिए। हर बात के लिए सरकार के भरोसे बैठे जाना बिलकुल गलत प्रवृत्ति है। जरा सोचिए 1815, 1816 से पहले तथा 1816 से लेकर 1947 तक तो सरकार नाम की कोई चीज उपस्थित नहीं थी। तो फिर गांवों की, समाज की सारी व्यवस्थाएं जनता अपने सामर्थ्य से ही कैसे बना लेती थी? वे हमारे पुरूखे कितने बड़े कर्मवीर थे? और आज हम उनकी वर्तमान पीढ़ियां कितनी नाकारा हो गयी हैं।
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बहरहाल समाज की भी अपनी गम्भीर भूमिका होती है। इसलिए कहीं भी, जिस भी शहर में, उत्तराखंडियों ने जहां कहीं भी अपनी लोक-संस्कृति संस्था बनायी है हर ऐसी संस्था अपने पास एक जनसेवा या बालसेवा कोष भी बनाकर रखे, और आपदा काल में मदद के लिए हर समय तैयार रहे। ताकि ऐसी आपदा के समय वे अपने उस जनसेवा कोष से, अपने ही क्षेत्र के, आपदा पीड़ितों को तत्काल मदद पहुंचा सकें। खुद आपदा प्रभावित इलाकों मे खुद जायें और अपनी मदद अपने ही हाथों से दें। आपदा प्रभावित छोटे बच्चों के नाम, पता, उनके स्कूल का नाम व पता भी पूछ कर लायें और अपने बालसेवा कोष से अपनी शैक्षिक मदद सीधे उन बच्चों के बैंक खाते में ट्रान्सफर करें। अथवा उनके नाम अपनी संस्था का क्रोस्ड चैक लिखकर उनके प्रधानाचार्यों के नाम रजिस्ट्रर्ड डाक से भेज दें। किसी भी बिचौलिए की जरूरत ही नहीं पडेगी। मोदी जी ने DBT की व्यवस्था बना ही रखी है।
One Comment
krishnanand Sinha
अत्यंत उपयोगी एवम सोद्देश्य लेख ।