आर.बी.एस. रावत
11 दिसम्बर को अन्तर्राष्ट्रीय पर्वत दिवस मानाया गया। उत्तराखंड का लगभग 86 प्रतिशत क्षेत्र पहाड़ी है। इसमें हिमालय के मध्य और पश्चिमी हिस्से आते हैं। हिमालय पर्वतमाला के कारण यहाँ प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता है। लेकिन साथ ही यह क्षेत्र भौगोलिक, पर्यावरणीय, और सामाजिक समस्याओं से भी ग्रस्त है। यह हिमालयी क्षेत्र हमारी सांस्कृतिक, प्राकृतिक और राष्ट्रीय धरोहर है। इसके संरक्षण और विकास में बुद्धिजीवियों, नीति निर्माताओं और जनता को मिलकर काम करना होगा।
उत्तराखंड की वन-संपदा, जैव-विविधता और मानव-वन्यजीव संघर्ष पर चर्चा बहुत जरूरी है, क्योंकि यह विकास और पर्यावरण संरक्षण से जुड़ा है। राज्य में प्राकृतिक संसाधनों की बहुतायत होने के बावजूद, बढ़ती जनसंख्या और विकास के दबाव से वन क्षेत्र सिकुड़ रहे हैं, जिससे मानव-वन्यजीव संघर्ष बढ़ रहा है। प्रदेश का लगभग 69 प्रतिशत भूभाग वन क्षेत्र में आता है, जो इसे जैव विविधता का धनी राज्य बनाता है। यहां पाई जाने वाली वनस्पतियों में चीड़, देवदार, बांज, और बुरांस जैसे महत्वपूर्ण वृक्ष शामिल हैं। कार्बेट नेशनल पार्क, नंदा देवी बायोस्फियर रिजर्व और गोविंद वाइल्डलाइफ सेंचुरी जैसे संरक्षित क्षेत्र बाघ, हिम तेंदुआ, हाथी, और अन्य वन्यजीवों का आवास स्थल हैं। मगर यह महत्वपूर्ण क्षेत्र अनेक समस्याओं से भी ग्रस्त है।
पं. गोविंद बल्लभ पंत के प्रयास से 1930 के दशक में ब्रिटिश राज के दौरान स्थानीय समुदायों को वन प्रबंधन में शामिल करने के लिये वन पंचायतों की स्थापना हुई। ये पंचायतें वनों के संरक्षण में अहम भूमिका निभाती हैं। प्रदेश की लगभग 12,000 वन पंचायतें वनों के संरक्षण के साथ-साथ मानव-वन्यजीव संघर्ष को भी कम करती हैं।
उत्तराखंड का पर्वतीय भूभाग क्षेत्र भारत-तिब्बत सीमा पर स्थित होने के कारण राष्ट्रीय सुरक्षा के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। भूस्खलन की दृष्टि से भी यह संवेदनशील है। मानसून और बादल फटने की घटनाएं यहां भूक्षरण को बढ़ाती हैं। आँकड़े बतलाते हैं कि 2020-2023 के बीच भूस्खलन से 500 से अधिक जानें र्गइं।
ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने से न केवल जल संकट उत्पन्न हो रहा है बल्कि बाढ़ और सूखे जैसी समस्याएं भी बढ़ रही हैं। 20वीं शताब्दी की तुलना में राज्य के 40 प्रतिशत ग्लेशियर सिकुड़ चुके हैं। इससे कृषि, पेयजल, और विद्युत उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। चारधाम यात्रा और पर्यटन स्थलों पर अत्यधिक दबाव के कारण पर्यावरणीय क्षरण हो रहा है। वर्ष 2023 में 50 लाख से अधिक तीर्थयात्री उत्तराखंड आए। पलायन उत्तराखंड की प्रमुख समस्या है। रोजगार के सीमित अवसरों, स्वास्थ्य सेवाओं की कमी तथा शिक्षा की व्यवस्था में कमी व बेहतर जीवन शैली हेतु लोग अन्य शहरों की ओर पलायन करने पर विवश हो रहे हैं। गाँव के गाँव खाली हो चुके हैं। 2023 तक की रिपोर्टो के अनुसार लगभग 1,792 गांव पूरी तरह से खाली हो गए हैं, जिन्हें ‘घोस्ट विलेज’ कहा जाता है। इसके अतिरिक्त भी लगभग 3 लाख घरों में ताले लगे हुए हैं।
स्वास्थ्य व शिक्षा सुविधाओं की कमी पलायन का प्रमुख कारण है। इस क्षेत्र में बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए सरकार को मोबाइल क्लीनिक और डिजिटल शिक्षा जैसे कुछ ठोस कदम उठाने होंगे। शिक्षकों और स्वास्थ्यकर्मियों को पर्वतीय क्षेत्रों के बारे में प्रशिक्षित कर यहाँ नियुक्त किया जाना चाहिए।
मानव-वन्यजीव संघर्ष एक गंभीर चुनौती है। पिछले दशक में वन्यजीवों द्वारा मानवों पर हमले में वृद्धि हुई है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार हर साल लगभग 50 से 60 लोग वन्यजीवों के हमलों में मारे जाते हैं और सैकड़ों लोग घायल होते हैं। हाथी, बाघ, और तेंदुए जैसे वन्यजीवों के हमले अक्सर जंगल के निकट बसे गांवों को प्रभावित करते हैं। इसके अतिरिक्त, वन्यजीवों द्वारा फसल और संपत्ति का नुकसान भी व्यापक है, जो स्थानीय किसानों की आजीविका पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। जंगली सुअर और बंदरों के आतंक केकारण किसान कृषि से विमुख हो रहे हैं। वन्यजीवों के आक्रमण से बचाव के लिए सीमा चिन्हित करने और संरक्षण प्रयासों की आवश्यकता है। वन विभाग को स्थानीय लोगों के साथ मिलकर इस समस्या का समाधान खोजना होगा।
उत्तराखंड जैव विविधता का धनी है। यहाँ की दुर्लभ वनस्पतियाँ तथा वन्य जीव संसाधन संरक्षण की माँग करते हैं। इनके संरक्षण के लिए स्थानीय समुदायों की भागीदारी संयुक्त वन प्रबंधन समितियों के सहभागिता से हो। प्रदेश आज जैव विविधता के संकट का सामना कर रहा है। 10 प्रतिशत स्थानीय पौधों और जानवरों की प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर हैं।
हिमालय मानसून के नियंत्रण में प्रमुख भूमिका निभाता हैं। अतः हमें इन पर्वतों के संरक्षण व वन क्षेत्रों के संरक्षण पर ध्यान देना चाहिए ताकि पर्यावरण में संतुलन भी बना रहे। बिना उचित योजना के सड़क, जलविद्युत परियोजनाएं, और अन्य संरचनात्मक विकास पर्यावरण को गंभीर नुकसान पहुंचा रहे हैं। जोशीमठ में 2023 में हुए भू धँसाव के कारण सैकड़ों घर प्रभावित हुए।
दीर्घकालीन उपाय
पर्वतीय विकास के लिए स्थाई और दूरदर्शी नीतियाँ अपनाना अनिवार्य है। हिमालय के पर्वत मानसून के नियंत्रण में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। इनके महत्व को ध्यान में रखते हुए हमें इन पर्वतों के संरक्षण व वन क्षेत्रों के संरक्षण पर ध्यान देना चाहिए ताकि पर्यावरण में संतुलन भी बना रहे। उत्तराखंड गंगा, यमुना जैसी जीवनदायिनी नदियों का उद्गम स्थल है। इन नदियों का जल संसाधन हमारे देश के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। ग्लेशियरों का संरक्षण इन नदियों की निरंतरता और जल संरक्षण आवश्यक है। यह क्षेत्र हमारी सांस्कृतिक, प्राकृतिक और राष्ट्रीय धरोहर है। इसके संरक्षण और विकास में बुद्धिजीवियों, नीति निर्माताओं और जनता को मिलकर काम करना होगा।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, हर साल लगभग 50 से 60 लोग वन्यजीवों के हमलों में मारे जाते हैं और सैकड़ों लोग घायल होते हैं। वन्यजीव हमलों के पीड़ितों को समय पर मुआवजा मिले और उनकी सुरक्षा के लिए दीर्घकालिक समाधान ढूंढ़े जाएं। इससे लोगों में वन्यजीव संरक्षण के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण उत्पन्न होगा।
वन पंचायतों और स्थानीय समुदायों की भागीदारी को और बढ़ावा दिया जाए ताकि वे वन्यजीवों से अपने क्षेत्रों की सुरक्षा में सक्षम हों। बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए सरकार को ठोस कदम उठाने होंगे। सतत पर्यटन को बढ़ावा देना आवश्यक है। तीर्थयात्राओं के लिए ‘कैरीइंग कैपेसिटी’ का निर्धारण होना चाहिये और स्थानीय समुदाय को पर्यटन प्रबंधन में शामिल किया जाना चाहिये। भूस्खलन, बाढ़, भूकंप जैसी आपदाओं के प्रति जागरूकता और बचाव के लिए सशक्त सामुदायिक आपदा प्रबंधन प्रणाली की आवश्यकता है। आपदा के समय राहत कार्यों को गति देने के लिए पूर्व चेतावनी और आपदा प्रबंधन तंत्र को सशक्त बनाना आवश्यक है।
वन क्षेत्र के संरक्षण और बढ़ोतरी के लिए क्षेत्रीय वनीकरण अभियान चलाया जाना चाहिये, जिसके लियेें स्थानीय समुदायों को वन प्रबंधन में भागीदार बनाना होगा। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये ग्लेशियर संरक्षण परियोजनाओं का कार्यान्वयन होना चाहिये। जल संचयन और जल पुनर्भरण तकनीकों का उपयोग हानो चाहिये। भूकंप और भूस्खलन-रोधी संरचनाओं का निर्माण और भूधंसावरोधी तकनीक का विकास हो।
भारत सरकार की सौर ऊर्जा और गतिशील गांव जैसी योजनाएँ इस क्षेत्र के लिए वरदान सिद्ध हो सकती हैं। सौर ऊर्जा से ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली की पूर्ति हो सकेगी, अतिरिक्त आय का श्रोत बनेगा तथा वहीं ‘वाइब्रेंट विलेज’ योजना के माध्यम से सामुदायिक विकास को भी बढ़ावा मिलेगा। इन योजनाओं को सर्वोच्च प्राथमिकता पर शुरू करना चाहिए, जिससे स्थानीय लोग अपने गाँव में रह सकें और रोजगार पा सकें।
दीर्घकालिक उपायों के साथ सतत विकास को प्राथमिकता देते हुए उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र को न केवल संरक्षित किया जा सकता है बल्कि इसे देश का एक आदर्श राज्य भी बनाया जा सकता है।
‘अंतरराष्ट्रीय पर्वत दिवस’ पर हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि हम अपनी प्राकृतिक धरोहर को सहेजने और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक संतुलित और समृद्ध पर्यावरण का निर्माण करेंगे।