प्रेम पंचोली
70 विधानसभा के लिए 632 प्रत्याशियों को यदि बांटकर मतदान मिले तो प्रत्येक प्रत्याशी के हिस्से लगभग 5122 मत आयेंगे. यह तब जब 100 फीसदी मतदान होगा. वैसे आदतन यहाँ 60 फीसदी से थोडा ऊपर का मतदान ही होता है. इसलिए हर चुनाव के बाद जनता नाखुश रहती है.
ज्ञात हो कि यह नाखुश जनता कौन है? इसका पता लगाना बमुश्किल है. आमतौर पर जो लोग मतदान करने जाते है वे 80 फीसदी लोग कहीं न कहीं किसी राजनीतिक पार्टी से जुड़े रहते है. 20 फीसदी लोग वे है जो सिर्फ लोकतंत्र की मजबूती के लिए मतदान करते है. लब्बोलुवाम यही है कि लोगों में मतदान का नहीं अपितु पार्टी का क्रेज बढ़ रहा है, वनस्पत चुनाव अभियान के.
जगजाहिर तो यह है कि सरकार से लेकर राजनीतिक पार्टिया सिर्फ चुनाव के दौरान मतदान हेतु जनजागरूकता अभियान चलाती है. जबकि होना यह चाहिए की मतदान जागरूकता अभियान अगले पांच साल तक लगातार चलाना चाहिए. ऐसा नहीं कि लोगों को मालूम न हो की, मतदान जरुरी है. मगर लोगो को यह आभास नहीं हो पा रहा है कि अमुक के मतदान से सही चुनाव होने जा रहा है. अर्थात आरम्भ में कहा गया कि नाखुश लोग कौन है, यही वे नाखुश लोग हैं जो मतदान नहीं करते है.
जब से अपने देश में “नोटा” आया है, इसके प्रचार-प्रसार के लिए डीसी भी तरह का अभियान नहीं चलाये गए हैं. मतदान ना करने वाले नागरिको को यह विश्वास दिलाना होगा कि वे मतदान करने जाये, वहां उनके पसंद का भी बटन है “नोटा” आदि. यानि मतदान जरुरी है. इसके लिए आकर्षक जागरूकता अभियान चलाना होगा. जिसमें “नोटा” की बात करनी भी जरुरी होनी चाहिए.
उल्लेखनीय यह है कि मौजूदा समय में एक तरफ प्रत्यशियो के चुनाव अभियान और दूसरी तरफ “मतदाता जागरूकता अभियान” साथ साथ चलाये जा रहे हैं, जो चुनाव अभियानों में कहीं खो जाता दिखाई दे रहा है.
तात्पर्य यह है की, जो 40 फीसदी लोग मतदान करने नहीं जाते है, उन्हें कैसे मतदान केंद्र पर लाया जा सके. इस सवाल का जबाव न तो सरकार के पास है और न ही सुशासन के पास है. जानकारों का कहना है कि सुशासन को मतदाता जागरूकता अभियान पांच साल तक चलाना चाहिए. विद्वत्तजन बताते है कि लोकतंत्र की स्पष्ट तस्वीर तब सामने आयेगी जब, 100 फीसदी मतदान होगा. क्योकि 40 फीसदी वे मतदाता है जिन्हें न तो कोई खरीद सकता है और न ही बरगला सकता है, कह सकते हैं कि यह जब मतदान करने आयेंगे तो निर्णायक मतदाता कहलायेंगे.
यहाँ उत्तराखंड की जब हम बात करते हैं तो यहाँ सभी राजनीतिक पार्टियाँ मतदाता जागरूकता अभियान में फिसड्डी रही है. इस राज्य में 65 फीसदी मतदान सर्वाधिक माना जाता है. यह इत्तेफाक रहा होगा की, कभी 70 फीसदी के आस पास मतदान हुआ होगा. कुलमिलाकर अच्छी सरकार या अच्छे जनप्रतिनिधि को चुनने के लिए जनता को मतदान करना जरुरी हो जाता है.
यहाँ बताते चलें कि जो 40 फीसदी मतदाता मतदान करने नहीं आते है वे भी उसी चुनी हुयी सरकार के हिस्से बनते है. पर उनकी नाखुशी अगले पांच बरस तक एक अभियान का हिस्सा बन जाती है. जिसके एवज में चुना हुआ जनप्रतिनिधि अपनी मनमर्जी चला बैठता है. जो कई बार आन्दोलन व प्रतिशोध के रूप में सामने आ जाता है. इस अनिश्चितता के प्रतिशोध के कारण सरकारे कई बार अस्थिर भी हुयी है.
माना की उत्तराखंड के इस चुनाव में 70 सीटो के लिए जब 632 प्रत्याशी मैदान में है, तो इस बार वे 40 फीसदी मतदाता मतदान करने आ जाने चाहिए. यदि ऐसा नहीं होता है तो मान लीजिये कि यही परम्परागत प्रतिनिधि ही आपस में लड़-भिड पड़े और उम्मीदवारों की संख्या बढ़ा दी गयी. क्योकि मतदान का प्रतिशत ना बढे और प्रत्याशियों की सूची बढ़ जाये, तो यह भी स्वस्थ लोकतंत्र की परम्परा नहीं कही जा सकती है. यह सामान्य उदहारण है कि प्रत्याशियों के बढ़ने से मतदान भी उसी गति से बढ़ना चाहिए. जैसे जिस मोहल्ले या गाँव में जब दुकानों की संख्या बढती है तो मान लिजिये कि यहाँ की जनसंख्या बढ़ गयी है. इसी तरह चुनाव में दिखना चाहिए कि प्रत्याशियों का क्रम बढ़ा, तो मतदाताओ का प्रतिशत भी उसी तेजी से बढ़ना चाहिए जो हर चुनाव में नदारद ही रहता है.
– 100 फीसदी मतदान की अपील करे, हर प्रत्याशी.
– उन 40 फीसदी लोगो के दिलों में बनानी होगी जगह.
– 70 विधानसभा के 632 प्रत्याशियों के हिस्से लगभग 5122 मत आयेंगे, जब 100 फीसदी मतदान होगा. आदतन यहाँ 60 फीसदी से थोडा ऊपर का मतदान ही होता है.
– सरकार से लेकर राजनीतिक पार्टिया सिर्फ चुनाव के दौरान मतदान हेतु जनजागरूकता अभियान चलाती है.
– जब से अपने देश में “नोटा” आया है, इसके प्रचार-प्रसार के लिए कुछ भी अभियान नहीं चलाये गए हैं.
– जो 40 फीसदी लोग मतदान करने नहीं जाते है, उन्हें कैसे मतदान केंद्र पर लाया जा सके. इस सवाल का जबाव न तो सरकार के पास है और न ही सुशासन के पास है.
– यहाँ सभी राजनीतिक पार्टियाँ मतदाता जागरूकता अभियान में फिसड्डी रही है.
– मतदान का प्रतिशत ना बढे और प्रत्याशियों की सूची बढ़ जाये, यह स्वस्थ लोकतंत्र की परम्परा नहीं कही जाएगी.
प्रत्याशियों को अपने अपने पोस्टर पर यह भी छापना चाहिए कि यदि मतदाता को अमुक प्रत्याशी पसंद नहीं है तो कम से कम जागरूक नागरिक की हैसियत से मतदान करने आये और “नोटा” का इस्तेमाल करे.
जगजाहीर यही है कि सबसे कम प्रत्याशी पहाड़ी जनपदों में है. यहाँ मतदाता भी इतने ही कम है. उत्तराखंड की कई विधानसभाए ऐसी है जहाँ मतदाताओं की संख्या 50 से 70 हजार के बीच है. इस हिसाब से यहाँ भी 5 से 8 प्रत्याशी चुनाव मैदान में है. इसी तरह एक लाख से ऊपर की मतदाताओ वाली विधानसभा चुनाव में प्रत्याशियों की संख्या 50 से 100 हो गयी है. इसके अलावा शहरी विधानसभाओ में कुछ ऐसे प्रत्याशी है जो सिर्फ इस चुनाव में अपनी उपस्थिति दिखा रहे हैं. ताकि अगले चुनाव तक वे किसी नामी राजनीतिक पार्टी में शामिल हो सके. कुछ ऐसे प्रत्याशी भी नजर आ रहे हैं, की वोट का ठीक-ठाक स्तर रहने पर वे अगले पांच वर्ष तक स्थानीय प्रशासन पर दबाव का माहौल बना सके. वे फिर पांच साल के बाद किसी चुनाव में नजर नहीं आते है. इस दौरान के चुनाव में लगभग 100 ऐसे प्रत्याशी हैं, जो स्वयं के प्रचार प्रसार के लिए चुनाव मैदान में है.
इसलिए जानकर लोगो का यही कहना है कि चुनाव मैदान में सभी प्रत्याशियों को अपने अपने पोस्टर पर यह भी छापना चाहिए कि यदि मतदाता को अमुक प्रत्याशी पसंद नहीं है तो कम से कम जागरूक नागरिक की हैसियत से मतदान करने आये और “नोटा” का इस्तेमाल करे. कहने का तात्पर्य यह है की, मतदान 100 फीसदी करने के लिए हर आकर्षण को पैदा करना पड़ेगा. ताकि हर मतदाता को लगे की उनका मत ख़राब नहीं हुआ है.
कुलमिलाकर जिस तरह से इस दौरान चुनाव में जो शोर शराबा दिखाई दे रहा है, उस पर भी प्रतिबंद लगाने के लिए 100 फीसदी मतदान का होना भी आवश्यक लग रहा है. समय की नजाकत बता रही है कि वे 40 फीसदी लोग जो मतदान करने नहीं जाते हैं, उन्हें कोई भी प्रत्याशी झूठ से नहीं लुभा सकता है, वे कभी भी किसी पार्टी का बैनर अपने पर चस्पा नहीं कर सकते हैं. जो मतदान करने जाते हैं वह ऐसा नहीं कि वे झूठ के पुलेंदे में फंसे है, बल्कि वे किसी न किसी रूप में किसी भी राजनीतिक पार्टी से जुड़े हो सकते है. इसलिए चुनाव अभियान या मतदाता जागरूकता अभियान को चाहिए कि वे उन लोगो के दिलों में जगह बनाये जो मतदान करने नहीं जाते है. तभी प्रत्याशियों के क्रमांक बढ़ने का कुछ फायदा सामने आ सकता है.