66 वर्षीय ज़हूर आलम एक विशिष्ट संस्कृतिकर्मी और ‘युगमंच’ के अध्यक्ष हैं। युगमंच नैनीताल में थिएटर की नर्सरी रही है, जहाँ से दर्जनों लोग राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, फ़िल्म इंस्टीट्यूट, टीवी सीरियलों और फिल्मों तक पहुँचे हैं। एक रंगकर्मी के रूप में ज़हूर की ख्याति देश के कोने-कोने में पहुँची है और अनेक सम्मानों और अलंकरणों से उन्हें विभूषित किया गया है। अनेक सांस्कृतिक संस्थाओं के और निर्णायक मंडलों के वे मानद सदस्य हैं। उत्तराखंड में वे साहित्य, संस्कृति एवं कला परिषद के उपाध्यक्ष (दर्जा राज्य मंत्री) रह चुके हैं।
इस वर्ष उन्हें सम्मानित करते हुए नैनीताल के होल्यार तथा नैनीताल समाचार परिवार स्वयं को गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं।
इस लेख में ज़हूर आलम ने विस्तार से बताया है कि किस तरह युगमंच ने नैनीताल में ध्वस्त और भ्रष्ट हो रही होली की समृद्ध परंपरा को पुनः सँवारने का सफल प्रयोग किया। – संपादक
ज़हूर आलम
लोक संस्कृति को बचाने के लिए बड़े-बड़े भाषण दिये जाते हैं। पर हमारी कलाओं को बचाने और कलाकारां का संरक्षण देने के लिए वास्तव में क्या कुछ ठोस हो रहा है यह बताने की जरूरत नहीं है। पहाड़ की अनूठी होली के संरक्षण और होली की इस गौरवशाली परम्परा को आगे बढ़ाने और इस थाती को नई पीढ़ी को सौंपने के लिये नैनीताल की चर्चित संस्था ‘युगमंच’ ने जो एक प्रयोग किया, उसकी अनुगूँज आज चारों ओर सुनाई दे रही है। इस पहल से पहाड़ में होली को फिर से संजीवनी मिली है और वह अपने पूर्व स्वरूप में लौटने की ओर अग्रसर है। पूर्व की स्थिति पर राजीव लोचन साह जी ने गिरदा द्वारा संकलित-संपादित पुस्तक ’रंग डारि दियो हो अलबेलिन में’ के प्रकाशकीय में गहरी चिन्ता के साथ कुछ यूं लिखा है :- ’’सन 1977 तक नैनीताल में होली की परम्परा काफी क्षीण हो चुकी थी। होली बैठकें इक्का-दुक्का घरों तक सीमित रह गई थीं। यहाँ तक कि शारदा संघ जो नैनीताल में संगीत का बड़ा केन्द्र है, थक गया था। छलड़ी के दिन हारमोनियम गले में टांगे बाजार में जनता को होली की आशीष देने वाले बुजुर्ग अब घर से बाहर नहीं निकलते थे।’’
ढाई दशक पूर्व जब ‘युगमंच’ ने होली महोत्सव की परिकल्पना की तो उस समय स्थिति और भी बदतर हो चुकी थी। तमाम बाहरी व भौतिक दबाव, पलायन, नशे व हुड़दंग की प्रवृत्ति का बढ़ना और धीरे-धीरे अपनी जड़ों व संस्कृति से दुराव इसके कुछ कारण थे। गीत-संगीत से शराबोर मस्ती वाली पहाड़ी होली कहीं बिला गई थी। डीजे का शोर, कीचड़ उछालना, गालियां देना, मुँह काला करना, कपड़े फाड़ना और साल भर के फस्ट्रेशन होली में निकालने की कलुषित प्रवृत्ति बढ़ती जा रही थी। लड़कियों और महिलाओं ने तो हुड़दंग के कारण निकलना ही कम कर दिया था। पहले नैनीताल में होलियों में खूब टूरिस्ट आते थे और निर्भय होकर घूमते थे। पर यह स्थिति भी बदल गई थी।
अधिकांश शान्तिप्रिय जन और होली के रसिया दुखी थे। लेकिन केवल दुखी होने भर से तो काम चलने वाला नहीं था। हालांकि शारदा संघ, राम सेवक सभा, नैनीताल समाचार या व्यक्तिगत रूप से कुछ छिटपुट बैठ होली के आयोजन हो रहे थे। भारत सरकार के गीत और नाटक प्रभाग के नैनीताल केन्द्र ने भी कुछ आयोजन किये। अन्ततः ‘युगमंच’ ने वैचारिक रूप से परिपक्व समझ रखने वाले लोगों के साथ सोच विचार के बाद 1996 में ठोस पहल कदमी ली। तय पाया कि परम्परागत बैठ होली का एक बड़ा आयोजन होगा, जिसमें तमाम संस्थाओं, होलियारों ओर होली रसिकों को बड़े पैमाने पर जोड़ा जाएगा। इससे पूर्व युगमंच मुख्यतः नाटक व अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए ही जाना जाता था। योजना के अनुसार बैठ होली का एक बड़ा आयोजन ’होली महोत्सव’ के नाम से नैनीताल नगर पालिका भवन में आयोजित किया, जो बेहद सफल रहा। अच्छी भागीदारी रही। बधाइयाँ भी खूब मिलीं।
अगले वर्ष होली से पहले ही तमाम सामाजिक, सांस्कृतिक संस्थाआें के प्रतिनिधियों और सुधी जनों की बृहद मीटिंग बुलाई गयी। पूर्ण होली महोत्सव का एक खाका विचार विमर्श के लिए प्रस्तुत किया गया। बैठक में डॉ. विजय कृष्ण, गिरदा, राजीव लोचन साह, बटरोही, गिरधारी लाल साह, गंगा प्रसाद साह, विश्वम्भर नाथ साह सखा, शेखर पाठक, के.के. साह, मोहन चन्द्र जोशी, प्रमोद साह, धर्मवीर परमार, जसी राम आर्य, राजेन्द्र लाल साह, नवीन चन्द्र साह आदि तमाम विद्वानों के साथ और युगमंच परिवार के सदस्य व होली रसिक मौजूद थे।
बैठक में निर्णय किया गया कि ‘होली महोत्सव’ तीन दिवसीय होगा। इसमें उत्तराखण्ड तथा बाहर के अधिक से अधिक होली कलाकारों, गायकों को सम्मिलित करने का प्रयास होगा। इसमें पहाड़ की होली के सभी स्वरूप- गायन, नर्तन, बैठी व खड़ी, महिला होली, स्वांग और होली जुलूस सहित तमाम आयोजन होंगे। यह परम्परागत कुमाउनी होली का एक पूरा पैकेज होगा, जिसके माध्यम से बताया जाएगा कि हमारे पहाड़ की होली का असली स्वरूप क्या है।
इस होली महोत्सव को आशा से अधिक सफलता मिली। नैनीताल के अलावा दूर-दूर तक इसकी चर्चा हुई। पूरा नगर होली के रंगों, गीत-संगीत से सराबोर था। लोगों को एक साथ बड़े पैमाने पर सलीके से सजाए गये होली के तमाम अंगो और रंगो से रूबरू होने का मौका मिल रहा था। कहीं कोई हुडदंग या बदतमीजी नहीं हुई। बहुत उत्साह भरी शांति से सबकुछ निपट गया था। जनता और होल्यार दोनों खुश थे। छलड़ी (दुलहंडी) के दिन प्रशासन के अधिकारियों द्वारा युगमंच परिवार को मिठाई के साथ बधाई प्रेषित की गई, इस टिप्पणी के साथ कि ’’युगमंच’ ने कमाल कर दिया और प्रशासन ने भी इस बार बड़ी शांति से होली मनाई’’।
इस अनूठे होली महोत्सव को मीडिया ने भी हाथोंहाथ लिया। कई अखबारों ने एक पूरा पेज तक इस आयोजन को दिया। नेशनल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया यानी दूरदर्शन, एन.डी.टी.वी. और जी.टी.वी. ने भी भरपूर कवरेज दी। फिर साल दर साल इस कार्यक्रम को कवर करने के लिए चैनल्स का जमघट लगने लगा। बी.बी.सी. और जर्मन रेडियो डाइचे वेले ने भी इसका संज्ञान लिया और अपने संवाददाता भेजे। कुमाउनी होली की इस रंग बिरंगी भव्यता को देखते हुए उत्तराखण्ड के पर्यटन विभाग ने अपने वार्षिक कलेण्डर में भी इस इवेन्ट को स्थान दिया।
यहाँ पर हम होली की राग-रागिनियों और इतिहास-भूगोल पर चर्चा नहीं कर रहे हैं, क्योंकि उस पर काफी कुछ कहा जा चुका है। तमाम विद्वानों- गिरदा, डॉ, प्रयाग जोशी, डॉ. चन्द्रशेखर तिवारी, शिवचरण पाण्डे, नलिन धोलकिया, सखा जी आदि ने विस्तार से अपने लेखों में इस पर चर्चा की है। ‘नैनीताल समाचार’ तो प्रति वर्ष नियमित रूप से होली विशेषांक निकालता ही है। यहाँ हम इस पर चिन्तन कर रहे हैं कि किसी विलुप्त हो रही समृद्ध और महत्वपूर्ण कला को कैसे संजीवनी दी जा सकती है। इन पचीस वर्षों में होली महोत्सव के जरिये युगमंच ने उसी प्रकार कुछ प्रयोग किये जैसे कोई वैज्ञानिक किसी विशाल और बेहद सुन्दर वृक्ष को बचाने के लिए करता है, जिसकी जड़ें बहुत गहरी हैं और जिसकी फलों भरी शाखें हवा के साथ झूमती हुई खुशबू बिखेरती हैं। किन्तु उसके तने को दीमक लग गई है।
ृ हम सभी जानते है कि कुमाऊँ की होली रूपी इस गुलदस्ते में कई रंगो के खुशबूदार फूल अपनी मनमोहक छटा बिखेरते हैं। अब हम इस मुद्दे यानी होली के उन फूलों पर अलग-अलग चर्चा कर लेते हैं कि युगमंच ने एक योजना के तहत क्या-क्या प्रयोग किये।
नैनीताल से बाहर सम्पर्क
नैनीताल नगर में तमाम सम्बन्धित लोगों से होली प्रोजेक्ट पर पूरी बातचीत हो ही चुकी थी। मगर होली के रंग देश में दूर-दूर तक बिखरे हुए पहाड़ी समाज के बीच फैले हैं। अतः ‘युगमंच’ के कुछ सदस्यों ने, जिनमें डॉ. विजय कृष्ण, विश्वम्भर नाथ साह ‘सखा’, गिरदा व जहूर आलम सम्मिलित थे, दूर-पास के नगरों तक यात्राएं कीं और वहाँ होल्यारों को होली महोत्सव में शिरकत और सहयोग के लिए आमंत्रित किया। जसके बहुत अच्छे नतीजे सामने आए और बाहर से भी उत्साहजनक भागीदारी हुई।
खड़ी होली : खड़ी होली कुमाउँनी होली का मुख्य अंग है, जो लोक के ज्यादा करीब है। मुख्यतः ग्रामीण अंचलां में गोल घेरे में ढोल और मंजीरे की ताल पर और झूम झूम कर नृत्य करते हुए सामूहिक रूप से गायी जाती है। नगरों में इसका प्रचलन बहुत कम है। यहाँ तक कि नैनीताल नगर के कई निवासियों ने तो यह होली पहले देखी ही नहीं थी। पहले होली महोत्सव में ‘युगमंच’ से जुड़े रहे अध्यापक होल्यार संतोष लाल साह पिथौरागढ़ से खड़ी होली के कलाकारों की टीम बस भर कर नैनीताल पहुँचे। नैनीताल वाले खड़ी होली की भव्यता और रंगत देखकर अचंभित और उत्साहित हो गये। तब से आज तक खड़ी होली, युगमंच होली महोत्सव का मुख्य आकर्षण बन गया है। प्रति वर्ष एक से चार खड़ी होली दलों ने सुदूर अंचलों से आकर कार्यक्रम की शोभा बढ़ाई है। पिथौरागढ़, चम्पावत पाटी, प्रचार, लोहाघाट, थुवामौनी, कानीकोट, गेवाड़ पट्टी, सतराली, गंगोलीहाट, देवीधूरा, अल्मोड़ा, खेतीखान, लड़़ीधूरा, बालाकोट, थारू होली खटीमा के साथ ही गंगोलीहाट के महिला ख़ड़ी होली दलों ने इस आयोजन में शिरकत की है। होली महोत्सव से पहले खड़ी होली के होल्यार कलाकार अपने घर गांव तक ही सीमित रहते थे। लेकिन अब इन्हें एक नई पहचान और सम्मान मिला है और दिल्ली देहरादून तक इन्हें आयोजनों में बुलाया जाने लगा है। अब खड़ी होली के ये कलाकार पूरे साज-बाज और सम्मान के साथ इन महोत्सव में सम्मिलित होते हैं।
खड़ी होली क्योंकि मुख्यतः ग्रामीण क्षेत्रों तक ही सीमित रही है। युगमंच ने प्रयास किया कि इस विधा को नैनीताल शहर में भी प्रारम्भ किया जाए। इसकी शुरूआत हमने स्कूलों से की, ताकि नई पीढ़ी तक यह समृद्ध थाती पहुंचे। गिरदा ने जिम्मेदारी ली और डॉ. बी. सी. शर्मा को साथ ले स्कूलों के अध्यापकों की सहायता से खड़ी होली की कार्यशालाएँ प्रारम्भ कीं। इसके सुखद परिणाम सामने आए और विद्यार्थियां की खड़ी होली की टीमें भी महोत्सव में भागीदारी करने लगीं।
बैठी होली : बैठ होली मुख्यतः नगरों कस्बों में बैठ कर गायी जाती है। शास्त्रीय राग रागिनियों पर आधारित (शुद्ध राग नहीं) इस होली को नागर होली भी कहा जाता है। इसे एक मुख्य होली गायक द्वारा गाया जाता है और गम्मज में मौजूद लोग इसके बीच -बीच में भाग लगाते हैं। इसे सामूहिक एकल गायन भी कहा गया है।
अन्य नगरों की भॉति नैनीताल में भी बैठ होली गायन की परम्परा बहुत मजबूत रही है। होली के एक से एक घुरंधर गवैये यहाँ मौजूद थे। अल्मोड़ा आदि से भी वहां के दिग्गज होल्यारां का आदान-प्रदान होता था। कई संस्थान और गाने सुनने के शौकीनों के घरों पर रात-रात भर की महफिलें जमती थीं। धीरे-धीरे होली के शौकीनों में कमी आने लगी। बुजुर्ग होल्यार अपनी गति को प्राप्त हो रहे थे। नई पीढ़ी का अपनी इस गौरवशाली गायन परम्परा से जुडा़व नहीं हो पा रहा था। अपनी परम्परा से अनुराग का कम होना, होली सीखने सिखाने का अभाव, कई प्रकार के अन्य आकर्षण और बढ़ रहे नशे के जहर ने बैठी होली को बहुत नुकसान पहुंचाया था।
हमने पास-दूर के तमाम होल्यारों को आग्रहपूर्वक आमंत्रित किया और इसके मकसद पर लम्बी बातचीत की। यह तजवीज सभी को पसंद आयी और पहले ही वर्ष बैठ होली में तमाम स्थानीय कलाकारों के साथ ही बाहर से होली गायक बड़ी संख्या में एक स्थान, एक मंच पर एकत्र हुए। तमाम होल्यारों ने बड़े ही उत्साह से भागीदारी की और होली महोत्सव की शामें और रातें होली के रंगो में डूबी रहीं।
बैठ होली कार्यशाला : अब हमारी चिन्ता यह थी कि अपनी जड़ों से कट चुकी नई और युवा पीढ़ी को होली की परम्परा से कैसे जोड़ा जाए ? बाकायदा होली सिखाने की कोई परम्परा नहीं थी। जिज्ञासु एकलव्य की तरह बुजुर्गों से बैठकों में लगातार होली सुन सुनकर या भाग (आवाज) लगाते-लगाते होली सीख लिया करते थे। पर अब किसी के पास ऐसी दीवानगी कहां ? हमारे आग्रह पर अग्रज होली गायक गिरधारी लाल साह जी के नेतृत्व में राजा साह जी आदि ने नवयुवकों और किशोरों को होली सिखाने का बीड़ा उठाया। नई पीढ़ी को आकर्षित करने के लिए बाकायदा प्रमाण पत्र और पारितोषिक की घोषणा की गई। इसके सुखद परिणाम सामने आए। बोए गये बीज अंकुरित होकर खिलने लगे। कार्यशालायें अब से होली महोत्सव का एक जरूरी अंग बन गयी हैं। नैनीताल में नई पीढ़ी के होली गायक ऐसी ही कार्यशालाओं की देन हैं। इस सफलता को देखकर अन्य स्थानों पर भी ऐसी कार्यशाला लगने लगी है। और तो और लड़कियां भी होली सीखने आगे आ रही हैं।
महिला होली : पहाड़ी होली का एक बहुत महत्वपूर्ण अंग महिला होली भी है, जिसमें स्वांग भी शामिल है। पच्चीस वर्ष पूर्व तक महिलाएं होली गायन के लिए अपने घर-पटांगण तक ही सीमित रहती थीं। कई महिला संगठनों से बात के बाद हम महिलाओं को खुले मंच पर गाने और स्वांग करने के लिए तैयार कर सके। उन्होंने ऐसी धूम मचाई कि लोग फटी आंखों देखते ही रह गये। खुले मंच पर महिला होल्यारों का यह रूप लोगों ने पहली बार देखा था। रोपे गये इस बीज की पुष्पित बेल बहुत ऊंचाई तक पहुंच चारों ओर अपनी सुगन्ध फैला रही है। सारे प्रदेश में आज महिला होली की धूम मची हुई है। महिला होली के बीसियों संगठन बन गये हैं। जगह-जगह नगर कस्बों में महिला होली की प्रतियोगिताएं आयोजित हो रही हैं। मैं निसंकोच कह सकता हूं की अब होली मंच प्रस्तुति के मामले में महिलाओं ने पुरूषों को पीछे छोड़ दिया है।
सम्मान समारोह : पहले होल्यारों को वह सम्मान नहीं मिल पाता था जिसके वे हकदार थे। अगर वे अन्य गायकी में निपुण नहीं होते तो उन्हें चन्द रोज का मेहमान मानकर दरकिनार कर दिया जाता था। कहा जाता था कि ’’पूस के पहले इतवार से ये जागेंगे और छलड़ी खेलकर ये फिर सो जाएंगे’’। परिवार और समाज में होल्यारों की गायक के रूप में कोई मान्यता नहीं मिलती थी। कलाकार इज्जत का भूखा होता है। उसे मान्यता और सम्मान मिलना बहुत जरूरी है। इसी को ध्यान में रखते हुए होली महोत्सव के दौरान होली के हर अंग यानी बैठी, खड़ी और महिला होली कलाकारों के सम्मान के लिए बाकायदा एक सम्मान समारोह शुरू हुआ, जिसमें प्रति वर्ष कुछ चुनिन्दा बजुर्ग होल्यारों को गरिमापूर्ण ढंग से खुले मंच पर जनता के बीच सम्मानित किया जाने लगा। होल्यारों को मान्यता दिलवाने में गहन प्रयास किये गये। कई बड़े कल्चरल फेस्टीवल में होली गायकों को भेजने में भी सफलता मिली। गिरदा और राजीव दा के नेतृत्व में ‘नैनीताल समाचार’ की होली के अवसर पर बुजुर्ग होल्यारों को सम्मानित करने की महत्वपूर्ण परम्परा पूर्व से ही प्रचलित थी। युगमंच ने इसे आगे बढ़ाया।
नशे से दूरी : होली को बिगाड़ने में नशे के जहर की बड़ी भूमिका रही है। युगमंच ने पूरी दृढ़़ता के साथ इस बुराई का सामना किया। कई लोग नाराज हुए। मगर सही लोग जुड़ने लगे और होली को इसका फायदा हुआ।
प्रतिस्पर्द्धा : महोत्सव से खड़ी होली और महिला होली की टीमों में एक दूसरे से और बेहतर करने की एक स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा की भावना उत्पन्न हुई। इससे होली को और बढ़ाने में भरपूर सहायता मिली। नई पीढ़ी और छात्रों में रुचि पैदा करने के लिए प्रतियोगिताओं और महिलाओं की ओर परितोषिक व प्रमाण पत्रों आदि की व्यवस्था की गई जो होली के आकर्षण का मुख्य केन्द्र बन गई। इससे होली का विस्तार भी हुआ।
संस्थागत सहयोग : होली के उत्थान के लिए हमारे इस मिशन में जिन स्थानीय और बाहरी संस्थाओं ने हमें सहयोग दिया उनमें नैनीताल समाचार, नयना मन्दिर देवी अमर उदय ट्रस्ट, शारदा संघ, राम सेवक सभा, हुक्का क्लब अल्मोड़ा और पर्यटन व संस्कृति विभाग, गीत और नाटक प्रभाग आदि प्रमुख हैं।
उपर्युक्त सभी पहल कदमियों के अलावा होली को और आकर्षक व व्यापक बनाने के लिए युगमंच ने लगातार प्रयास किये हैं। होली महोत्सव के अन्तर्गत सेमिनार भी आयोजित किये गए, जिसमें विद्वानों की सिफारिश को लागू करने का प्रयास या संस्तुतियों को सरकारों तक भेजा गया। इन सिफारिशों के कारण ही बैठ होली की इस उपशास्त्रीय विधा को कुमाऊॅ विश्वविद्यालय के संगीत करिकुलम में सम्मलित करने के प्रयास हुए।
युगमंच ने खड़ी होली गीतों को पिथौरागढ़ जाकर रिकार्ड किया और फिर उसके कैसेट भी जारी किये। हमने केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी नई दिल्ली के लिए बैठ होली को क्रमानुसार रागों के क्रम में विभिन्न स्थानों पर जाकर होली गायकों को डाक्यूमेंट किया और महत्वपूर्ण 4 घंटे की डाक्यूमेंटरी संगीत नाटक अकादमी की आर्काइव के लिए निर्मित करके जमा की।
होली महोत्सव के रूप में युगमंच ने एक बिल्कुल नया कन्सेन्ट दिया जो बेहद सफल रहा है। पच्चीस साल से इस महत्वपूर्ण आयोजन को हम लगातार कर रहे हैं। यह सुखद है कि पूरे पहाड़ और सारे प्रदेश में इसका विस्तार हुआ है। युगमंच ने तो बस एक कैटेलिस्ट की तरह काम किया है। हमें लगता है कि इसी प्रकार के ईमानदार प्रयासों से हमारी खूबसूरत थाती बच पाएगी।