डॉ अतुल शर्मा
इधर देहरादून की पुरानी यादों का सिलसिला जारी है। एक के बाद एक पर्ते खुलती ही जा रही हैं । इस्ट कैनाल रोड में बहती नहर का अपना ही आनन्द था । वैसे ऐसी बहुत सी नहरें देहरादून की पहचान थी। अन्वरत बहता पानी। उसमें कभी-कभी गर्मियों मे छलांग लगाते युवाओ को देखा जा सकता था । बचपन में हम भी खूब तैरे इसमें । इन नहरों पर पन्चक्की हुआ करती थी। दूर दूर से लोग गेहूं पिसाने आते थे। अब तो अधिकांश जगहों पर यह हैं ही नहीं।
बरसाती नदियों का उफान इतना होता था कि रिस्पना और बिन्दाल के इस तरफ और उस तरफ लोगो को इंतजार करना होता था कि जब पानी उतरे तो नदी पार की जा सके। जोगीवाला जाना हो तो एक बरसाती नदी का यही हाल था । जहां अब बस्तियां बसी है वहां तब झरने बहते थे। सहस्रधारा में एक चट्टान से सैकड़ों बूदे देखने के लिए लोग दूर-दूर से यहाँ आते थे। यहां का गंधक का चश्मा (झरना) भी आकर्षण का केंद्र होता था । बताया जाता था कि यह पानी चर्म रोगों के लिये लाभदायक होता।
कभी राजपुर रोड शहंशाही आश्रम से पैदल ही सहस्रधारा जाना होता तो कभी अन्य स्थानों से। पहाडो़ पगडन्डियों और वनस्पतियों के बीच से पैदल निकलना अविस्मरणीय पल की तरह अभी तक यादों में है।
प्रेमनगर से आगे तक चाय बागान याद आते थे। हम कौलागढ़ मे ऋषिराज नौटियाल जी के घर जाते थे। वे हमारे पिता जी श्री राम शर्मा प्रेम के भाई सरीखे थे। उनका कविता संग्रह था “मुंडमालिनी “। वहीं कवि साहित्यकार डॉ गंगा प्रसाद विमल की बहन भी रहती थीं । गांवो का संस्कार और अपनापन यहां मिलता था । इधर बद्रीपुर में तो हमारा बचपन बीता । जोगीवाला से पैदल चार-पांच किलोमीटर पैदल चल कर स्वतंत्रता सेनानी चौधरी सत्येन्द्र सिंह का निवास था। उनका घर गन्ने के खेतों और बास्मती चावल की महक से महकता रहता था जिसका एहसास आज भी बना है । उनको हम ताऊ जी कहते थे। उनकी पत्नी ने ही मेरा नाम रखा था। वहां एक बड़ा तालाब था जिसमें कमल खिले रहते थे।
दूनघाटी के चारों तरफ देहातों का अद्भुत संसार बसा था। टपकेश्वर के मेले मे लोग कौलागढ से पैदल ही जाते थे।
डालनवाला हो या चुक्खूवाला या झंडा मोहल्ला या अन्य जगह वहां तरह तरह के फल और फूल दिखाई दे जाते थे। आम, लीची, आडू, प्लम, आमपिच, मौलशी, अमरुद आदि तो हर घर मे आमतौर पर मिल ही जाते थे। हमने बहुत लम्बे समय तक फल खरीद कर नही खाये । कहीं न कहीं से आ ही जाते थे। सब में अपनेपन का भाव था।बहुत याद आता है यह सब।
परेडग्राउंड एक खाली जगह थी जहां कुश्ती दंगल होता और सर्कस लगती । उस समय उसके लाउडस्पीकर की आवाज़ बहुत दूर तक जाती थी । रेसकोर्स तो मैदान ही था और वसंत विहार के आसपास जंगल और चाय बागान थे।
घंटाघर का उद्घाटन सरोजनी नायडू ने किया । उसके सामने टिनशेड मे मुख्य डाकघर हुआ करता था । यहीं से तार (टैलीग्राम) किये जाते । मोहल्ले में डाक के डिब्बे होते जिसमें चिट्ठियां डाली जातीं और वह सुरक्षित तरह से पहुँचती भी थी ।
सुभाष रोड से परेडग्राउंड के बीच दायी तरफ रेंजर्स कॉलेज हुआ करता जिसके किनारे बांस के घने और लम्बे पेड़ थे । अब तो ये बस समृति में ही रह गए हैं। वहीं झब्बा लाल जी की कोठी में किराये में रहते थे राजशाही के खिलाफ और स्वतंत्रता के लिये जेल जाने वाले निर्भीक पत्रकार परिपूर्नानन्द पैन्यूली जी । वे टाइम्स आफ इन्डिया के संवाददाता भी थे । हम उनको चाचा जी कहते थे। उनके घर लगे टेलीफोन से हम ट्रंककौल करते थे। यह एक्चेंज ऑफिस से संभव होता । बाद में वे संसद सदस्य भी बने ।
कचहरी के पास स्व रामकृष्ण कुकरेती जी के ‘नया जमाना’ प्रेस में हमारी मुलाकात महान स्वाधीनता सेनानी वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली से हुई थी। फाल्तू लाइन के समीप युगवाणी प्रेस में आचार्य गोपेश्वर कोठियाल जी से तो मिलना होता ही था।
फाल्तू लाइन होली समिति में लोकगायक जीतसिंह नेगी, केशव अनुरागी, जीत जडधारी, उर्मिल कुमार थपलियाल आदि सक्रिय रहते और जीत सिंह नेगी जी के संगम होटल मे तो सक्रियता बनी ही रहती।
उर्मिल कुमार थपलियाल जी ने मेरे संपादन में निकलने वाली पुस्तक “वाह रे बचपन ” में फाल्तू लाइन, पटेल रोड के बारे में अपने बचपन का संस्मरण लिखा है ।
राजपुर रोड में विजय लक्ष्मी पन्डित रहती थीं तो भारत सरकार मे मंत्री महावीर त्यागी का घर रैस्ट कैम्प में था। बहुत से महत्वपूर्ण लोग रहे यहां । सबकी यादें बनी हुई हैं। वे सभी हमारे पारिवारिक सदस्य की तरह ही रहे।
देहरादून में नाटकों का भी गजब का इतिहास रहा है । यहां पृथ्वी राजकपूर ने अपने पृथ्वी थियेटर ग्रुप के साथ नाटक प्रस्तुत किया था । लिटन रोड=सुभाष रोड पर रहते थे फिल्म जगत के प्रसिद्ध खलनायक के एन सिंह।
रामलीलाओं से इसकी शुरुआत मानी जा सकती है । फिर साधूराम महेन्द्रू जी ने सामाजिक और ऐतिहासिक नाटक किये ।कई लोग इसमें सक्रिय रहे । ये सन् चालीस और पचास के आसपास की बात रही होगी । फिर पूजा पंडाल आदि सक्रिय रहे । बहुत लोगो ने क्रम जारी रखा । यहां मोहन उप्रेती और नईमा खान की प्रस्तुति के अलावा कई और प्रस्तुतियां भी हमने देखी । बाद मे दून रंगमंच ने करवट ली और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय दिल्ली की नाटक कार्यशाला मे बंसी कौर ने दून के रंगकर्मियो के साथ नाटक किया । यह नाटक था धर्मवीर भारती का “सूरज का सातवां घोड़ा “।
श्रीश डोभाल और हिमानी शिवपुरी (उस समय भट्ट) और अन्य सशक्त रंगकर्मी यहाँ साथ रहे । यहां पर मोहिनी रोड के पास भगवत् शरण उपाध्याय रहते थे और इसी के पास थी पद्म कुमार जैन जी की लाइबेरी बाद में वे इसे राजपुर रोड मे ले गये । इस पुस्तकालय का नाम था “ज्ञानलोक “। दूसरे पुस्तकालय भी थे। जहां मैं जाता था वह उसका नाम था खुशीराम लाइब्रेरी ।
साहित्यकारो का भी यह केन्द्र रहा है । राहुल सांक्रित्यायन, सत्यकेतु विद्यालंकार आदि के साथ बहुत से वरिष्ठ कवि लेखक यहां सक्रिय रहे । कई जगह गोष्ठियां होती पर बह्मदेव जी के ‘आर के स्टूडियो’ और कवि स्वतंत्रता सेनानी श्री राम शर्मा ‘प्रेम’ के निवास पर भी लोग जुड़ते थे।
कोयला लाते और बेचते लोग याद है। घरों में अंगीठी ही जलती थी । पंखे तो थे ही नही । लोग बताते हैं कि सन चालीस के आसपास राजपुर मे बर्फ भी पड़ती थी ।
हरियाली और खूबसूरत मौसम के लिये प्रसिद्ध वो दूनघाटी तो बस अब यादों में ही रह गई है ।