रेवती बिष्ट
उत्तराखंड मेरी मातृभूमि … जैसे अमर गीतों के रचनाकार , गिरीश तिवारी, ‘ गिर्दा’ को समस्त उत्तराखंड वासियों का नमन। हमारा नमन।।
कई बार गिर्दा की देह असमर्थ हो जाती थी पर गिर्दा की सोच कभी असमर्थ नहीं रही।
उनकी समर्थ सोच हमेशा सबकी उम्मीद जगाए रखती थी कि – जैंता एक दिन तो आलो ऊ दिन यो दुणी में / चाहे हम नी ले सकूं चाहे तुम नी ले सकौ मगर कोई न कोई त ल्याल ऊ दिन यो दुणी में …..
उम्मीद से भरे इन गीतों के रचनाकार गिर्दा अक्सर बहुत गम्भीर रचनाएं करते थे – ” पानी विच मीन पियासी / खेतों में भूख उदासी / यह उलट बासियां नहीं कबीरा खालिस चाल सियासी ..पर कभी – कभी हमेशा बुजुर्ग बने रहने वाले गिर्दा जवान हो जाते और गा उठते – ‘ ऋृतु औनि रौली भंवर ऊड़ाला बलि / हमरा मुलुका भंवर उड़ाला बलि …. कभी गिर्दा प्रकृति में तल्लीन होकर गाते -‘ पार पंछयू धार बटि हुलरी ऐगे ब्याल।
हुलरी ऐगे ब्याल ॥ ‘ और कभी गांव को अपने कंठ से जीवन्त कर देते – ‘ मुश्किल से आमा का चूल्हा जला है / गीली है लकड़ी कि गीला धुंआ है ‘ …
ऐसे अद्भुत गिर्दा से मुलाकातें भीअद्भुत रहीं। शादी के बाद नैनीताल गए, ना ना हम किसी फाइव स्टार में थोड़ी ठहरे, अब अशोक और सेवॉय से परिचित हुए वहीं ठहर गए और फिर चल दिए गिर्दा से मिलने उस दृश्य के लिए अद्भुत शब्द छोटा पड़ेगा। एक छोटा सा टांट दरी लगा हुआ कमरा, कमरे में छोटी सी चारपाई पर गुदड़ी बिछी हुई, जिस पर हमें बैठना नसीब हुआ ठीक सामने बगैर पल्ले के दरवाजे और बगैर पल्ले की खिड़की वाला छोटी सा रसोई घर, लकड़ियों पर खाना बनाने वाले राजा इस वक्त उस लकड़ी के चूल्हे में चाय बनाने का उपक्रम कर रहे थे। यह कमरा एकदम बगल से सटे नाले के सुसाट से हमेशा गुंजायमान रहता। कमरे के अन्दर राजा का छोटा सा बेटा प्रेम भी रहता। प्रेम गिर्दा को बब्बा संबोधन से संबोधित करता। चारपाई पर थोड़ी सी जगह बनाकर उसी में भोजन भी चलता। वहीं पर प्रेम अपनी बाल्यावस्था के खेलों में मगन रहता। नाले के जबरदस्त शोर के बीच बात-चीत भी चलती रहती। चूल्हे में लकड़ी पर सेंक कर बनाई गई रोटी का स्वाद गजब होता।
बढ़ी हुई दाढ़ी, बदन पर पहना लम्बा कोट, तरतीब से ऊपर को समेटे गए घुंघराले बाल और कन्धे पर लटका एक अदद झोला, झोले में पत्रिकाएं, बीड़ी और मफलर जैसी वस्तुएं मौजूद रहतीं। कभी में उनके लिए कुछ सामान जैसे साबुन कंघी जैसी छोटी छोटी वस्तुएं उनके लिए रखती तो गिर्दा उस पुन्तुरी को भी उसी झोले में रख देते।
‘सांग एन्ड ड्रामा डीविजन ‘ में कार्यरत गिर्दा बहुत बड़े रंगकर्मी थे। ‘अंधा युग’, ‘थैंक्यू मिस्टर ग्लाड ‘ जैसे अनेक नाटकों का निर्देशन एवं मंचन गिर्दा ने करवाया था। ब्रजेन्द्र लाल साह, मोहन उप्रेती, लेनिन पन्त जैसे कई दिग्गजों से उनका संपर्क बना रहता था। रंगकर्म में प्रतिभा संपन्न गिरीश तिवाड़ी को गांव के जटिल जीवन, मानवीयता पर उनके अटूट विश्वास और महत्वपूर्ण क्रान्तिकारी वामपन्थी सोच ने ‘गिर्दा’ बना दिया। गिरीश तिवाड़ी के गिर्दा में रूपान्तरित होने में चिपको के जुझारू नौजवानों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। इन सबके साथ सीखता सिखाता, बहसें करता, सड़कों पर जनगीत गाता यह कारवां बढ़ता रहा। शमशेर सिंह बिष्ट, शेखर पाठक, पी.सी. तिवारी, प्रदीप टम्टा, जहूर आलम, राजीव लोचन साह, निर्मल जोशी, गोविन्द राजू, हरीश पन्त, महेश जोशी, षष्टी दत्त जोशी आदि युवाओं से गिर्दा की बात-चीत निरन्तर होती रहती। उन्होंने नैनीताल समाचार, पहाड़ और युगमंच के भविष्य की नींव रखी पर इन सब सार्वजनिक कार्यों से अपनी व्यक्तिगत तकलीफों को अलग रखा।
शेखर के साथ लिखी उनकी रचना ‘शिखरों के स्वर ‘ और ‘कविता के आंखर ‘ बहुत ही उत्कृष्ट रचनाएं थीं।
गिर्दा का अल्मोड़ा आना – जाना लगा रहता। पलटन बाजार भी और यहां भी। गिर्दा त्योहारों में भी कभी कभार आते रहते। इन त्योहारों में राखी का त्योहार मेरे लिए यादगार त्योहार होता। मेरी राखी को उनकी कलाई का इन्तजार रहता। चैत्र माह की भिटौली भी वह मेरे लिए अवश्य देते। जब इस त्योहार में गिर्दा नहीं आ पाते तो वह इनको फोन करते कि शमशेर तुम इसे सौ रुपये दे देना अभी नहीं आ पा रहा हूं, बाद में दे दूंगा। गिर्दा के अल्मोड़ा आने पर में उनके लिए मैं पुन्तुरी तैयार रखती, उसमें साबुन, दाढ़ी का सामान , पेस्ट वगैरह रखा होता। बहुत खुशी से वह उस पुन्तुरी को स्वीकार कर लेते I बच्चों को बडे़ लाड़ से आशीर्वाद देने वाले सबसे प्यार करने वाले और सबके भीतर प्यार पैदा करने वाले गिर्दा की पैदाइश ज्योली गांव में हुई थी और धार की तुनी में उनका भरा पूरा परिवार निवास करता रहा। उनके चाचा प्रसिद्ध वैद्य थे। सबको दवा देते थे। लखनऊ, पहाड़ों की तराई और अन्त में नैनीताल जीवन यापन करने वाले गिर्दा का सम्पूर्ण जीवन संघर्षों में ही कटा। संगीत उनकी सांसों में बसा था और उन्हें गुस्सा बहुत कम आता था। बहुत कहने पर गिर्दा ने शादी की। शादी पान्डे खोला से हुई हीरा भाभी से। गिर्दा के जीवन में परिवर्तन आ गया वेश-भूषा साफ सुथरी, चेहरे से दाढ़ी नदारद, झोला यथास्थान कंधे पर ही रहा पर साफ सुथरा। उनका प्यारा सा बेटा है तुहिन।
हमेशा ही याद आते रहेगी वो खनकदार आवाज, वो गजब का हुड़का और उनका गाना। जब गाते थे तो सबको मंत्रमुग्ध कर देते थे गिर्दा।