राजीव लोचन साह
उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश की विधानसभाओं के चुनाव हो गये हैं और सरकारें भी स्थापित हो गयी हैं। बदलाव की उम्मीद करने वाले लोग सकते में हैं। इस चुनाव में ‘गोदी मीडिया’, मुख्यधारा का वह मीडिया जिसे सरकारों की गोद में बैठ जाने के कारण गोदी मीडिया कहा जाने लगा है, तो पूरी तरह भारतीय जनता पार्टी का प्रचार कर रहा था। सत्तर के आसपास टी.वी. चैनल और अनगिनत अखबार भाजपा को दुबारा सत्ता में लाने के लिये कटिबद्ध थे। मगर तथाकथित वैकल्पिक मीडिया भी अपने आँकलन में पूरी तरह गलत साबित हुआ। उसने जो तस्वीर बनायी, उससे लगता था कि बदलाव अवश्यम्भावी है। बड़े-बड़े विशेषज्ञ और पण्डित यही विश्लेषण करते दिखे। मगर वैसा नहीं हुआ। दोनों प्रदेशों में भाजपा ने आराम से सरकार बनायी। दरअसल उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव शुरू में एक अनिच्छुक प्रत्याशी थे। साढ़े चार साल तक वे जनता के दुःख-कष्टों से निरपेक्ष रहे। फिर चुनाव आये तो बदलाव की ताकतों ने उन्हें धकेलना शुरू किया। उन्होंने मेहनत भी की। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। उत्तराखंड में भी कांग्रेस की लगभग यही स्थिति रही। पूरे वक्त जनता से कटे रहने के बाद उसने चुनाव में प्रवेश किया भी तो वह अपने अंतर्विरोधों और गुटबाजी से नहीं उबर सकी। शुरू से ही वह एक ऐसी टीम की तरह रही, जिसमें जीतने की इच्छा ही न हो। दोनों प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों को बधाई और शुभकामनायें देने का शिष्टाचार तो बनता ही है। मगर ऐसा लगता नहीं कि आगे कुछ अच्छा होने वाला है। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने तो हाल में चर्चा में रहे भू कानून या बेरोजगारी और महंगाई पर कोई कदम उठाने से पहले कॉमन सिविल कोड के लिये एक विशेषज्ञ समिति बनाने जैसा विवादास्पद निर्णय लेना उचित समझा। जबकि जानकार लोग बतलाते हैं कि इस विषय पर कानून बनाना इतना उलझा और टेढ़ा है कि किसी राज्य सरकार के लिये सांवैधानिक रूप से लगभग असम्भव है।