सन्त समीर
संयोग से अपने कैमरे की बीस साल पुरानी कुछ तसवीरें मेरे पास हैं, वरना लोग इसे किसी गप्प से कम नहीं मानते। कल ऑस्ट्रेलियावासी हमारे मित्र विवेक उमराव से पता चला कि वहाँ हाइड्रोजन से गाड़ियाँ चलने लगी हैं और जगह-जगह पेट्रोल पम्प की तरह हाइड्रोजन पम्प बन गए हैं। उन्होंने कुछ तसवीरें भी अपनी पोस्ट में लगाई हैं। साठ रुपये किलो के हिसाब से हाइड्रोजन भरा जाता है। एक बार टङ्की भरने के बाद क़रीब सात सौ किलोमीटर आप फर्राटे से जा सकते हैं। चीज़ें बढ़ेंगी तो यह और सस्ता हो सकता है। अच्छी बात है कि जो पम्प हाइड्रोजन भरता है, वह हाइड्रोजन बनाता भी है।
इस बात की चर्चा इसलिए कर रहा हूँ कि बीस साल पहले मुझे दो बाप-बेटे चन्द्रकान्त पाठक और देवकान्त पाठक मिले थे। मैंने ‘आउटलुक’ पत्रिका में उनके ऊपर तब एक लेख भी लिखा था। उन दिनों हम लोग ‘आज़ादी बचाओ आन्दोलन’ चला रहे थे और इसी के तहत हमने राजस्थान के कोटा शहर में सन् 2002 में एक स्वदेशी मेला आयोजित किया था। यह देश का अपनी तरह का पहला स्वदेशी मेला था और ज़ोरदार हुआ था। लाखों लोग शामिल हुए थे। बाद में इसी की तर्ज पर आरएसएस ने भी कुछ आयोजन किए।
कोटा के इसी मेले में ये दोनों बाप-बेटे हफ़्ते-दस दिन हमारे साथ रहे थे। ये दोनों चालीस तरह से हाइड्रोजन बनाने की विधियाँ बताते थे और दावा करते थे कि यह सबसे बेहतर और पर्यावरणसम्मत ईंधन हो सकता है, जिससे आप ज़मीन के छोटे-से-छोटे इञ्जन से लेकर आसमान में हवाई जहाज़ तक उड़ा सकते हैं। ये बाप-बेटे पानी से हाइड्रोजन बनाकर मोटर साइकिल और जीप चलाकर दिखाते भी थे। भारत ही नहीं, दुनिया के लिए यह बात अजूबा थी, तो उन्हें सन्देह की नज़रों से देखा जाता था। कुछ वैसे ही जैसे कि सबसे पहले बायोफ्यूल बनाने वाले रामर पिल्लै को अविश्वसनीय घोषित करके तब की काँग्रेस सरकार ने जेल में डाल दिया था। सरकार कोई भी हो, अम्बानी जैसों के रिश्ते सबके साथ बराबर होते हैं। ज़ाहिर है, तेल का धन्धा बचाना ज़रूरी होता था, इसलिए वैज्ञानिक संस्थानों से ही कहलवा दिया जाता था कि बायोफ्यूल या हाइड्रोजन टाइप की चीज़ों से ईंधन बनाना जादू-टोना जैसा है या जनता को मूर्ख बनाना है और फिर वैकल्पिक ईंधन पर काम कर रहे लोगों को हतोत्साहित किया जाता था।
यों, हाइड्रोजन बनने-बनाने की बातें विज्ञान की किताबों में हम पढ़ते ही रहे हैं, पर ईंधन के रूप में इसके इस्तेमाल को आमतौर पर असम्भव माना जाता था। ख़तरनाक तो ख़ैर माना ही जाता था। हाइड्रोजन को फ्यूल के हिसाब से इस्तेमाल करने की परिकल्पना का इतिहास उन्नीसवीं सदी के आख़िरी दशक के आसपास से ही हम मान सकते हैं, पर इसके एक सदी बाद तक अव्यावहारिक मानकर इस पर कुछ ख़ास काम नहीं हुआ। इसके अलावा तेल लॉबी किसी आसान ईंधन को आसानी से सामने नहीं आने देना चाहती थी, पर अब जब हाइड्रोजन और बायोफ्यूल, ईंधन के रूप में सही साबित हो चुके हैं, तो इन्हें शुरू करने वालों की ज़िन्दगी तबाह करके इनकी तकनीक पर भी धन्धेबाज़ ही क़ब्ज़ा करना चाहते हैं।
चन्द्रकान्त पाठक और उनके बेटे को शुरू में सरकार का सहयोग नहीं मिला, पर जब स्वदेशी मेले में उन्होंने हज़ारों लोगों के सामने अपनी दर्जन भर लोकोपयोगी तकनीकों का सार्वजनिक प्रदर्शन किया और राजीव दीक्षित ने अपने भाषणों में ज़ोर-शोर से ज़िक्र किया तो महाराष्ट्र सरकार के एक महकमे ने उन्हें सम्मानित किया। कुछ विदेशी सम्मान भी उन्हें मिले। भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के ज़रिये बड़ा सम्मान उन्हें सन् 2015 में तब मिला, जब उनका देहान्त हो चुका था।
चन्द्रकान्त जी धुन के धनी थे। तकनीक को आसान बनाने का जुनून उनमें ऐसा था कि अच्छी-भली इञ्जीनियरिङ्ग की नौकरी उन्होंने छोड़ दी थी। उनके कई काम ऐसे थे, जिन्हें देखकर कोई भी आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रह सकता। मेरे पास उनके कुछ कामों का ब्योरा है। हाइड्रोजन को आसान ईंधन के रूप में प्रयोग करके जब उन्होंने दिखा दिया तो उसके दस साल बाद उद्योगपति रतन टाटा ने घोषणा की कि पानी से इञ्जन चलाने के काम को आसान बनाने के लिए वे पचास करोड़ रुपये दे सकते हैं। चन्द्रकान्त जी ने एक यन्त्र ऐसा भी बनाया था, जो बिना बिजली या तेल के दो सौ फुट ऊँचाई तक पानी की आपूर्ति कर सकता था और नदी वग़ैरह से बिना किसी ईंधन के पानी खींच सकता था। काश, ऐसे लोगों के कामों को सही समय पर सही महत्त्व दिया जाए तो जीवन कितना आसान हो जाए। दुर्भाग्य कि हमारी सरकारें मुनाफ़ाखोरों की गिरफ़्त से बाहर नहीं निकल पातीं और ज़िन्दगी को आसान बनाने वाले लोगों की ही ज़िन्दगी कठिन बनाने का काम करती हैं।
याद आया है तो पता करने की कोशिश करूँगा कि चन्द्रकान्त पाठक के बेटे देवकान्त (पङ्कज) आजकल कहाँ हैं? आप में से किसी को मालूम हो तो ज़रूर बताइगा।