इन्द्रेश मैखुरी
सन 1993 में हाईस्कूल करने के बाद मैं उत्तरकाशी आया. यहां मैंने ग्यारहवीं कक्षा में प्रवेश लिया. इंटरमीडिएट से लेकर ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई यहीं हुई. 1994 के उत्तराखंड आंदोलन में यहीं से एक्टिविजम का सिलसिला शुरू हुआ, जो आजतक जारी है. इस तरह पिछले 30-31 वर्षों से उत्तरकाशी को मैं जानता हूं. उत्तरकाशी में रहने की अवधि के दौरान और विभिन्न आंदोलनों में सीखने-समझने के दौरान बीते 30 वर्षों में मैंने तो कभी नहीं सुना कि उत्तरकाशी की एक मस्जिद से बहुसंख्यक समुदाय को इतनी अधिक परेशानी या घृणा है ! फिर अचानक ये क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है ?
आखिर पिछले एक महीने में ही वह मस्जिद कुछ लोगों की आँखों में इस कदर क्यों मिर्च की तरह चुभने लगी कि उसके लिए वे उत्तरकाशी की शांत फिजाओं को हिंसा और घृणा से भरने पर उतारू हो गए ? यह मत बताइये कि उत्तरकाशी, हिंदू धर्म की नगरी है. धर्म नगरी तो वह मस्जिद के बनने से पहले भी थी और 1969 में मस्जिद के बनने के बाद 55 सालों में भी उसके धर्म नगरी की पहचान पर कभी कोई संकट नहीं आया. लेकिन मस्जिद की आड़ लेकर पिछले एक महीने से उस धर्म नगरी को सांप्रदायिक नगरी में तब्दील करने की कोशिश की जा रही है.
उत्तरकाशी में बीते दिनों मस्जिद के नाम पर जिस तरह की घृणा और हिंसा फैलाने की गयी, वैसी उत्तरकाशी में इससे पहले कभी नहीं देखी गयी. इस सांप्रदायिक नफरत की खेती के पीछे सत्ता के संरक्षण में पलने वाले सांप्रदायिक तत्व तो हैं ही, लेकिन मस्जिद के मामले को विवादास्पद बनाने में उत्तरकाशी के जिला प्रशासन की भूमिका भी कम नहीं है. सूचना का अधिकार के तहत मांगी गयी एक सूचना में जिला कार्यालय के लोक सूचना अधिकारी ने ऐसा जवाब दे दिया, जिससे मस्जिद के होने पर ही प्रश्न चिन्ह खड़ा हो गया. यह सूचना अधिकार में दिया गया भ्रामक जवाब ही था, जो सांप्रदायिक उन्माद फैलाने वालों के हाथों में हथियार बन गया. उन्होंने मामले को जैसे लपक लिया और सांप्रदायिक अभियान छेड़ते हुए मस्जिद को तोड़ने का आह्वान सोशल मीडिया के जरिये किया जाने लगा. अखबारों में इस आशय की खबर छपी कि जिला कार्यालय से दी गयी सूचना भ्रामक है. 13 सितंबर 2024 के दैनिक जागरण में इस आशय की खबर छपी है कि जिला प्रशासन उक्त सूचना को अपूर्ण मान रहा है. उत्तरकाशी के जिलाधिकारी डॉ मेहरबान सिंह बिष्ट का बयान भी उक्त खबर में था कि मस्जिद की जमीन की रजिस्ट्री और दाखिल खारिज भी है. लेकिन सांप्रदायिक तत्वों को इस सफाई से कोई सरोकार था ही नहीं. उनके लिए सूचना अधिकार में मिला कागज वो हथियार था, जिसके जरिये वो घृणा की आग जला सकते थे !
इस मामले में प्रश्न यह उठता कि आधी-अधूरी सूचना मानवीय त्रुटि थी या फिर सूचना देने वाले का सांप्रदायिक तत्वों के साथ किसी तरह का गठजोड़ या हेलमेल था ? इतने संवेदनशील मसले पर इस तरह की लापरवाही तो आपराधिक ही कही जाएगी क्योंकि उस लापरवाही ने उत्तरकाशी के शांति, अमन-चैन और भाईचारे को खतरे में डाल दिया और उसी लापरवाही ने सांप्रदायिक तत्वों को उपद्रव करने का आधार और अवसर दे दिया. लेकिन अब तक भी ऐसी आपराधिक लापरवाही के लिए किसी के खिलाफ कोई भी कार्रवाई क्यों नहीं हुई ? क्या उत्तरकाशी के जिला प्रशासन और उत्तराखंड शासन का कोई धार्मिक पूर्वाग्रह है, जो ऐसे बवाल से तुष्ट हुआ ?
उत्तरकाशी के जिला प्रशासन ने मस्जिद की जांच करवाई और पाया कि मस्जिद पूरी तरह वैध है. उसके सारे कागज वैध हैं. इस आशय का प्रेस नोट भी जारी किया गया. समाचार पत्रों में खबरें भी छपी.
लेकिन तब सवाल है कि मस्जिद के ध्वस्तिकरण के लिए सांप्रदायिक और दंगाई मानसिकता वाले तत्वों द्वारा चलाये जा रहे अभियान को रोकने के लिए कोई ठोस कानूनी कार्रवाई क्यों नहीं की गयी ? पथराव और बलवे की घटना के बाद जिला मजिस्ट्रेट, उत्तरकाशी का बयान आया कि प्रदर्शनकारियों ने जुलूस निकालने के लिए दी गयी अनुमति का उल्लंघन किया ? सवाल यह है कि जब जिला प्रशासन मस्जिद को जांच करके वैध पा चुका था और सांप्रदायिक तत्व लगातार मस्जिद गिराने को लेकर अभियान चला रहे थे तो उन्हें जुलूस निकालने की अनुमति ही क्यों दी गयी ? यह अनुमति कार्यक्रम के एक दिन पहले किसके दबाव में दी गयी ? यह भी जवाब तो उत्तरकाशी के जिलाधिकारी को देना चाहिए कि जुलूस निकालने की अनुमति जिन शर्तों पर दी गयी, उनका उल्लंघन ना हो, यह सुनिश्चित करने के लिए उनके द्वारा क्या उपाय किए गए थे ? क्या प्रदर्शन में उत्पात होने का कोई इंटेलिजेंस इनपुट था या नहीं ? अगर था तो उस पर क्या कार्रवाई की गयी ? अगर नहीं था तो जो बवाल की आशंका चारों तरफ पसरी हुई थी, वो इंटेलिजेंस को ही कैसे नजर नहीं आई ?
24 अक्टूबर को जब उग्र सांप्रदायिक प्रदर्शन हो रहा था तो पुलिस पर बोतलें फेंकने से शुरू हुआ उत्पात पुलिस के लाठियां फटकारने के बाद पथराव में बदला और फिर तो पुलिस को दौड़ाने और घायल करने तक जा पहुंचा. उत्पाती भीड़ ने बहुत कम मशक्कत के बाद पुलिस के लगाए बैरिकेड भी उखाड़ फेंके. इस पथराव में 8 पुलिसकर्मियों को चोटें आई, जिसमें उत्तरकाशी के कोतवाल समेत दो इंस्पेक्टर, चार सब इंस्पेक्टर और दो कांस्टेबल घायल हो गए. इसमें से एक इंस्पेक्टर और एक कांस्टेबल को गंभीर चोटें आईं. पथराव के वायरल वीडियो को देख कर साफ लग रहा है कि पुलिस उत्पातियों का मुकाबला करने के लिए पूरी तरह ना तो तैयार थी और ना ही प्रशिक्षित ! यह भी वीडियो में दिख रहा है कि पहले दौर में सही में पुलिस ने “हल्का” ही बल प्रयोग किया, इसलिए पथराव करने वाले तुरंत ही पुलिस पर भारी पड़ गए. पथराव और लठियाँ फटकारने के बीच भी पुलिस इन उग्र सांप्रदायिक प्रदर्शनकारियों की प्रचार गाड़ी, उसमें बैठे लोगों और उनके नेताओं के प्रति काफी उदार और मित्रवत ही नजर आ रही थी. प्रदेश में सांप्रदायिक बवाल की हर घटना के कुछ स्थायी चेहरे हैं, उनको भी आराम से उत्तरकाशी पहुंच कर उत्पात की आग में घी डालने का भरपूर अवसर प्रशासन ने दिया और आलम यह है कि बवाल में उनके शामिल होने के बावजूद एफआईआर में उनका नाम तक नहीं है.
यह हैरत की बात है कि प्रदेश के एक प्रमुख शहर में इतना बड़ा बवाल हुआ, पुलिसकर्मी भी घायल हुए, लेकिन मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के मुंह से बोल तक नहीं फूटे. जिस वक्त वनभूलपुरा में बवाल हुआ तो मुख्यमंत्री स्वयं घायल पुलिसकर्मियों से मिलने पहुंचे. लेकिन उत्तरकाशी के घायल पुलिसकर्मियों के प्रति सहानुभूति के बोल तक मुख्यमंत्री के मुंह से नहीं सुनाई दिये ! क्या इसलिए कि यहां पुलिसकर्मी से पथराव करने वाले उनके वैचारिक सहोदर हैं ? या इसलिए कि पुलिसकर्मियों की चोटों का सांप्रदायिकरण करने का स्कोप उत्तरकाशी में नहीं है ? मुख्यमंत्री हर घटना का नामकरण ‘जेहाद’ के तौर पर करते हुए ऐसी भाषा बोलते हैं, जो असंवैधानिक और सांप्रदायिक पूर्वाग्रह से उक्त होती है. विभिन्न जगह सांप्रदायिक द्वेष भड़काने में शामिल छुटभय्ये भी जाकर मुख्यमंत्री के साथ फोटो सेशन करवा आते हैं. इस तरह से प्रशासन और पुलिस को भी संकेत चला जाता है कि इन पर किसका हाथ है !
पिछले कुछ अरसे से उत्तराखंड में आए दिन किसी ना किसी बात को सांप्रदायिक उन्माद पैदा करने के बहाने के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है. कुछ अपराध हुआ हो या ना हुआ हो, लेकिन एक सांप्रदायिक उन्मादी उत्पाती भीड़ हर जगह मौजूद है. निरंतर सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों से घृणा का प्रसार जारी है, जो सांप्रदायिक बवाल के लिए खाद-पानी उपलब्ध करवाने का काम करता है. पुलिस लाख दावा करती रहे कि सोशल मीडिया के जरिये सांप्रदायिक नफरत फैलाने वाली और झूठी सूचनाओं पर उसकी नजर है, लेकिन उस “नजर” का कहीं कोई असर नजर नहीं आता ! उत्तरकाशी के बवाल का उदाहरण देख लीजिये. खुद पत्थरबाजी करने के बाद सांप्रदायिक उत्पातियों ने इसका आरोप भी दूसरे समुदाय पर मढ़ने की कोशिश की और उसके जरिये भी हिंसा व घृणा फैलाने की कोशिश की. ऐसा होने के घंटों बाद उत्तरकाशी पुलिस का स्पष्टीकरण आया कि पथराव जुलूस में शामिल उत्पातियों ने किया. पुलिस के स्पष्टकरण के बावजूद नफरत फैलाने वाले सोशल मीडिया एकाउंट और हैंडल उस झूठी अफवाह का प्रसार जारी रखे हुए हैं. लेकिन कोई ठोस कार्रवाई अफवाह फैलाने वालों पर ना उस वक्त हुई और ना अभी हो रही है.
ध्यान से देखें तो पाएंगे कि इन सब घटनाओं का एक खास पैटर्न है, इनमें शामिल चेहरे भी वही हैं, जो समाज की किसी अन्य समस्या पर मुंह नहीं खोलते, मुंह तभी खोलते हैं, जब जहर उगलना होता है ! इसका एक स्थानीय पहलू है कि इनका एक खास राजनीतिक उद्देश्य है, कुछ क्षुद्र स्वार्थ और धंधों को ढकने का काम भी इनके जरिये किया जाता है. लेकिन इनका एक राष्ट्रीय पहलू भी है. लोकसभा चुनाव में मिले धक्के और डगमगाए आत्मविश्वास से उबरने के लिए पूरे देश में ही सांप्रदायिक नफरत का औजार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है. यह संयोग नहीं प्रयोग है. लेकिन इस प्रयोग की नफरती भट्टी में सौहार्द, अमन,चैन, भाईचारा तो खाक हो ही जाएगा, जनता के जीवन से जुड़े शिक्षा, रोजगार, बिजली, पानी, अस्पताल जैसे सवाल भी गर्क हो जाएँगे. इसलिए इससे पहले की नफरत की राजनीति पूरे समाज को खाक करे, इसे ध्वस्त करना आवश्यक है !