चारु तिवारी
कोरोना के चलते पहाड़ वापस आ रहे कामगारों को यहीं रोजगार देने के लिये सरकार ने प्रयास करने की बात कही है। पहाड़ से पेट के लिये लगातार हो रहे पलायन को रोकने की नीति तो राज्य बनने से पहले या अब राज्यत् बनने के शुरुआती दौर से ही बन जानी चाहिये थी। जब सरकार ने ऐसी मंशा व्यक्त की तो आज तक के अनुभवों को देखते हुये मैंने एक सिरीज शुरू की थी- ‘पलायन ‘व्यक्तिजनित’ नहीं ‘नीतिजनित’ है। इसकी पहली कड़ी में राज्य में मौजूदा कृषि भूमि की स्थिति को रखा। आज दूसरी कड़ी लिखने बैठा तो प्रदेश के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत जी का टीवी चैनल में साक्षात्कार देखा। उसमें उन्होंने वही घिसी-पिटी बातें कहीं, जिनके चलते लोगों को सरकार की नीतियों से विश्वास उठता रहा है। मुख्यमंत्री ने अपने साक्षात्कार में 2018 में अपनी उसी विवादास्पद ‘इंवेस्टर्स समिट’ का हवाला दिया, जो बड़े पूंजीपतियों के लिये वरदान और हमारे लोगों को पहाड़ छुड़वाने वाली साबित हुर्इ है। माना जा रहा था कि कोरोना के बहाने ही सही शायद नीति-नियंता अब कुछ बेहतर सोच रहे होंगे। लेकिन मुख्यमंत्री आज भी उसी ‘इंवेस्टर्स समिट’ का हवाला दे रहे हैं। उसे ही उत्तराखंड की प्रगति का आधार मान रहे हैं। हालांकि यह साक्षात्कार इतना सतही था कि इस पर ज्यादा बातचीत नहीं की जा सकती। हां, मुख्यमंत्री ने जो रटा-रटाया बोला, अगर वही नीति पलायन को रोकने की है तो यह बहुत अफसोसजनक है।
मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत ने ‘जी बिजनेस’ टीवी चैनल को दिये गये साक्षात्कार में कहा कि हम ऐसी नीतियां बना रहे हैं, जिससे ‘गांव का पलायन गांव’ में ही हो। यह एक किस्म से नया जुमला है। नर्इ शब्दावली भी। इसके सपोर्ट में उन्होंने जो बात कही वह और चौंकाने वाली है। मुख्यमंत्री कहते हैं कि हम गांव में रोजगार पैदा करने के लिये नर्इ टाउनशिप डेपलप करना चाहते हैं। इन टाउनशिप में अच्छे स्कूल और अस्पताल खुल सकें, रेस्टोरेंट, होटल खुल सकें, बड़े बाजार बन सकें ताकि हम लोगों को यहीं रोजगार दे सकें। इसके लिये 88 ग्रोथ सेंटर खोल गये हैं, जो पहले शहरों में थे। तेरह जिलों में डिस्टनेशन सेंटर खोलने की नीति बनार्इ है। उन्होंने 2018 में हुये ‘इंवेस्टर्स समिट’ का हवाला देते हुये बताया कि उनके प्रयासों से राज्य में निवेशकों ने 1 लाख 24 हजार करोड़ के निवेश की इच्छा जतार्इ थी। जिनमे से 23 हजार करोड़ के निवेश से यहां निवेशक अपना कारोबार कर रहे हैं। उन्होंने यह भी बताया कि राज्य बनने के बाद यहां निवेशकों ने 39 हजार करोड़ का निवेश किया था। इसी के आलोक में उन्होंने पूरे विकास का खाका खींचा है। मुख्यमंत्री ने इस साक्षात्कार में उसी तरह की बातें की हैं जो राज्य बनने के बाद दोहरार्इ जाती रही हैं। जैसे हार्टिकल्चर, पशुपालन, मत्स्य पालन, सुगंधित पादप खेती, गुलाब की खेती, को-आपरेटिव से ऋणमुक्त ब्याज, परंपरागत उपज को बढ़ावा आदि-आदि। इससे यह साफ हो गया है कि सरकार के पास कोर्इ ऐसा रोडमैप नहीं है जो आने वाले दिनों में पलायन रोकने के लिये किसी ठोस नीति पर काम कर सके। इन सब बातों को लोग दशकों से सुनते आये हैं।
आपको याद होगा मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत जी 6 अक्टूबर 20018 को जब देहरादून में देशभर के उद्योगपतियों को ‘इंवेस्टर्स समिट’ के नाम पर बुलाया था तो ऐलान किया था कि वह राज्य में ऐसा भूमि कानून संशोधन लायेगी, जिससे राज्य में उद्योगों को प्रोत्साहित किया जा सके। इसी घोषणा के अनुपालन में सरकार ने 6 दिसंबर, 2018 को ‘उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 (अनुकलन एवं उपरांतरण आदेश 2001) (संशोधन) अध्यादेश-2018’ को विधानसभा में रखा था। इसे 8 दिसंबर को पास कर राज्यपाल की मंजूरी के लिये भेजा गया था। राज्यपाल की मंजूरी के बाद इस अध्यादेश ने नये भूमि कानून का रूप लेकर पहाड़ों में जमीनों की बेतहाशा लूट का रास्ता खोल दिया। इस संशोधन के अनुसार अब पहाड़ में किसी भी कृषि भूमि को कोर्इ भी कितनी भी मात्रा में खरीद सकता है। पहले इस अधिनियम की धारा-154 के अनुसार कोर्इ भी कृषक 12.5 एकड़ यानि 260 नाली जमीन अपने पास रख सकता था। इससे अधिक जमीन पर सीलिंग थी। नये संशोधन में इस अधिनियम की धारा 154 (4) (3) (क) में बदलाव कर दिया गया है। नये संशोधन में धारा 154 में उपधारा (2) जोड़ दी गर्इ है। अब इसके लिये कृषक होने की बाध्यता समाप्त कर दी गर्इ है। इसके साथ ही 12.5 एकड़ की बाध्यता को भी समाप्त कर दिया गया। अब कोर्इ भी व्यक्ति किसी भी उद्योग के प्रयोजन के लिये कितनी भी जमीन खरीद सकता है। इतना ही नहीं नये संशोधन में अधिनियम की धारा- 143 के प्रावधान को भी समाप्त कर दिया गया। पहले इस अधिनियम के अनुसार कृषि भूमि को अन्य उपयोग में बदलने के लिये राजस्व विभाग से अनुमति जरूरी थी। अब इस संशोधन के माध्यम से इस धारा को 143 (क) में परिवर्तित कर दिया गया है। अब अपने उद्योग के लिये प्रस्ताव सरकार से पास कराना है। इसके लिये खरीदी गर्इ कृषि जमीन का भू-उपयोग बदलने की भी जरूरत नहीं है। इसे बहुत आसानी से अकृषक जमीन मान लिया जायेगा। इस इस संशोधन की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह पहाड़ में उद्योग लगाने के लिये किसी भी निवेशक को जमीन खरीदने की छूट प्रदान करती है। इससे आगे बढ़कर सरकार ने इसी कानून की धारा-156 में संशोधन कर तीस साल के लिये लीज पर जमीन देने का अध्यादेश पास किया है। इससे समझा जा सकता है कि कृषि से रोजगार देने की बात करने वाली सरकार के दावे कितने खोखले हैं।
देश के अन्य हिमालयी क्षेत्रों की संवेदनशीलता को समझते हुये यहां बहुत सख्त भू-कानून बनाये गये हैं। जम्मू-कश्मीर में संविधान की धारा-370 और 35-ए (अब हटा दी गर्इ हैं) से जमीनों की खरीद-फरोख्त पर रोक थी। पूर्वोत्तर के राज्यों में धारा-371-ए के माध्यम से जमीनों को बचाया गया है। हमारे पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश में अपनी जमीनों को बचाने के लिये धारा-118 बनार्इ है। इन राज्यों ने पहले अपनी जमीन को बचाया और फिर इसको विकसित करने का काम किया। यही वजह है कि जहां हिमाचल प्रदेश को आज हम ‘एप्पल स्टेट’ के रूप में जानते हैं तो सिक्किम को ‘जैविक राज्य’ के रूप में। हिमाचल प्रदेश में ‘हिमाचल प्रदेश टेंनसी एंड लैंड रिफाॅम्र्स एक्ट-1972‘ के 11 वें अध्याय में ‘कंट्रोल आॅन ट्रांसफर आॅफ लैंड’ में धारा-118 है। इस धारा के अनुसार हिमाचल में किसी भी गैर कृषक को जमीन हस्तांतरित नहीं की जा सकती है। इसका मतलब यह भी हुआ कि किसी भी कृषि जमीन को हिमाचल का रहने वाला ही गैर कृषक भी नहीं खरीद सकता। इसी धारा का 38-ए का सैक्शन-3 यह भी कहती है कि कोर्इ भी भारतीय (गैर हिमाचली) रिहायशी जमीन खरीदने के लिये आवेदन कर सकता है। इसकी सीमा भी 500 स्क्वायर मीटर होगी। लेकिन इसके लिये भी सरकार से इजाजत लेनी पड़ेगी। गैर हिमाचली सरकारी कर्मचारी भी अगर अपना आवास बनाना चाहें तो उनके साथ भी हिमाचल में तीस साल की सरकारी सेवा का प्रमाण पत्र होना चाहिये। इस प्रकार के प्रावधानों ने वहां की कृषि योग्य जमीन को बचाने का काम किया है।
सिक्किम में भी ठोस भू-कानून है। यहां भी कोर्इ गैर सिक्किमवासी जमीन नहीं खरीद सकता। सिक्किम की ‘दि सिक्किम रेग्युलेशन आॅफ ट्रांसफर आॅफ लैंड (एमेंडमेंट) एक्ट 2018 की धारा-3 (क) में यह प्रावधान किया गया है कि लिम्बू या तमांग समुदाय में ही जमीन खरीदी या बेची जा सकती है। इसमें भी यह प्रावधान किया गया है जमीन बेचने वाले को कम से कम तीन एकड़ जमीन अपने पास रखनी होगी। यह प्रावधान इसलिये किया गया कि जो जमीन बेच रहा है वह भूमिहीन न रहे। इसमें यह भी प्रावधान है कि केन्द्र द्वारा अधिसूचित ओबीसी को अपने पास तीन और राज्य द्वारा अधिसूचित ओबीसी को दस एकड़ जमीन अपने पास रखनी होगी। मेधालय में में जमीनों की खरीद-फरोख्त पर पाबंदी है। ‘दि मेघालय ट्रांसफर आॅफ लैंड (रेग्युलेशन) एक्ट 1971 में प्रावधान है कि कोर्इ भी जमीन आदिवासी को नहीं बेची जा सकती।
दुर्भाग्य से जिस जमीन को बचाकर नीति नियंताओं ने गांवों को बसाने की नीतियां बनानी चाहिये थी वे बेशर्मी के साथ सबसे पहले जमीनों को बेचने में लग गर्इ। उत्तराखंड में हमेशा जमीनों के सवाल को लेकर जनता आंदोलित रही है। राज्य आंदोलन के समय भी यह मांग रही है कि राज्य में ऐसा भू-काननू आना चाहिये जिससे हमारी जमीनों को बेचने से रोका जाये। लेकिन सरकारें लगातार जनता को गुमराह कर इन जमीनों के सौदे करती रही हैं। आज जब मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत और उनके नीति-नियंता यह बात कर रहे हैं कि वे पलायन को रोकना चाहते हैं तो वे जमीनों के सवाल पर चुप क्यों हैं? क्या हम यह उम्मीद लगा सकते हैं कि कोरोना त्रासदी को जिस तरह मुख्यमंत्री ‘अवसर’ के रूप में देख रहे हैं, यह अवसर भूमि कानूनों को बदलने के लिये भी होगा या हमेशा की तरह हवार्इ विकास की बात होती रहेगी। अगर सरकार समझती है कि पहाड़ से पलायन को रुकना चाहिये तो सबसे पहले उन्हें गांवों को बसाने की बात करनी चाहिये। गांव बसाने के लिये जमीन चाहिये। जमीन के लिये जनपक्षीय भू-कानून और भू-प्रबंधन चाहिये। क्या सरकार ऐसा सोच रही है? अगर सोच रही होती तो हमारी जमीनों को लीज पर देकर ‘कांटेक्ट फार्मिंग ’ के बहाने बड़े पूंजीपतियों के हवाले करने की साजिश नहीं करती। जब लोग कोरोना संकट से जूझ रहे थे सरकार ने चुपके से ‘कांटेक्ट फार्मिंग’ का मसौदा पास करा दिया। सरकार ने प्रदेश में सोलर प्लांट लगाने के नाम पर लोगों की जमीनों को लीज पर देने के लिये बड़े निवेश का प्रस्ताव पहले से ही किया हुआ है। और भी बहुत सारी योजनायें सरकार की प्रस्तावित हैं, जो बड़े पैसे वालों के लिये पहाड़ के गांवों की जमीनों को खरीदने का रास्ता तैयार करती हैं। सरकार उन लोगों को अपनी जमीन पर कुछ करने को प्रोत्साहित नहीं करती जो लगातार पहाड़ छोड़ने को मजबूर हैं।